Sukhanand ji _ श्री सुखानंद जी महाराज

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  श्री सुखानंद जी महाराज

                                     


   के पावन चरित्र 

 सुखसागर की छाप राग गौरी रुचि न्यारी । पद रचना गुरु मंत्र मनों आगम अनुहारी ॥ निसि दिन प्रेम प्रबाह द्रवत भूधर ज्यों निर्झर । हरि गुन कथा अगाध भाल राजत लीला भर ॥ संत कंज पोषन बिमल अति पियूष सरसी सरस । भक्ति दान भय हरन भुज सुखानंद पारस परस ॥ 

 श्रीसुखानन्दजीकी भुजा आश्रितजनोंको भक्तिका दान देनेवाली और संसारका भय हरनेवाली थी और इनका स्पर्श लौहवत् विमुख , दुष्टजनोंको स्वर्णवत् साधु सदाचारी बनानेके लिये पारसमणिके समान था । ये अपने पदों ' सुखसागर ' की छाप लगाते थे । राग गौरीमें इनकी विलक्षण रुचि थी । इनके द्वारा रचे गये पद मानो गुरुमन्त्रतुल्य होते थे तथा इनकी रचना शास्त्रसम्मत होती थी । इनके हृदयमें निरन्तर प्रेमका प्रवाह उमड़ता रहता था और इनकी आँखोंसे ऐसा अविरल अश्रुपात होता रहता था , जैसे पहाड़से झरना झर रहा हो । भगवान्के अनन्त गुण , कथा तथा लीलासे परिपूर्ण इनका उन्नत ललाट अत्यन्त सुशोभित लगता था । ये सन्तसमुदायरूपी कमलवनका पोषण करनेके लिये सूर्य तथा अत्यन्त निर्मल , सरस अमृतके सरोवरके समान थे ॥  

 श्रीसुखानन्दजीसे सम्बन्धित विशेष विवरण इस प्रकार है

 श्रीसुखानन्दजीका जन्म उज्जैनके समीप किरीटपुर नामक स्थानपर श्रीजानकीनवमीके दिन हुआ था । आपके पिताका नाम श्रीत्रिपुरारिभट्ट और माताका नाम श्रीगोहावरीबाई था । आपके बचपनका नाम चन्द्रहरि था । जन्मसे ही आप योगसिद्ध महात्मा थे और आपके नेत्र अर्धनिमीलित रहते थे । बचपनसे ही आपमें भक्तिके संस्कार प्रबल थे । आप प्रतिदिन माँकी अंगुली पकड़कर पासके मन्दिरमें भगवान्के दर्शन करने जाया करते और जब थोड़ा बड़े हो गये तो स्वयं अकेले ही जाकर दर्शन कर आते थे । यह आपका नित्य कृत्य था । बचपनसे ही आपके जीवनमें अनेक चमत्कारी घटनाएँ घटीं । जब आप बालक थे और घुटनोंके बल चलते थे तो एक बार माँकी गोदसे उतरकर एक वृक्षके पीछे जाकर बैठ गये , थोड़ी देर बाद माता - पिताका जब उधर ध्यान गया तो देखा कि इनके सिरपर एक नाग फन फैलाये बैठा है । पिताके प्रार्थना करनेपर वह थोड़ी दूर जाकर अदृश्य हो गया । जब आप पढ़नेके लिये विद्यालय जाने लगे तो थोड़े ही समयमें आपने सम्पूर्ण श्रुति शास्त्रोंका सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर लिया और अपने विद्यागुरुसे कहा कि मुझे उस अक्षरका ज्ञान कराइये जो अक्षरातीतकी प्राप्ति करानेवाला हो । उपर्युक्त घटनाओंसे आपके माता - पिता और गुरुका पूर्ण विश्वास हो गया कि आप कोई अवतारी महापुरुष हैं , साधारण बालक नहीं । 


