Dhanna ji _धन्ना जी महाराज के पावन चरित्र

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 श्री धन्ना जी महाराज (जाट भक्त )

 के पावन चरित्र 





 घर आए हरिदास तिनहि गोधूम खवाए । तात मात डर खेत थोथ लांगलहिं चलाए ॥ आस पास कृषिकार खेत की करत बड़ाई । भक्त भजे की रीति प्रगट परतीति जु पाई ॥ अचरज मानत जगत मैं कहुँ निपज्यौ कहुँवै बयो । धन्य धना के भजन कों बिनहिं बीज अंकुर भयो ॥ 

         परम पुण्यवान , प्रशंसनीय भक्त श्रीधन्नाजीकी भगवद्भागवत सेवाकी हम सराहना करते हैं , जिनके खेतमें बिना बीज बोये ही अंकुर जमा घरपर वैष्णवोंके आनेपर बोनेके लिये रखा हुआ बीजका गेहूँ उन्हें खिलाji  दिये और माता - पिताके डरसे खेतमें खाली - खाली हल चला दिये । ( परंतु सन्तसेवाके प्रतापसे बिना बोये भी खेतमें गेहूँ बढ़िया जमा , अतः ) पास - पड़ोसके किसान इनके खेतकी बड़ाई करते थे । ( जब श्रीधन्नाजीने जाकर देखा तो ) साधुसेवाकी प्रीतिरीति एवं प्रतीतिको प्रत्यक्ष पाया । इस बातको सुनकर संसारके लोग आश्चर्य मानते हैं कि बोया कहीं अन्यत्र गया और उपजा कहीं अन्यत्र ॥ 

श्रीधनाजीके पावन चरितका वर्णन इस प्रकार है

 श्रीधन्नाजीके बाल्यकालकी घटना है - एक बार एक वैष्णव ब्राह्मण ( श्रीत्रिलोचनजी ) इनके घर आये ।


एक दिन भगवान्‌ने श्रीथन्नाजीसे कहा- देखो धन्ना जो कोई जिसका खाता है , वह उसकी सेवा भी अच्छी तरह करता है । अतः मुझे भी कोई सेवा बताओ । श्रीधन्नाजीके मना करनेपर भी श्रीठाकुरजी इनकी गायें रोज चराने लगे । एक वर्ष बाद वे ब्राह्मण फिर इनके यहाँ आये , परंतु घरमें सेवा पूजाकी प्रीति - रीति कहीं खोजनेपर भी नहीं पाये । पूछने पर श्रीधन्नाजीने कहा कि भगवान् गैया चराने गये हैं । पण्डितजीको विश्वास नहीं हो रहा था , कारण कि सेवा - पूजा करते - करते जन्म बीत गया और आजतक दर्शन नहीं हुआ था । फिर पण्डितजीकी प्रार्थनापर श्रीधनाजीने उन्हें भी भगवान् श्यामसुन्दरका दर्शन करा दिया । फिर घर आकर श्रीधनाजीपर कृपा करके श्रीभगवान्ने आज्ञा दी कि तुम श्रीस्वामी रामानन्दाचार्यजीके पास जाओ और उन्हें अपना गुरु बनाओ अर्थात् उनसे विधि - पूर्वक मन्त्रदीक्षा ले लो । श्रीधन्नाजी जाकर श्रीस्वामीजीके शिष्य हो गये । शिष्य होनेपर भगवान्ने उन्हें हृदयसे लगा लिया । फिर श्रीधन्नाजी घरके सब काम - काज करते हुए भगवदाराधन करते रहे । 


श्रीप्रियादासजीने धन्नाजीके चरित्रोंका अपने कवितोंमें इस प्रकार वर्णन किया है 

खेत की तो बात कही प्रगट कवित्त माँझ और एक सुनौ भई प्रथम जू रीति है । आयौ साधु विप्रधाम सेवा अभिराम करै ढस्यौ ढिंग आय कही मोहूँ दीजै प्रीति है । पाथर लै दियो , अति सावधान कियौ , छाती महँ लाय जियो सेवै जैसी नेह नीति है । रोटी धरि आगे आँखि मूंद लियौ परदाकै छियौ नहिं टूक देखि भई बड़ी भीति है ॥ 

