Srimad Balabhacharya ji Maharaj, बल्लभाचार्यजी

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श्रीवल्लभाचार्यजी महाराज 

के पावन चरित कथा 



 लगभग पाँच सौ साल पहलेकी बात है , संवत् १५३५ वि ० में दक्षिण भारतसे एक तैलंग ब्राह्मण लक्ष्मणभट्ट तीर्थयात्रा के लिये उत्तर भारतका भ्रमण कर रहे थे । वैशाख मास था , वे उस समय अपनी पत्नी इल्लम्मागारुके सहित काशीमें थे । अचानक सुना गया कि काशीपर यवनोंका आक्रमण होनेवाला है ; अतः वे दक्षिणकी ओर चल पड़े । रास्ते में चम्पारण्य नामक वनमें इल्लम्माने पुत्र रत्नको जन्म दिया । वैशाख कृष्ण एकादशी थी , माताने महानदीके निर्जन तटपर नवजात बालकको छोड़ दिया । पर माताकी ममताने करवट ली । लक्ष्मण और इल्लम्मा बालकको लेकर काशी लौट आये , हनुमानघाटपर रहने लगे । बालक अद्भुत प्रतिभा और सौन्दर्य से सम्पन्न होनेके कारण सबका प्रियपात्र था । बाल्यावस्था में लोगोंने उसे ' बालसरस्वती वाक्पति ' कहना आरम्भ किया । विष्णुचित , तिरुम्मल और माधव यतीन्द्रकी शिक्षासे बाल्यावस्था में ही वल्लभ समस्त वैष्णव - शास्त्रों में पारंगत हो गये , उनमें भगवद्भक्तिका उदय होने लगा ; तुलसीमाला , एकादशी , विष्णुव्रत और भगवदाराधनमें उनका समय बीतने लगा ; तेरह सालकी ही अवस्थामें वे वेद , वेदांग , पुराण , धर्मशास्त्र आदिमें पूर्ण निष्णात हो गये । 

धीरे - धीरे उनकी कीर्ति फैलने लगी , लोग उनकी भगवद्भक्तिकी सराहना करने लगे । श्रीवल्लभाचार्यके चरित्र - विकासपर विष्णुस्वामी सम्प्रदायके भक्ति - सिद्धान्तोंका अधिक मात्रामें प्रभाव पड़ा था । उन्होंने विजयनगरकी राजसभामें शंकरके दार्शनिक सिद्धान्तों , वेदान्त और मायावादका खण्डन करके भगवान्की शुद्ध भक्तिकी मर्यादा स्थापित की । राजाने उनका कनकाभिषेक किया , वे जगद्गुरु महाप्रभु श्रीमदाचार्यकी उपाधिसे सम्मानित किये गये । कनकाभिषेकके बाद उन्होंने उत्तर भारतमें भागवतधर्मके प्रचारके लिये यात्रा की । अढाईस सालकी अवस्थामें उन्होंने विधिपूर्वक विवाह कर लिया । उनकी पत्नी साध्वी महालक्ष्मीने उनके जीवनको सुखमय और भगवदीय बनानेकी प्रत्येक चेष्टा की । उनका गृहस्थ जीवन बहुत आनन्दप्रद रहा । उस समय वे प्रयागके सन्निकट यमुनाके दूसरे तटपर अड़ैलमें रहा करते थे । वे आचार्यत्व पद ग्रहण कर चुके थे । दक्षिणापथ और उत्तरापथ दोनों एक स्वरसे उनके पाण्डित्य , भक्ति - सिद्धान्त और आचार्यत्वके सामने नत हो चुके थे । अड़ैल निवासकालमें ही महाप्रभु वल्लभने परमानन्ददासको ब्रह्मसम्बन्ध दिया था ।


