Mangal ji Maharaj श्री विल्वमंगल जी महाराज

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            श्री बिल्वमंगल जी महाराज सूरदास जी

                               के चरितामृत 

पो.सं.100

करुनामृत सुकबित्त जुक्ति अनुछिष्ट उचारी । रसिक जनन जीवन जु हृदय हारावलि धारी ॥ हरि पकरायो हाथ बहुरि तहँ लियो छुटाई । कहा भयो कर छुटैं बदौं जौ हिय तें जाई ॥ चिंतामनि सँग पाय कें ब्रजबधू केलि बरनी अनूप । कृष्ण कृपा कोपर प्रगट बिल्वमँगल मंगलस्वरूप ॥  

भगवान् श्रीकृष्णके परम कृपापात्र श्रीबिल्वमंगलजी इस संसारमें प्रत्यक्ष मंगल - कल्याणके स्वरूप थे । विश्वका मंगल ही बिल्वमंगलके रूपमें प्रकट हुआ । आपने ' श्रीकृष्णकर्णामृत ' नामक सुन्दर काव्यका निर्माण किया , जिसकी उक्तियाँ सर्वथा नयी हैं , दूसरे कवियोंकी जूठी नहीं हैं । प्रेमाभक्तिसे प्रकट सहज एवं दिव्य उद्गार हैं । श्रीकृष्णकर्णामृत रसिकभक्तोंका जीवन प्राण है , उन्होंने इसे कई लड़ियोंके हारके समान अपने हृदयमें धारण किया है । एक बार भगवान् श्यामसुन्दरने ( श्रीबिल्वमंगलजीके अन्धा होनेपर वृन्दावनका ) मार्ग दिखाते हुए अपना हाथ पकड़ाया और फिर उसे छुड़ा लिया । उस समय आपने उनसे कहा- हाथ छुड़ाकर चले जानेसे क्या हुआ , मैं तुम्हें वीर पुरुष तब समझँ , जब मेरे हृदयके बन्धनसे छूटकर चले जाओ । आपने चिन्तामणिका संग पाकर व्रजगोपियोंके साथ हुई श्रीकृष्णकी लीलाओंका अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है । उसके द्वारा सभी भक्तोंका मंगल हुआ , अतः आप मंगलकी मूर्ति ही थे ।

   भक्त बिल्वमंगलजीके विषयमें विशेष विवरण इस प्रकार है -

           भक्त बिल्वमंगलका प्रारम्भिक जीवन

 दक्षिण प्रदेशमें कृष्णवीणा नदीके तटपर एक ग्राममें रामदास नामक एक भगवद्भक्त ब्राह्मण निवास करते थे । उन्हींके पुत्रका नाम था बिल्वमंगल पिताने यथासाध्य पुत्रको धर्मशास्त्रोंकी शिक्षा दी थी । बिल्वमंगल पिताकी शिक्षा तथा उनके भक्तिभावके प्रभावसे बाल्यकालमें ही अति शान्त , शिष्ट और श्रद्धावान् हो गया था । परंतु दैवयोगसे पिता - माताके देहावसान होनेपर जबसे घरकी सम्पत्तिपर उसका अधिकार हुआ , तभीसे उसके कुसंगी मित्र जुटने लगे ।

 संगदोषसे बिल्वमंगलके अन्तःकरणमें अनेक दोषोंने अपना घर कर लिया । एक दिन गाँवमें कहीं चिन्तामणि नामकी वेश्याका नाच था , शौकीनोंके दल - के - दल नाचमें जा रहे थे । बिल्वमंगल भी अपने मित्रोंके साथ वहाँ जा पहुँचा । वेश्याको देखते ही बिल्वमंगलका मन चंचल हो उठा , विवेकशून्य बुद्धिने  सहारा दिया , बिल्वमंगल डूबा और उसने हाड़ - मांसभरे चामके कल्पित रूपपर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया- तन , मन , धन , कुल , मान , मर्यादा और धर्म सबको उत्सर्ग कर दिया । ब्राह्मणकुमारका पूरा पतन हुआ । सोते - जागते , उठते - बैठते और खाते - पीते सब समय बिल्वमंगलके चिन्तनकी वस्तु केवल एक ' चिन्तामणि ' ही रह गयी । 


