Sakshi gopal ji श्री साक्षी गोपालजी के लीला

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 श्रीसाक्षीगोपालजीके भक्त

बहुत से लोग धर्म को ढोंग मानते है। यह सब कुछ नही है ।बहुत तो हिंदु धर्म को निराधार मानकर अन्य वैकल्पिक पंथो पर चलकर खूश हो जाते है । वे धर्म को समझना नही चाहते है । उनके लिए हिंदु धर्म कठीन लगता है । इस लिए वे सरल आसान धर्म की तलाश करते है । और भटक जाते है ।आसान धर्म का अर्थ यह है कि मनमाने खान-पान रहन सहन 


 बहुत पहलेकी बात है , गौड़ देशमें दो ब्राह्मण निवास करते थे । इन दोनोंमें एक कुल और आयु दोनों मे बड़ा था और दूसरा नयी अवस्थावाला साधारण कुलका था । दोनों तीर्थयात्रा करनेके लिये घरसे चले । अनेक तीर्थोंका दर्शन करते हुए दोनों वृन्दावनधाममें आये । दैवयोगसे बूढ़ा ब्राह्मण बीमार हो गया । तब उस युवकने बड़े प्रेमसे खूब सेवा की । स्वस्थ हो जानेपर उसने अति प्रसन्न होकर वृद्ध ब्राह्मण श्रीगोपालजीको साक्षी बनाकर उसे अपनी कन्या देनेकी प्रतिज्ञा की , तब उस युवकने भी स्वीकार कर लिया । दोनों वृन्दावनसे चले और घूमते - घामते घरको पहुँचे । तब उस युवकने वृद्धसे कहा कि अब आप अपनी प्रतिज्ञाका पालन कीजिये और अपनी लड़कीका विवाह मेरे साथ कर दीजिये । वृद्धने अपनी स्त्री तथा कुटुम्बवालोंसे पूछा , उनकी सम्मति न पाकर अपनी प्रतिज्ञासे टल गया ।


 युवकने पंचायत जोड़ी । पंचोंने पूछा कि कोई स्त्री या पुरुष तुम्हारा गवाह है ? उसने कहा — इन्होंने श्रीगोपालजीको साक्षी बनाया था , अतः वे ही साक्षी हैं । तब सब पंच बोले इस सभामें आज लिखा पढ़ी करवा लो । यदि श्रीगोपालजी आकर साक्षी देंगे तो तुम्हारे साथ बेटीका विवाह कर दिया जायगा । तब वह युवक वृन्दावन आया और वृन्दावनवासी श्रीगोपालजीसे बोला - आप मेरे साथ गाँवको चलिये और साक्षी दीजिये , ऐसी लिखा - पढ़ी मैंने करवा ली है । उत्तरकी प्रतीक्षामें वह गोपालजीके सामने बैठा रहा , बैठे - बैठे कई पहर बीत गये । उसने अन्न - जल कुछ भी ग्रहण नहीं किया । तब भगवान् श्यामसुन्दर बोले – ‘ प्रतिमा चलती नहीं है । ' तब उसने कहा- फिर बोलती क्यों है ? यदि भावमें भरकर बोल सकती है तो चल भी सकती है । भावपूर्ण उत्तर सुनकर श्रीगोपालजी साथ चलनेको तैयार हो गये और बोले- मैं तुम्हारे साथ चलूँगा , पर नित्य दो सेर उत्तम भोग मुझे अर्पण किया करना , हम दोनों उसमेंसे आधा - आधा खा लिया करेंगे । दूसरी प्रतिज्ञा यह है कि मैं तुम्हारे पीछे - पीछे अपने पैरोंके नूपुरोंको बजाता चलूँगा । उनकी ध्वनि तुम्हारे कानों में पड़ती रहेगी , पीछे घूमकर मत देखना । जहाँ घूमकर मुझे देखोगे बस , मैं वहीं रह जाऊँगा ।