 आचार्यने पुष्टिमार्गकी संस्थापना की । उन्होंने श्रीमद्भागवतमें वर्णित भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाओंमें पूर्ण और अखण्ड आस्था प्रकट की । उनकी प्रेरणासे स्थान - स्थानपर श्रीमद्भागवतका पारायण होने लगा । वे स्वयं भागवतसप्ताह श्रवणमें बड़ी अभिरुचि रखते थे । उन्होंने अपने महाभागवत होनेकी सार्थकता चरितार्थ कर दी ।

 सारे भागवत - धर्मावलम्बियोंके वे आश्रय हो गये । अपने समकालीन श्रीचैतन्य महाप्रभुसे भी उनकी जगदीश्वर यात्राके समय भेंट हुई थी । दोनोंने एक - दूसरेके साक्षात्कारसे अपनी ऐतिहासिक महत्ताकी एक - दूसरेपर छाप लगा दी । उन्होंने ब्रह्मसूत्र , श्रीमद्भागवत और श्रीगीताको अपने पुष्टिमार्गका प्रधान साहित्य घोषित किया । प्रेमलक्षणा भक्तिपर विशेष जोर दिया । पुष्टि भगवदनुग्रह या कृपाका प्रतीक है । उन्होंने वात्सल्यरससे ओतप्रोत भक्ति - पद्धतिकी सीख दी । भगवान् के यश - लीला - गानको वे अपने पुष्टिमार्गका श्रेय मानते थे ।


 श्रीप्रियादासजी महाराज इस पुष्टिमार्गका वर्णन अपने एक कवित्तमें इस प्रकार करते हैं -

हिये -में स्वरूप सेवा करि अनुराग भरे ढरे और जीवनि की जीवनि को दीजिये । सोई लै प्रकास घर - घर में विलास कियो अति ही हुलास फल नैननि को लीजिये ॥ चातुरी अवधि नेकु आतुरी न होत किहूँ चहूँ दिसि नाना राग भोग सुख कीजिये । बल्लभजू नाम लियो पृथु अभिराम रीति गोकुल में धाम जानि सुन मन रीझिये ॥ 


 यद्यपि श्रीमद्वल्लभाचार्यजी महाराज भगवान् श्रीकृष्णके बालरूपके आराधक थे , पर उनके लिये भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीराममें कोई भेद नहीं था । कहते हैं कि एक बार आप श्रीगिरिश्रेष्ठ चित्रकूटपर गये और वहाँ आपने श्रीमद्वाल्मीकीय रामायणका पारायण किया । भगवान् श्रीरामने साक्षात् प्रकट होकर आपके द्वारा अर्पित केलेका भोग आरोगा । आप अपनी बैठकोंमें भी भागवत और गीताके साथ - साथ वाल्मीकीय रामायणका सदुपदेश दिया करते थे । 


श्रीवल्लभके जीवनका अधिकांश व्रजमें बीता , वे अड़ैलसे व्रज आये । अड़ैलसे व्रज आते समय उन्होंने गऊघाटपर महाकवि सूरदासको दीक्षित किया , दो या तीन दिनों बाद उसी यात्रामें विश्रामघाटपर कृष्णदास अधिकारीको पुष्टिमार्गमें सम्मिलितकर ब्रह्म सम्बन्ध दिया । कुम्भनदास भी उनके शिष्य हुए । गोवर्धनमें एक मन्दिर बनवाकर उसमें श्रीनाथजीकी मूर्ति प्रतिष्ठित की । उनके चौरासी शिष्योंमें प्रमुख सूर , कुम्भन , कृष्णदास और परमानन्द श्रीनाथजीकी विधिवत् सेवा और कीर्तन आदि करने लगे । उन्होंने वैष्णवोंको गुरुतत्त्व सुनाया , लीला भेद बताया । सूरने उनकी चरण - भक्तिसे साहित्यमें भगवान्की लीलाका सागर उड़ेल दिया , कुम्भनदासने श्रीवल्लभके प्रतापसे प्रमत्त होकर सीकरीमें लोकपति अकबरका मद - मर्दन कर दिया , परमानन्ददासने परमानन्दसागरकी सृष्टि की , श्रीकृष्णदासने कहा- ' कृष्णदास गिरिधरके द्वारे श्रीवल्लभ - पद - रज - बल गरजत । ' चारों महाकवि उनकी भक्ति - कल्पलताके अमर फल थे ।