            बिल्वमंगलके पिताका श्राद्ध है , इसलिये आज वह नदीके उस पार चिन्तामणिके घर नहीं जा सकता । श्राद्धकी तैयारी हो रही है । विद्वान् कुलपुरोहित बिल्वमंगलसे श्राद्धके मन्त्रोंकी आवृत्ति करवा रहे हैं , परंतु उसका मन ' चिन्तामणि ' की चिन्तामें निमग्न है । उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता किसी प्रकार श्राद्ध समाप्तकर जैसे - तैसे ब्राह्मणोंको झटपट भोजन करवाकर बिल्वमंगल चिन्तामणिके घर जानेको तैयार हुआ । सन्ध्या हो चुकी थी , लोगोंने समझाया कि ' भाई । आज तुम्हारे पिताका श्राद्ध है , वेश्याके घर नहीं जाना चाहिये । ' परंतु कौन सुनता था । उसका हृदय तो कभीका धर्म - कर्मसे शून्य हो चुका था । बिल्वमंगल दौड़कर नदीके किनारे पहुँचा । भगवान्की माया अपार है , अकस्मात् प्रबल वेगसे तूफान आया और उसीके साथ मूसलधार वर्षा होने लगी । आकाशमें अन्धकार छा गया , बादलोंकी भयानक गर्जना और बिजलीकी कड़कड़ाहटसे जीवमात्र भयभीत हो गये । रात - दिन नदीमें रहनेवाले केवटोंने भी नावोंको किनारे बाँधकर वृक्षोंका आश्रय लिया , परंतु बिल्वमंगलपर इन सबका कोई असर नहीं पड़ा । उसने केवटोंसे उस पार ले चलनेको कहा , बारम्बार विनती की , उतराईका भी गहरा लालच दिया ; परंतु मृत्युका सामना करनेको कौन तैयार होता । सबने इनकार कर दिया । ज्यों - ज्यों बिलम्ब होता था , त्यों - ही - त्यों बिल्वमंगलकी व्याकुलता बढ़ती जाती थी । अन्तमें वह अधीर हो उठा और कुछ भी आगा - पीछा न सोचकर तैरकर पार जानेके लिये सहसा नदीमें कूद पड़ा । भयानक दुःसाहस का कर्म था , परंतु

 ' कामातुराणां न भयं न लज्जा । ' 


संयोगवश नदीमें एक मुर्दा बहा जा रहा था । बिल्मवमंगल तो बेहोश था , उसने उसे काठ समझा और उसीके सहारे नदीके उस पार चला गया । उसे कपड़ोंकी सुध नहीं थी , बिल्कुल दिगम्बर हो गया था , चारों ओर अन्धकार छाया हुआ था , बनैले पशु भयानक शब्द कर रहे थे , कहीं मनुष्यकी गन्ध भी नहीं आती , परंतु बिल्वमंगल उन्मत्तकी भाँति अपनी धुनमें चला जा रहा था । कुछ ही दूरपर चिन्तामणिका घर था । श्राद्धके कारण आज बिल्वमंगलके आनेकी बात नहीं थी , अतएव चिन्ता घरके सब दरवाजोंको बन्द करके निश्चिन्त होकर सो चुकी थी । बिल्वमंगलने बाहरसे बहुत पुकारा ; परंतु तूफानके कारण अन्दर कुछ भी नहीं सुनायी पड़ा । बिल्वमंगलने इधर - उधर ताकते हुए बिजलीके प्रकाशमें दीवालपर एक रस्सा - सा लटकता देखा , तुरंत उसने उसे पकड़ा और उसीके सहारे दीवाल फाँदकर अन्दर चला गया । चिन्ताको जगाया । वह तो इसे देखते ही स्तम्भित - सी रह गयी । सारा शरीर पानीसे भीगा हुआ , भयानक दुर्गन्ध आ रही है । उसने कहा- ' तुम इस भयावनी रातमें नदी पार करके बन्द घरमें कैसे आये ? ' बिल्वमंगलने काठपर चढ़कर नदी पार होने और रस्सेकी सहायतासे दीवालपर चढ़नेकी कथा सुनायी ! वृष्टि थम चुकी थी । चिन्ता दीपक हाथमें लेकर बाहर आयी , देखती है तो दीवालपर भयानक काला नाग लटक रहा है और नदीके तीर सड़ा मुर्दा पड़ा है । बिल्वमंगलने भी देखा और देखते ही काँप उठा । चिन्ताने भर्त्सना करके कहा- ' तू ब्राह्मण है ? अरे आज तेरे पिताका श्राद्ध था , परंतु एक हाड़ - मांसकी पुतलीपर तू इतना आसक्त हो गया कि अपने सारे धर्म कर्मको तिलांजलि देकर इस डरावनी रातमें मुर्दे और साँपकी सहायतासे यहाँ दौड़ा आया ! तू आज जिसे सुन्दर समझकर इस तरह पागल हो रहा है , उसका भी एक दिन तो वही परिणाम होनेवाला है , जो तेरी आँखों के सामने इस सड़े मुर्दका है । धिक्कार है तेरी इस नीच वृत्तिको अरे यदि तू इसी प्रकार उस श्यामसुन्दरपर आसक्त होता- यदि उससे मिलने के लिये यो छटपटाकर दौड़ता , तो अबतक उसको पाकर तू अवश्य ही कृतार्थ हो चुका होता ।