 अब आगे - आगे भक्त पीछे - पीछे भगवान् वृन्दावनसे चले , जैसे ही गाँवके निकट पहुँचे , वैसे उस भक्तके मनमें आया कि जरा चलते हुए ठाकुरकी शोभा देख लूँ । घूमकर देखते ही श्रीगोपालजी खड़े हो गये और मन्द - मन्द मुसकराने लगे । भक्तने कहा- क्यों थक गये क्या ? अब तो बस थोड़ी दूर चलना है । भगवान्ने कहा- मैंने तो पहले ही कह दिया था , अब मैं यहाँसे आगे न जाऊँगा । पंचोंको यहाँ ही बुलाकर ले आओ । वह युवक विप्र गाँवमें आया और सबसे बोला कि चलकर देखो , स्वयं श्रीगोपालजी साक्षी देने पधारे हैं । यह सुनते ही सब लोग आश्चर्यचकित रह गये । गाँवके सभी लोग दौड़कर आये । पंचोंके सामने श्रीगोपालजीने श्रीमुखसे बोलकर साक्षी दी । इस प्रकार दोनों भक्तोंकी तथा अन्योंकी अभिलाषाएँ पूर्ण हो गयीं । फिर वह श्रीगोपालजीका श्रीविग्रह लौटकर वृन्दावन नहीं आया । राजाने श्रीगोपालजीके लिये प्रेमसे भोगरागका प्रबन्ध किया । अबतक वहीं ( खुर्दहा ) उड़ीसामें साक्षीगोपाल विराज रहे हैं ।


 अपने भक्तकी साक्षी देनेके लिये भगवान्‌के वृन्दावनसे उड़ीसा आनेकी इस घटनाका श्रीप्रियादासजी महाराज अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं -

गौड़ देश वासी उभै विप्र ताकी कथा सुनौ एक वैस वृद्ध जाति वृद्ध छोटो संग है । और और ठौर फिरि आये फिरि आये बन तन भयो दुखी कीनी टहल अभंग है । रीझो बड़ो द्विज निज सुता तोकों दई अहो रहो नहीं चाह मेरे लई बिनै रंग है । साखी दै गोपाल अब बात प्रतिपाल करौ टरौ कुल ग्राम भाम पूछ्यो सो प्रसंग है ॥ बोल्यौ छोटो विप्र छिप्र दीजियै कही जो बात तिया सुत कहैं अहो सुता याके जोग है । द्विज कहै ' नाहीं कैसे करौँ ? मैं तो दैन कही कही कहौ भूलि भयो विथाको प्रयोग है । भई सभा भारी पूछ्यो साखी नर नारी श्रीगोपाल बनवारी और कौन तुच्छ लोग है । लेवोजू लिखाइ जोपै साखी भरें आई तो पै व्याहि बेटी दीजै लीजै करौ सुख भोग है ॥ आयौ वृन्दावन वनवासी श्रीगोपालजू सों बोल्यौं चलौ साखी देवो लई है लिखायकै । बीते कैयो याम तब बोले श्यामसुन्दरजू ' प्रतिमा न चलै ' तो पै बोलै क्यों जू भायकै ॥ लागे जब संग युग सेर भोग धरौ रंग आधे आध पाव चलौं नूपुर बजायकै । धुनि तेरे कान पर पाछें जिनि दीठि करै करै रहौं वाही ठौर कही मैं सुनायकै ॥ गये ढिग गाँव कही नेकु तौ चिताँव रहे चितए ते ठाढ़े दियो मृदु मुसकायकै । ल्यावौ जू बुलाय कह्यो आय देखौ आये आप सुनतहिं चौंकि सब ग्राम आयो धायकै ॥ बोलि कै सुनाई साथ पूजी हिये अभिलाष लाख लाख भाँति रंग भरयो उर भायकै । आयो न सरूप फेरि विनै करि राख्यो घेरि भूप सुख ढेरि दियो अब लौं बजायकै ॥

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL MISHRA 

Sanatan vedic dharma 

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