 एक बार एक सीधे - साधे सन्त दर्शन करनेके लिये गोकुलको गये । वहाँ जाकर गोष्ठमें गायोंके झुण्डका , गोपालका तथा मन्दिरोंमें बालकृष्णकी सेवा - पूजा और उत्सवोंका दर्शन करके प्रेममें मग्न हो गये । फिर उन सन्तने एक छोंकरके पेड़पर अपना ठाकुर - बटुवा लटका दिया और जाकर श्रीवल्लभाचार्यजीके दर्शन किये , जिससे उन्हें बड़ा भारी सुख हुआ । फिर आकर देखा तो ठाकुर - बटुवा नहीं था । तब वे सन्त फिर श्रीवल्लभाचार्यजीके निकट गये और बटुवा न मिलनेकी बात सुनायी । सन्तको चिन्तित एवं उदास देखकर आचार्य ने कहा कि वहीं जाकर देखिये । सन्तने आकर देखा तो छोंकरके पेड़पर अनेकों बटुवे लटके हैं । उनका होश - हवास उड़ गया , फिर आचार्यके पास आकर बोले - प्रभो ! वहाँ तो अनेक बटुवे हैं । इन्होंने कहा- आप अपना बटुवा पहचान लीजिये , आप तो नित्य सेवा - पूजा करते हैं , फिर भी अपने ठाकुरजीको नहीं पहचान सकते हैं । इस घटनासे वे सन्त समझ गये कि यह सब श्रीवल्लभाचार्यजीका ही प्रभाव है , उनकी आँखें खुल गयीं । अपने ठाकुरको पहचाननेकी अभिलाषा करने लगे । उन्होंने आचार्यसे प्रार्थना की कि मुझे यह उपाय बता दीजिये , जिससे मैं अपने सेव्य प्रभुके रूपको प्राप्त कर सकूँ । आचार्यने कहा कि हृदयसे प्रेम करो , भाव - भक्तिपूर्वक सेवा किया करो ; क्योंकि यह प्रेममार्ग अतिविचित्र और सुन्दर है । आप वहीं छोंकरके वृक्षपर जाकर देखो । इस बार आकर उन्होंने देखा तो केवल अपने ही ठाकुरजी दिखायी पड़े , तब तो ये अति आनन्दित हुए । उन्होंने ठाकुरजीको हृदयसे लगा लिया । उनकी आँखों आँसू भर आये आचार्यकी कृपासे उन्होंने भक्तिके स्वरूपको जान लिया ।।

 श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका वर्णन अपने कवित्तोंमें करते हुए कहते हैं-


 गोकुलके देखिये काँ गयौ एक साधु सूधो गोकुल मगन भयो रीति कछु न्यारिये ।। छोकरके वृक्षपर बटुवा झुलाय दियो कियो जाय दरशन सुख भयो भारिये ॥

 देख आइ नाहीं प्रभु फेरि आप पास आयो चिंता सो मलीन देखि कही जा निहारिये । वैसेई सरूप कई गई सुधि बोल्यो आनि लीजिये पिछानि कह्यो सेवा नित धारिये ॥ 

 खुलि गईं आंखें अभिलाख पहिचानि कीजै दीजै जू बताइ मोहि पाऊँ निजरूप है । कही जावो वाही ठौर देखी प्रेम लेखौ हिये लिये भाव सेवा करी मारग अनूप है ॥ देखिकै मगन भयो लयो उर धारि हरि नैन भरि आये जान्यो भक्तिको स्वरूप है । निसि दिन लग्यौ पग्यौ जग्यौ भाग पूरन हो पूरन चमत्कार कृपा अनुरूप है ॥ 

 