एक दिन एक ज्योतिषीने आपके विषय में आपके माता - पितासे बताया कि ये एक अलौकिक विभूति हैं , परंतु ध्यान रखियेगा कि अठारह सालतक ये दर्पण अथवा जलमें अपना मुख न देख सकें , अन्यथा ये विरक्त हो जायेंगे । ज्योतिषीकी चेतावनी सुनकर माता - पिता इस विषय में विशेष सावधान रहते थे । संयोगसे एक दिन श्रीत्रिपुरारिजी शिप्रानदीमें स्नान करने गये थे , इधर रंगराज दीक्षित नामक पण्डितका एक दूत आकर आपसे वार्षिक कर माँगने लगा जब आपने पूछा कि यह किस बातका कर है , तो उसने बताया कि आपके पितामह पण्डित श्रीरंगराजजीसे शास्त्रार्थमें पराजित हो गये थे , तबसे वे उन्हें वार्षिक कर देते रहे , यह परम्परा अभी भी चल रही है । इसपर आपने कहा कि श्रीरंगराजजीसे कहियेगा कि मैं आजके चौथे दिन आपसे शास्त्रार्थ करने आऊँगा । निश्चित समयपर आप रंगराजजीके यहाँ शास्त्रार्थके लिये गये और उन्हें पराजित करके वार्षिक कर देनेवाले सभी पण्डितोंका संकट दूर किया जब श्रीत्रिपुरारिजीने इस शुभ समाचारको सुना तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और इस उपलक्ष्य में उन्होंने बड़ा भारी उत्सव आयोजित किया । संयोगकी बात उसी दिन चन्द्रहरिकी दृष्टि जब जलमें पड़ी तो उन्हें उसमें अपने मुखका प्रतिबिम्ब दिखायी दे गया । फिर तो ये जगत्से उदासीन हो गये और रात्रिमें घर छोड़कर चल दिये । पिताने बहुत आग्रह किया , समझाया बुझाया पर ये घर वापस नहीं आये । 

अन्तमें त्रिपुरारिजीने श्रीपंचोलीजी नामक एक परम विश्वासी व्यक्तिको इनके साथ कर दिया । एक रात स्वप्नमें आपको काशी जानेका दिव्यादेश प्राप्त हुआ । स्वप्नकी बात जब आपने श्रीपंचोलीजीसे बतायी तो उन्होंने श्रीरामानन्दजीकी चर्चा की । श्रीआचार्यचरणकी चर्चा सुनते ही आपका मन श्रीस्वामीजीके दर्शनके लिये आकुल - व्याकुल हो उठा और आप श्रीकाशीजीके लिये चल दिये । मार्गमें ही आपको श्रीरामभारती नामक एक संन्यासी मिले , इन्होंने आपको अधिकारी समझकर अष्टांग योगका ज्ञान दिया । अल्पकालमें ही आपने समस्त यौगिक क्रियाएँ सिद्ध कर लीं । 

कुछ दिनों बाद आप श्रीरामभारतीजीके साथ स्वामी रामानन्दाचार्यजीके आश्रमपर गये और श्रीस्वामीजीकी शरण ली । श्रीस्वामीजीने आपका विधिपूर्वक पंच संस्कार करके श्रीराम मन्त्रकी दीक्षा दी और चन्द्रहरिके स्थानपर ' सुखानन्द ' नाम रख दिया । आप कुछ कालतक काशीमें ही रहकर श्रीआचार्यचरणकी सेवा करते रहे फिर उनके आदेशसे चित्रकूटमें रामशय्या नामक स्थानपर रहकर भजन साधन करने लगे । 

श्रीसुखानन्दजी महाराज एक सिद्ध सन्त थे , उनके चमत्कारोंकी अनेक कहानियाँ प्रसिद्ध हैं ; परंतु उनके चमत्कार अपनी प्रसिद्धि के लिये नहीं , अपितु दूसरोंका कल्याण करनेके लिये हुआ करते थे । कहते हैं कि एक बार एक पापी दुराचारी व्यक्तिके सिरपर आपने हाथ रख दिया था , जिससे उसके अन्तःकरणकी मलिनता समाप्त हो गयी और वह भक्त हो गया ।