बार बार पाँव पर और भूख प्यास तजी धरै हिये साँचौ भाव पाई प्रभु प्यारियै । छाक नित आवै नीकै भोगको लगावै जोई छोड़े सोई पायें प्रीति रीति कछु न्यारियै ॥ जाकौ कोऊ खाय ताकी टहल बनाय करै ल्यावत चराय गाय हरि उर धारियै । आयौ फिरि विप्र नेह खोजहूँ न पायौ कहूँ सरसायौ बातें लै दिखायौ स्याम ज्यारियै ॥ 

द्विज लखि गायनिमें चायनि समात नाहिं भायनिकी चोट दुग लागी नीर झरी है । जायकै भवन सीता रैंयन प्रसन्न करें बड़े भाग मानि प्रीति देखी जैसी करी है ॥ धनाकौ दयाल है के आज्ञा प्रभु दई ढरौ करो गुरु रामानन्द भक्ति मति हरी है । भए शिष्य जाय आप छातीसों लगाय लिये किये गृह काम सबै सुनी जैसी धरी है ।।



 श्री सेन जी महाराज (नाई भक्त )


 प्रभू दास के काज रूप नापित को कीनो । छिप्र छुरहरी गही पानि दर्पन तहँ लीनो ॥ तादृस है तिर्हि काल भूप के तेल लगायो । उलटि राव भयो सिष्य प्रगट परचो जब पायो ॥ स्याम रहत सनमुख सदा ज्यों बच्छा हित धेन के । बिदित बात जग जानिए हरि भए सहायक सेन के ॥ 

 यह बात सर्वप्रसिद्ध है , सारा संसार जानता है कि श्रीभगवान् परम भागवत श्रीसेनजीके सहायक हुए । भक्तवत्सल प्रभुने अपने भक्त ( सेनजी ) के लिये नाईका रूप बनाया और अत्यन्त शीघ्र बगल में छुड़हरी लटकाये हाथमें दर्पण लिये ठीक सेनजीके समान ही रूप धारण करके जाकर राजाको तेलकी मालिश की जब यह रहस्य जाना तो वह उलटे सेनजीका ही शिष्य बन गया । जैसे नवीन बियायी हुई गाय हमेशा अपने बछङे के  हित के लिये सामने ही रहती है , उसी प्रकार भगवान् श्रीश्यामसुन्दरजी श्रीसेनजीके हित के लिये सदा उनके सन्मुख ही बने रहते थे । 

श्री सेन जी सम्बन्धित कुछ विवरण इस प्रकार है 

पाँच - छ सौ साल पहले की बात है ।बघेलखण्डका बांधवगढ़ नगर अत्यन्त समृद्ध था । महाराज वीरसिंह वहां के राजा थे । इसी नगर में एक परम सन्तोषी , उदार , विनयशील व्यक्ति रहते थे , उनका नाम था सेन राजपरिवारसे उनका नित्यका सम्पर्क या भगवान्‌की कृपासे दिनभरकी मेहनत मजदूरीसे जो कुछ भी मिला था , उससे परिवारका भरण - पोषण और सन्त - सेवा करके वे निश्चिन्त हो जाते थे । 

वे नित्य प्रातःकाल ध्यान और भगवान के स्मरणपूजन और भजनके बाद ही राजसेवा के लिये घर से निकल पड़ते थे और दोपहर को लौट आते थे । जातिके नाई थे । राजाका बाल बनाना , तेल लगाकर स्नान कराना आदि हो उनका दैनिक काम था । एक दिन वे घर से निकले ही थे कि उन्होंने देखा एक भक्तमण्डली मधुर मधुर ध्वनि से भगवान् के नामका संकीर्तन करती उन्होंके घरकी ओर चली आ रही है । सेनने प्रेमपूर्वक सन्तों को घर लाकर उनको यथाशक्ति सेवा पूजा की और सत्संग किया ।

