Pipaji 3 पीपा जी महाराज3

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 दुराचारी  भगवद्विमुखों को संत 

भाव प्रदान करना 


अब जब राजाका अन्तःकरण पवित्र हो गया , तब श्रीपीपाजीने उसे अनन्य भक्तिका उपदेश दिया । एक दिन एक साधुरूपधारी दुराचारी श्रीपीपाजीके पास आकर बोला - आप अपनी स्त्रीको मुझे एक रातके लिये दे दें । ' आपने कहा - ' ले जाओ । ' उसने सीता सहचरीजीसे कहा- ' आप मेरे संग दौड़कर चलो । ' आज्ञाके अनुसार ये उसके साथ दौड़ती हुई चलने लगीं । परंतु दौड़ते - दौड़ते सारी रात बीत गयी फिर भी उसका घर नहीं आया । प्रातः काल हो गया । ये बैठ गयीं और बोलीं कि अब मैं आपके साथ एक पग भी नहीं चल सकती हैं , क्योंकि मेरे स्वामीजीकी यह आज्ञा थी कि इनके साथ एक रात रहना । सो वह रात बीत गयी । उसने सोचा कि थक गयी हैं , अत : पालकी या गाड़ी ले आऊँ , उसमें बिठाकर ले चलूँ वह गाँवमें गया तो घर - घरमें श्रीसीता सहचरीके दर्शन हुए । तब उसकी आँखें खुलीं । वहीं आकर बोला - ' माताजी चलो , आपको स्वामीजीके पास पहुँचा आयें । ' आश्रममें आकर वह श्रीपीपाजीके और श्रीसीता सहचरीजीके पैरोंमें गिर पड़ा , उसके मनसे कामवासना दूर हो गयी और सन्त भगवन्तकी भक्तिमें दृढ़भाव हो गया । 


एक बार चार कामी कुटिल दुष्टोंने सुन्दर माला तिलक आदि धारण कर लिया और श्रीपीपाजीके निकट आकर बड़ी नम्रतासे बोले - ' आप सच्चे सन्तसेवी हैं , आप अपनी स्त्री हमें दे दीजिये । श्रीपीपाजीने उन्हें कामभावसे व्याकुल होकर प्रतीक्षा करते देखा तो कहा - ' आपलोग कोठेमें जाइये । ' जैसे ही ये लोग कोठेके द्वारपर गये , वैसे ही एक सिंहनी इन सबके ऊपर इन्हें फाड़ डालनेके लिये झपटी । परंतु उसने साधुवेष जानकर फाड़ा नहीं । वे चारों भयभीत होकर भागे और श्रीपीपाजीसे नाराज होकर बोले - ' तुमने तो वहाँ हमलोगोंको मरवानेके लिये सिंहनी बैठा रखी है , तुम साधु नहीं दुष्ट मालूम पड़ते हो । ' हँसकर आपने कहा ' आपलोग अपने हृदयकी कुत्सित भावनाओंको देखिये अनधिकार भोग - भावना ही सिंहनी है । सद्भावसे पुनः जाकर देखिये उन लोगोंने फिर जाकर देखा तो सीता सहचरीजी विराजमान हैं । वे सब चरणों में पड़कर रोने एवं अपराध क्षमा करनेकी प्रार्थना करने लगे । श्रीपीपाजीकी बातको सत्य मानकर वे सब उनके शिष्य बन गये । श्रीप्रियादासजीने उक्त घटनाओंका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है 


कियौ उपदेश नृप हृदैमें प्रवेश कियौ लियौ वही पन आप आये निज धाम है । बोल्यौ एक नाम साधु एक निसि देहु तिया , लेहू , कही भागौ , संग भागी सीता वाम है ॥ प्रात भये चलें नाहिं , रैन ही की आज्ञा प्रभु चल्यौ हारि आगे घर घर देखो ग्राम है । आयौ वाही ठौर चलो माता पहुँचाय आवौं , आय गहे पाँव भाव भयौ गयौ काम है ।। 

 विषयी कुटिल चारि साधु भेष लियो धारि कीनी मनोहारि कही तिया निज दीजिये । करिकै सिंगार सीता कोठे माँझ बैठीं जाय चाहें मग आतुर है अजू जाहु लीजिये । गये जब द्वार उठी नाहरी सुफारिबे कौं फार नहीं बानौ जानि आय अति खीजियै । अपनी विचारौ हियौ कियौ भोग भावनाकौ मानि साँच भये शिष्य प्रभु मति धीजियै ॥ 

ग्वालिनको शिष्य बनाना श्रीपीपाजीके यहाँ विराजमान साधु - सन्तोंने एक दिन दही पानेकी इच्छा प्रकट की कि आज तो श्रीरघुनाथजीका दही भोग आरोगनेका मन है । उसी समय एक ग्वालिन दही बेचती हुई उधर आयी । इससे यह जाना गया कि भगवान् अपने भक्तोंके मनोरथ पूर्ण करते हैं । श्रीपीपाजीने दहीका मूल्य पूछा तो उस ग्वालिनने तीन आना बताया । परंतु उस समय श्रीपीपाजीके पास एक भी पैसा नहीं था । उन्होंने उससे कहा- तू दही दे दे , पैसे अभी नहीं हैं , आज जो भी कुछ भेंटमें आ जायगा , वही तुझको मिल जायगा । यदि कुछ न आया तो तुम्हारा दही ही भेंट समझा जयगा । ग्वालिनने स्वीकार कर लिया । दहीका भोग लगा , साधुओंने शक्कर मिलाकर भोग लगाया और बड़े प्रेमसे दही पिया । उसी समय श्रीपीपाजीका एक शिष्य आया और उसने एक मोतीमालाके समेत बहुत सा धन भेंट किया । इन्होंने मोतीमाला और सम्पूर्ण धन ग्वालिनको दे दिया । वह उस धनको घर लायी , उसमेंसे कुछ थोड़ा अपने पास रखा , शेषको भक्त - भगवन्त सेवामें खर्च करके श्रीपीपाजीकी शिष्या बन गयी । ऐसे ही अनेकविध चरित्र थे पीपाजीके ।