 एक बारकी बात है , आप एकान्त वनमें बैठकर भगवान्‌का ध्यान कर रहे थे , ध्यानमें आनन्दविभोर होकर आप गौरी रागमें एक भजन गाने लगे । आपकी अमृतमयी मधुर स्वरलहरी वन प्रान्तको गुंजित करने लगी , जिसे सुनकर वनके समस्त मृग मुग्ध हो गये और आपके पास आकर खड़े हो गये । उसी समय एक राजकुमार शिकार खेलता हुआ वहाँ आ निकला और मृगोंको मारनेका उपक्रम करने लगा । आपने उसे रोका पर राजमदमें उसने परवाह न की ; परिणामस्वरूप सभी मृग सिंह बनकर उस राजकुमारपर झपट पड़े । डरके मारे राजकुमारके हाथसे अस्त्र - शस्त्र छूटकर गिर पड़े और वह स्वयं भी मूर्च्छित हो गया , पुनः चैतन्य होनेपर उसने आपके चरणों में पड़कर क्षमा याचना की और हिंसाप्रधान स्वभाव छोड़कर भक्त बन गया ।


 श्रीसुखानन्दजी महाराज भगवद्भक्तिका प्रचार - प्रसार करनेके लिये सन्त - मण्डली लेकर देश - देशान्तरमें प्रायः भ्रमण करते रहते थे । भ्रमण करते हुए एक बार आप एक गाँवमें पहुँचे और एक विशाल वट वृक्षके नीचे ठहर गये । आपका नियम था कि आप किसीसे कुछ याचना नहीं करते थे , भगवत्कृपासे सब व्यवस्था हो जाया करती थी , परंतु उस दिन भोजनका समय हो जानेपर भी गाँववालोंकी ओरसे कुछ भी सीधा सामान नहीं आया । सन्तोंको भूखा जानकर आपने श्रीभगवान्का ध्यान किया और भगवन्नाम संकीर्तन शुरू किया । आपके संग - संग सन्त - समाज भी आनन्दविभोर होकर कीर्तन करने लगा । कीर्तनकी यह ध्वनि जब गाँववालोंके कानमें पड़ी तो वे भी मन्त्र - मुग्ध हो गये और बरबस खिंचे चले आये । बहुत देरतक श्रीहरि कीर्तन होता रहा , गाँववाले भी आनन्दमग्न थे , उन्हें ऐसे अनिर्वचनीय सुखकी कभी अनुभूति नहीं हुई थी । थोड़ी देर बाद जब उन्हें इस बातका ज्ञान हुआ कि सन्तोंने अभी प्रसाद नहीं पाया है , तो सभी बहुत लज्जित हुए और बात की बातमें खाद्य सामग्रीका पहाड़ - सा ढेर लग गया । पूरा गाँव भगवद्भक्तिके रंगमें रँग गया । ऐसा था आपका विराट् व्यक्तित्व और अद्भुत चरित कहते हैं कि जब आपके भगवद्धाम जानेका समय हुआ तो स्वयं श्रीहनुमान्जी प्रकट हुए और आप उन्हींमें लीन हो गये । 

     श्री सुरसुरानंद जी महाराज

                                    के पावन चरित्र 


 एक समै पथ चलत बाक्य छल बरा सुपाए । देखा देखी सिष्य तिनहुँ पाछै ते खाए ॥ 

तिन पर स्वामी खिजे बमन करि बिन बिस्वासी । तिन तैसे परतच्छ भूमि पर कीनी रासी ॥ 

सुरसुरी सुवर पुनि उदगले पुहुप रेनु तुलसी हरी । महिमा महाप्रसाद की सुरसुरानंद साँची करी ॥ 