एक बार आप श्रीराधाजीके धाम बरसानाके एक गहवर बनमें अपने परिकरोंके साथ गये थे । वहाँ आपने देखा कि एक अजगरको सहस्त्रों चींटें - चीटियां  खा रहे हैं । आपने कृपाकर उस जीवका उद्धार किया । परिकरोंके पूछनेपर आपने बताया कि पूर्वजन्ममें ये एक धनी - मानी सन्त थे और ये चींटी - चीटियाँ इनके शिष्य थे , इन्होंने अपने शिष्योंका धन तो खूब लूटा , परंतु उनका क्या अपना भी उद्धार न कर सके । इसलिये इन्हें इस घृणित योनिमें आना पड़ा ।


 व्रजमें श्रीनाथजीकी कीर्ति - पताका फहराकर वे अपने पूर्व निवासस्थान ' अड़ैल ' में चले आये । श्रीआचार्यके दो पुत्र हुए । पहलेका नाम गोपीनाथ था और दूसरेका नाम श्रीविठ्ठलनाथ था । उनका पारिवारिक जीवन अत्यन्त सुखमय और शान्त था ।

 भक्ति - प्रचारार्थ आपने सम्पूर्ण भारतवर्षकी तीन बार यात्रा की थी । इन यात्राओंकि दौरान आप जहाँ जहाँ ठहरे थे , उन्हें बैठक कहा जाता है , आपकी चौरासी बैठकें प्रसिद्ध हैं । एक बैठक आपकी ताम्रपण नदीके तटपर भी है , कहते हैं कि वहाँ के  राजा अकाल मृत्यु - निवारणार्थ विद्वान् ब्राह्मणों की सलाह से स्वर्ण पुरुषका तुलादान कर रहे थे , परंतु डरके मारे कोई भी ब्राह्मण उस दानको लेनेको प्रस्तुत नहीं हो रहा था । राजाका ब्राह्मणोंके प्रति इस कारण भाव शिथिल हो रहा था । उसी समय श्रीवल्लभाचार्यजी महाराज वहाँ आये और राजाकी प्रार्थनापर एवं ब्राह्मणत्वकी मर्यादा रखनेके लिये उन्होंने दान लेना स्वीकार कर लिया । जब आप उस स्वर्णपुरुषको ग्रहण करनेके लिये आगे बढ़े तो उसने एक अंगुली उठायी । यह देखकर आचार्य चरणने अपनी तीन उँगलियाँ उठायीं । इसपर उस स्वर्णपुरुषने सिर नीचा कर लिया । आचार्य चरणने उसे ग्रहणकर टुकड़े - टुकड़े कराकर सब ब्राह्मणोंमें बँटवा दिया । ब्राह्मणों के  पूछनेपर आपने बताया कि स्वर्णपुरुष एक अंगुली दिखाकर पूछता था कि क्या तुम एक बार भी दिनमें सन्ध्या करते हो , इसपर मैंने तीन उँगलियाँ दिखाकर उसे बताया कि मैं एक नहीं , तीनों सन्ध्या नियमित करता हूँ । इस प्रकार आपने सन्ध्याके महत्त्वका भी प्रतिपादन किया ।


एक बारकी बात है - एक सज्जन शालग्रामशिला एवं प्रतिमा दोनोंकी एक साथ ही पूजा कर रहे थे ; परंतु उनके मनमें भेदभाव था । वे शिलाको अच्छी एवं प्रतिमाको निम्नश्रेणीकी समझते थे । आचार्यने उन्हें समझाया कि ' भगवद् - विग्रहमें इस तरहकी भेदभावना नहीं रखनी चाहिये । ' इसपर वे सज्जन बिगड़ खड़े हुए एवं अकड़कर प्रतिमाकी छातीपर शालग्रामको रखकर रातमें पधरा दिया । प्रातः काल देखनेपर मालूम हुआ कि शालग्रामकी शिला चूर - चूर हो गयी है । तब तो उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ और जाकर उन्होंने आचार्यचरणोंसे क्षमा माँगी । फिर आचार्यने भगवान्‌के चरणामृतसे उस चूर्णको भिगोकर गोली बनानेको कहा । ऐसा करनेपर मूर्ति फिर ज्यों - की - त्यों हो गयी ।