 श्रीप्रियादासजी महाराजने इस घटनाका अपने कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है

 गूजरी को धन दियौ पियौ दही संतनि नै , ब्राह्मनकौ भक्त कियौ देवी दी निकारिकै । तेली कों जिवायो , भैंस चोरनिपै फेरि ल्यायौ , गाड़ी भरि आयौ , तन पाँच ठौर जारिकै ।। कागद लै कोरो कस्यौ बनियांको सोक हरयौ , भरयौ घर त्यागि , डारी हत्या हूँ उतारिकै । राजा कौ औसेर भई , सन्त कौ जु विभौ दई , लई चीठी मानि गये श्रीरंग उदारिकै ॥ 

     श्रीरंगदासको भक्तिका मर्म समझाना

  एक बार श्रीपीपाजी श्रीअनन्तानन्दस्वामीके शिष्य श्रीरंगजीके यहाँ पहुँचे , उस समय वे भगवान्का मानसी पूजन कर रहे थे । श्रीपीपाजी उनकी पौरपर बैठे रहे । श्रीरंगजी मानसी - पूजामें भगवान्का शृंगार कर रहे थे । पहले मुकुट धारण कराकर तब फूलोंकी माला पहना रहे थे । वह किंचित् छोटी होनेसे मुकुटमें अटक रही थी । उनकी समझमें नहीं आ रहा था कि कैसे पहनाऊँ ? श्रीपीपाजीका मानसी - सेवामें प्रवेश था , अतः बाहरसे ही कहा कि गाँठ खोलकर धारण करा दीजिये । श्रीरंगजीने ऐसा ही किया । फिर तुरंत ही विस्मित होकर आँख खोलकर इधर - उधर देखने लगे कि किसने इतनी गुप्त भावनाको प्रत्यक्ष देखकर मुझे उपाय बताया है । जब वहाँ कोई नहीं दिखायी पड़ा तो उत्सुकतावश बाहर आये । 

परम तेजोमय दिव्य भव्य , प्रसन्न मुख श्रीपीपाजीको देखकर श्रीरंगनाथजीने पूछा- आप कौन हैं , कृपा करके अपना नाम बताइये ? श्रीपीपाजीने मुसकराकर कहा - सन्तोंसे सुनकर श्रीरंगजी बड़े लज्जित हुए और समझ गये कि यह कोई इस प्रकार कुछ पूछनेकी विधि नहीं है । परम ज्ञानवान् सिद्ध पुरुष हैं । अतः गीतोक्त विधिसे पुनः परिचय पूछा । जब श्रीपीपाजीने अपना नाम , ग्राम बताया तो सुनते ही वह इनके श्रीचरण - कमलोंमें लोट - पोट हो गये । इसके बाद वे हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रतापूर्वक बोले - प्रभो ! मेरा मन तो यह था कि जब आप आयेंगे तो मैं गाजे - बाजेके साथ चलकर आपकी अगवानी करूंगा । परंतु आप तो बिना किसी पूर्व सूचनाके एकदम द्वारपर ही आ गये । आप कृपा करके बागमें पधारें , मैं आपकी अगवानी करने चलूँगा । श्रीपीपाजीने कहा- अरे भाई ! अब तो हम घरपर आ ही गये , अब अगवानी की क्या जरूरत रह गयी ? उन्होंने कहा - फिर तो महाराज , मेरी अभिलाषा अपूर्ण ही रह जायगी । अन्तमें उनके प्रेमसे हारकर श्रीपीपाजी घरसे एक कोस दूर बागमें जाकर विराजे । श्रीरंगजी खूब बाजे बजवाते हुए , मुहरें लुटाते हुए , प्रेमोन्मत्त होकर नृत्यगान करते हुए पालकी लेकर इनको लिवाने चले । श्रीपीपाजीने कहा कि पालकीपर तो हमारे श्रीसद्गुरुदेव श्रीस्वामी रामानन्दाचार्यजी चलते हैं , भला मैं पालकीपर कैसे चल सकता हूँ । यदि आपका ऐसा ही भाव है तो श्रीस्वामीजीकी छविको पालकीपर पधराकर ले चलें , मैं पैदल चलूँगा । ऐसा ही हुआ ।

श्रीपीपाजी उनके प्रेमको देखकर एक महीनेतक उनके घर रहे । श्रीपीपाजीके सत्संगसे सम्पूर्ण गाँव श्रीरामरंग में रंग गया । इसी प्रकार आपने दो स्त्रियोंको भक्तिका चेत कराया , ब्राह्मणकन्याका विवाह कराया , इत्यादि विविध चरित्रोंको प्रदर्शितकर पीपाजीने भक्तिका विस्तार किया । उनके उदात्त चरित्रका महान् विस्तार है । उपर्युक्त घटनाओंका श्रीप्रियादासजी महाराजने अपने कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है 

श्रीरंगके चेत धरयौ तिया हिय भाव भन्यौ ब्राह्मणको शोक हरयौ राजा पै पुजाय के । चंदवा बुझाय दियौ तेली को लै बैल दियौ दियौ पुनि घर माँझ भयौ सुख आय के ॥ बड़ोई अकाल पस्यौ जीव दुख दूरि कस्यौ परयौ भूमि गर्भ धन पायौ दै लुटाय कै । अति विसतार लियौ कियौ है विचार यह सुनै एक बार फेरि भूलै नहीं गाय कै ।।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL Mishra 

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