श्रीसुरसुरानन्दजीने भगवान्के महाप्रसादकी शास्त्रोक्त महिमाको सत्य करके दिखा दिया । एक बार मार्गमें चलते समय एक दुष्टके वाक्छलसे दही - बड़ा पा लिया । आपकी देखा - देखी शिष्योंने भी बादमें खूब पेटभर पाया । तब उन लोगोंपर श्रीस्वामी सुरसुरानन्दजी नाराज होकर बोले कि तुमलोगोंने प्रसादमें बिना विश्वासके ही स्वादबुद्धिसे दही - बड़ा खाया , अतः वमन करो । उन लोगोंने वमन करके जैसा - का - तैसा पृथ्वीपर प्रत्यक्ष बड़ोंका ढेर लगा दिया । इसके बाद परमसाधु श्रीसुरसुरीजीके पतिने वमन किया तो उनके उदरसे हरी तुलसी , फूल और रेणु निकली । प्रसादबुद्धिसे पानेसे उड़दका बड़ा ' पुहुप रेनु तुलसी हरी ' हो गया था ॥ 

 श्रीसुरसुरानन्दजीसे सम्बन्धित विशेष विवरण इस प्रकार है श्रीसुरसुरानन्दजी श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराजके शिष्य थे । आपका बचपनका नाम भायण कुमार था । आपका जन्म वैशाख कृष्ण नवमी , गुरुवारको लखनऊके समीप परखम नामक ग्राममें हुआ था । आपके पिताका नाम पण्डित सुरेश्वरजी शर्मा और माताका नाम श्रीमती देवीजी था । बचपनसे ही आपमें भक्तिके संस्कार विद्यमान थे । उपनयन संस्कारके समय जब इनको गायत्री मन्त्रकी दीक्षा दी गयी , तो उनके मनमें इसके प्रति अद्भुत आकर्षण जग गया और उन्होंने उसी समय गायत्री पुरश्चरणका संकल्प ले लिया । माता भगवतीकी कृपासे आपका पुरश्चरण निर्विघ्न पूर्ण हो गया और उससे आपके हृदयमें ऐसा वैराग्यभाव जाग्रत् हुआ कि आपने घर छोड़कर काशीके लिये प्रस्थान कर दिया । 

' श्रीरामानन्दाचार्यचरितामृत ' में श्रीसुरसुरानन्दजीको देवर्षि नारदका अवतार कहा गया है । कहते हैं कि आपके सभी शुभ संस्कारोंके अवसरपर एक नारायण नामके ब्राह्मण आया करते थे , जो अपने आपको इनका मामा बताया करते थे । वे उत्सवमें सम्मिलित होनेके बाद कहाँसे आते और कहाँ जाते थे - यह किसीको ज्ञात नहीं होता था । काशी प्रस्थानके समय भी उन्होंने ही आपको श्रीरामानन्दाचार्यजीकी शरण में जानेकी प्रेरणा दी थी ।

 काशी पहुँचकर आपने स्वामी श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराजसे दीक्षाहेतु निवेदन किया और साथ ही अपने नारायण नामधारी तथा कथित मामाके विषयमें भी जानकारी चाही । श्रीस्वामीजीने कहा कि धैर्य रखो , समय आनेपर स्वयं ही सब रहस्योद्घाटन हो जायगा । 

दूसरे दिन सत्संगके समय श्रीरामानन्दाचार्यजीने शंखध्वनि की , उस दिव्य ध्वनिके श्रवणरन्ध्रॉमें प्रवेश करते ही आप मूच्छित हो गये । उसी अवस्थामें आपको अव्यक्त वाणी सुनायी दी कि नारदरूपमें मायाके वशीभूत होकर तुम विवाह करना चाहते थे , परंतु मैंने तुम्हें विवाह नहीं करने दिया , जिससे क्षुभित होकर तुमने मुझे शाप दे दिया , जिसे चरितार्थ करनेके लिये मैंने श्रीरामावतार धारण किया । यद्यपि मेरे समझानेसे तुम्हारी विवाहकी इच्छा समाप्त हो गयी , पर संस्काररूपमें वह तुम्हारे मनमें बनी रही ; अतः इस जन्ममें तुम्हारी यह इच्छा पूरी की जायगी ।