 उधर महाराज वीरसिंहको प्रतीक्षा करते - करते अधिक समय बीत गया इतनेमें सेन नाईक रूपमें स्वयं लीलाविहारी राजमहल में पहुंच गये । सदाकी भाँति उनके कंधेपर सुरे , कैची तथा अन्य उपयोगी सामान तथा दर्पण आदिकी छोटी - सी पेटी लटक रही थी । उन्होंने राजाके सिरमें तेल लगाया , शरीरमें मालिश की , दर्पण दिखाया । उनके कोमल करस्पर्शसे राजाको आज जितना सुख मिला , उतना और पहले कभी अनुभवमें नहीं आया था सेन नाई बने भगवान् राजाकी पूरी - पूरी परिचर्या और सेवा करके चले गये । 

उधर जब भक्तमण्डली चली गयी तो थोड़ी देर के बाद भक्त सेनको स्मरण हुआ कि मुझे तो राजाको सेवा में भी जाना है ।

 कुछ भूल तो नहीं आये ? ' एक साधारण राजसैनिक ने टोक दिया ।

 नहीं तो , अभी तो राजमहल ही नहीं जा सका । सेन आश्चर्यचकित थे ।

 " आपको कुछ हो तो नहीं गया है ? मस्तिष्क ठीक - ठिकाने तो है न ? " भगवान्‌के भक्त कितने सीधे - सादे होते हैं , इसका पता तो आज ही चल सका । 

' सैनिक कहता गया । आज तो राजा आपकी सेवासे इतने अधिक प्रसन्न है कि इसकी चर्चा सारे नगरमें फैल रही है । ' सैनिक आगे कुछ न बोल सका । सेनको पूरा - पूरा विश्वास हो गया कि मेरी प्रसन्नता और सन्तोषके लिये भगवान्‌को मेरी अनुपस्थितिमें नाईका रूप धारण करना पड़ा । वे अपने - आपको धिक्कारने लगे कि एक तुच्छ - सी सेवापूर्तिके लिये शोभानिकेतन श्रीराघवेन्द्र को बहुरूपिया बनना पड़ा । प्रभुको इतना कष्ट उठाना पड़ा । उन्होंने भगवान्के चरणकमल का ध्यान किया ।मन ही मन प्रभू से क्षमा मांगी ।

उनके राजगहलमें पहुँचते ही राजा वीरसिंह बड़े प्रेम और विनय तथा स्वागत - सत्कारसे मिले , भगवान के साक्षात्कारका प्रभाव जो था । भक्त सेनने बड़े संकोचसे विलम्बके लिये क्षमा माँगी , सन्तोंक अचानक मिल जाने की बात कही ।दोनोने एक दूसरेका जीभर आलिंगन किया । राजाने सेनके चरण पकड़ लिये । वीरसिंह ने कहा राजपरिवार जन्म जन्म तक आपका और आपके वंशजका आभार मानता रहेगा । भगवान्ने आपको ही प्रसन्नता लिये मंगलमय दर्शन देकर हमारे असंख्य पाप - तापोंका अन्त किया है ।

 " श्री प्रिया दासजी ने श्रीसेनजी की सन्तसेवा निष्ठा और भगवान्‌ की कृपाका इस प्रकार वर्णन किया है

' बांधौगढ़ ' बास हरि साधु सेवा आस लगी पगी मति अति प्रभु परचौ दिखायौ है । करि नित्त नेम चल्यौ भूपकौ लगाऊँ तेल भयो मग मेल सन्त फिरि घर आयौ है ॥ टहल बनाय करी नृपकी न संक करी धरी उर श्याम जाय भूपति रिझायौ है । पाछे सेन गयौ पंथ पूछ हिये रंग छायौ भयौ अचरज राजा बचन सुनायौ है ॥ 

 फेरि कैसे आये ? सुनि अति ही लजाये कही सदन पधारे सन्त भई यों अबार है ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL Mishra 

Sanatan vedic dharma karma 

Bhupalmishra35620@gmail.com 


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