                    

             उनका समग्र जीवन ऐसी चमत्कारपूर्ण घटनाओंसे ओतप्रोत था ; परंतु एक महान् भगवद्भक्तके जीवनमें इन चमत्कारोंका कोई ऊँचा स्थान है ही नहीं । गोकुलमें भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये थे । सबसे ऊँची वस्तु तो उनके जीवनमें थी- भगवान्‌की विशुद्ध और अनन्यभक्ति । 

           

         उन्होंने तन - मन - धन सब कुछ भगवान्‌को समर्पित कर दिया था । एक बार भोगोंके लिये द्रव्यका अभाव देखकर उन्होंने सोनेकी कटोरी गिरवी रखवाकर भगवान्के सामने भोग उपस्थित किया । उन्होंने स्वयं प्रसाद नहीं लिया । दो दिनके बाद द्रव्य आनेपर प्रसाद लिया । वैष्णवोंके पूछनेपर उन्होंने कहा - ' कटोरी ठाकुरजीको पूर्वसमर्पित थी , उनके भागका प्रसाद लेना महापातक है । ' इस घटनासे उनकी कथनी - करनीके साम्यका पता चलता है । आचार्यने घोषणा कर दी थी कि ' मेरे वंशमें , या मेरा कहलाकर , जो कोई भगवद् - द्रव्यका उपयोग करेगा , उसका नाश हो जायगा । ' 


 श्रीवल्लभाचार्य महान् भक्त होनेके साथ ही दर्शनशास्त्रके प्रकाण्ड पण्डित थे । उन्होंने ब्रह्मसूत्रपर बड़ा सुन्दर अणुभाष्य ' लिखा है और श्रीभागवतके दशम स्कन्ध तथा कुछ अन्य स्कन्धोंपर सुबोधिनी टीका लिखी है । श्रीमद्भागवतको वे प्रस्थानचतुष्टयके अन्तर्गत मानते थे । श्रीवल्लभके परमधाम पधारनेके विषयमें एक घटना प्रसिद्ध है । ये अपने जीवनके अन्तिम दिनोंमें अड़ैलसे लौटकर प्रयाग होते हुए काशी आ गये थे । अपने जीवनके कार्य समाप्तकर वे एक दिन हनुमानघाटपर गंगास्नान करने गये । आप मौनव्रत ले चुके थे , अतः पुत्रों और शिष्योंद्वारा उपदेशकी प्रार्थना करने पर गंगाकी रेतीपर साढ़े तीन श्लोक लिखकर उन्हें आश्वस्त किया , फिर गंगाजीमें प्रवेशकर विलीन हो गये । कहते हैं , तभी गंगाजीके प्रवाहसे एक तेजपुंज निकला और अनन्त आकाशमें विलीन हो गया हनुमानघाटपर उनकी एक बैठक बनी हुई है । इस प्रकार वि ० सं ० १५८७ आषाढ़ शुक्ला ३ को ५२ वर्षक अवस्थामें आपने भगवान्के आज्ञानुसार अलौकिक रीतिसे इहलीला संवरण करके गोलोकको प्रयाण किया  । 

हमलोग अमूल्य समय का दुरुपयोग करके मस्त हो जाते  है ।कभी कभार तो ऐसा भी होता है कि अपन जैज्ञा ज्ञानवान  ,रूपवान, धनवान कोई नही है ।लेकिन , इन संतो के चरित्र को पढने से अपने आप को समझने मे दरी नही लगता है । ये संत हाल ही के है ।लगभग चार सौ वर्ष के ।भारतवर्ष के इतिहास ,हिन्दु धर्म के रहस्य, मनुष्य मात्र के लक्ष्य को आसानी से समझाने के लिए ही इन संतो का अवतरण होता रहता है ।

आपको यह कहानी कैसी लगी जरूर लिखें ।

        हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

Bhupalmishra35620@gmail.com 


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