 अब आपको अपने स्वरूपका बोध हो चुका था , साथ ही नारायणकी कृपा एवं नारायण नामधारी अपने मामाके रहस्यका भी उद्घाटन हो चुका था । आपके गाँवमें ही सुरसरी नामकी मातृपितृहीना ब्राह्मण बालिका रहती थी । उसने मनसा अपने आपको आपके ही चरणोंमें समर्पित कर रखा था । जब उसे आपके काशीगमनका समाचार मिला तो वह भी काशी आ गयी और उसने भी श्रीस्वामीजीके चरणोंमें प्रणिपात करके परमार्थकी भिक्षा माँगी । श्रीस्वामीजीने उसे ' सौभाग्यवती भव ' का आशीर्वाद दिया । फिर आप दोनोंको दीक्षा दी तथा पूर्वस्वरूपका बोध कराया । तत्पश्चात् श्रीस्वामीजीने आप दोनोंको परिणय - सूत्रमें निवद्ध कराया और भजन करनेका आदेश दिया । आप दोनों श्रीआचार्यचरणकी आज्ञा और आशीर्वाद ले अपने गाँव चले आये और वैदिक विधिसे विवाहकर भगवदाराधन और भक्तिभावमें प्रवृत्त हो गये । सुरसरीजी परम सती पतिव्रता नारी थीं । पतिके भावको समझकर उन्होंने भी वैराग्यपूर्वक सांसारिकताको त्याग दिया और दोनों पति - पत्नीने भी गृहत्यागकर वनको प्रस्थान किया । कुछ ही दिनों बाद श्रीसुरसुरीजीका महाप्रयाण हो गया और श्रीसुरसुरानन्दजी पुनः आचार्यचरणोंकी सेवामें काशी आ गये ।। 

जिस समय आप आचार्य - चरणोंकी सेवा करते हुए काशीवास कर रहे थे , उस समय दक्षिण भारत में अलाउद्दीन खिलजीका सेनापति मलिक काफूर हिन्दुओंपर कहर बरपा रहा था । श्रीस्वामीजीकी आज्ञासे हिन्दू तीर्थोकी रक्षाके लिये आपने दक्षिण भारतकी यात्रा की और अपने सिद्धिबलसे मलिक काफूरको स्वप्नमें पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहबसे उपदेश दिलाया कि हिन्दू और मुसलमान दोनोंका खुदा एक ही है , अतः तुम उपद्रव बन्द करो और श्रीसुरसुरानन्दजी जो कहें , वही करो । अब मलिक काफूरकी नींद काफूर हो चुकी थी , वह नंगे पैर दौड़ता श्रीसुरसुरानन्दजीके पास गया और उनके चरणों में पड़कर अपने अपराधके लिये क्षमा माँगने लगा । आपने उसे क्षमाकर उपदेश दिया , जिससे वह बहुत ही प्रभावित हुआ और सारे अत्याचार बन्द कर दिये । इस प्रकार आपने दक्षिण भारतमें अमन - चैनकी स्थापना की ।

 जीवनके अन्तिम कालमें आप श्रीअयोध्याजी चले आये और यहीं श्रीसरयूपुलिनपर श्रीराम , लक्ष्मण , भरत और शत्रुघ्नका दर्शन करते हुए दिव्य धाम साकेतको प्रस्थान कर गये । 

श्रीसुरसुरीजी 

अति उदार दंपती त्यागि गृह बन को गवने । अचरज भयो तहँ एक संत सुन जिन हो बिमने। ।

 बैठे हुते एकांत आय असुरनि दुख दीयो । सुमिरे सारँगपानि रूप नरहरि को कीयो ॥ 

 सुरसुरानंद की घरनि को सत राख्यो नरसिंह जह्यो । महासती सत ऊपमा ( त्यों ) सत्त सुरसुरी को रह्यो ॥

महासतियों [ जैसे श्रीअरुन्धतीजी , श्रीअनसूयाजी , श्रीलोपामुद्राजी , श्रीपार्वतीजी , श्रीसीताजी , श्रीसावित्रीजी आदि ] -के सतीत्वके सदृश ही श्रीसुरसुरीजीका पातिव्रत्य भी प्रभुकृपासे अक्षुण्ण रहा । अत्यन्त उदार दम्पती श्रीसुरसुरानन्दजी एवं श्रीसुरसुरीजी वैराग्यपूर्वक गृहत्याग करके भगवद्भजनके लिये वनको प्रस्थान किये । वहाँ दुष्ट म्लेच्छोंने वनमें एक दिन ये दोनों एकान्तमें बैठे हुए भगवान्‌का भजन कर रहे थे , उसी समय श्रीसुरसुरीजीका अपहरण करनेके लिये अनेक प्रकारका उपद्रव किया । उस समय दम्पतीने श्रीशार्ङ्गपाणि भगवान् श्रीरामजीका स्मरण किया । भक्तके स्मरण करते ही श्रीरामजीने श्रीनृसिंहरूप धारणकर असुरोंको मार डाला और श्रीसुरसुरानन्दजीकी पत्नी श्रीसुरसुरीजीका पातिव्रत्य बचा लिया ॥

       श्रीसुरसुरीजीसे सम्बन्धित विशेष विवरण इस प्रकार है श्रीसुरसुरीजी स्वामी श्रीरामानन्दाचार्यजीकी शिष्या और श्रीसुरसुरानन्दजीकी धर्मपत्नी थीं । ये परम भक्तिमती एवं सती नारी थीं । पतिके चरणोंमें इनका दृढ़ प्रेम था । पतिके बिना एक क्षण भी जीवन धारण करना इनके लिये असम्भव था । 

एक बारकी बात है । अपने पतिके साथ ये वनमें तप कर रही थीं कि एक म्लेच्छकी दृष्टि इनपर पड़ गयी । वह इनके अनुपम सौन्दर्यको देखकर कामोन्मत्त हो उठा तथा रात - दिन इस अवसरकी ताकमें रहने लगा कि इनके पति कहीं चले जायें । 

एक दिन सुरसुरीके पति समिधा और पुष्प लेनेके लिये वनमें थोड़ी दूर निकल गये । म्लेच्छने अपने लिये सुअवसर देखा । वह दुष्ट प्रलाप करता हुआ सुरसुरीके पास चला आया ।

 म्लेच्छको दूरसे ही देखकर सुरसुरीजी घबरा गयीं । उस समय उनकी बड़ी विचित्र दशा थी । उनका हृदय काँप रहा था और आँखोंसे आँसू बह रहे थे । अपने सतीत्वकी रक्षाके लिये वह दयानिधान भगवान्से मन - ही - मन कातर प्रार्थना करने लगीं । 

म्लेच्छ निर्भीक होकर सुरसुरीके पास चला आया ; पर सुरसुरीको देखते ही वह उलटकर सिरपर पाँव रखकर जोरसे भागा , पीछे मुड़कर भी नहीं देखा उसने सुरसुरीके स्थानपर उसकी आँखोंने बैठी हुई सिंहिनीको देखा था । उसे अपने ही प्राणोंके लाले पड़े थे । 

जिन्हें अपने धर्ममें पूरी निष्ठा तथा दृढ़ विश्वास है , समयपर भगवान् उनकी रक्षा करते ही हैं और भगवान्ने उनकी रक्षा की । ऐसी पतिव्रता और भगवद्भक्ता थीं सुरसुरीजी ! 


हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL Mishra 

Sanatan vedic dharma karma 

Bhupalmishra35620@gmail.com 

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