 ' वेश्याकी वाणीने बड़ा काम किया । बिल्वमंगल चुप होकर सोचने लगा । बाल्यकालकी स्मृति उसके मन में जाग उठी । पिताजी की भक्ति और उनकी धर्म प्राणता के दृश्य उसकी आँखोंके सामने मूर्तिमान् होकर नाचने लगे । बिल्वमंगलकी हृदय तन्त्री नवीन सुरों से बज उठी , विवेक की अग्नि का प्रादुर्भाव हुआ , भगवत् प्रेमका समुद्र उमड़ा और उसकी आँखों से अनुओं की अजस धारा बहने लगी । बिल्वमंगल ने चिन्तामणिके चरण पकड़ लिये और कहा- 

' माता । तूने आज मुझको दिव्यदृष्टि देकर कृतार्थ कर दिया । ' मन - ही - मन चिन्तामणिको गुरु मानकर प्रणाम किया और उसी क्षण जगचिन्तामणि की चारु चिन्तामें निमग्न होकर उन्मत्त की भाँति चिन्तामणि के घरसे निकल पड़ा । बिल्वमंगलके जीवन - नाटक की यवनिकाका परिवर्तन हो गया । 

इस घटनाका वर्णन श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार किया है -

कृष्ण वेना तीर एक द्विज मतिधीर रहै है गयो अधीर संग चिन्तामनि पाइकै । तजी लोकलाज हिये वाहीको जु राज भयौ निशि दिन काज वहै रहे घर जाइकै ॥ पिताको सराध नेकु रह्यौ मन साधि दिन शेषमें आवेश चल्यौ अति अकुलाइकै । नदी चढ़ी रही भारी पैये न अवारी नाव भाव भरयो हियौ जियौ जात न धिजाइकै ॥  करत विचार वारिधार में न रहे प्राण ताते भली धार मित्र सनमुख जाइये । परे कूदि नीर कछु सुधि न शरीर की है वही एक पीर कब दरसन पाइयै ।। पैयत न पार तन हारि भयो बूड़िये कों मृतक निहारि मानी नाव मन भाइयै । लगेई किनारे जाय चले पग धाय चाय आये पट लागे निशि आधी सो विहाइयै ॥  अजगर घूमि झूमि भूमिको परस कियो लियोई सहारो चढ्यो छात पर जायकै । ऊपर किवार लगे परयो कूदि आंगन में गिरयो यों गरत रागी जागी सोर पायकै ॥ दीपक बराइ जो पै देखे विल्वमंगल है बड़ोई अमंगल तूं कियो कहा आय कै । जल अहवाय सूखे पट पहिराय हाय ! कैसें करि आयो जल पार द्वार धाय कै ॥ नौका पठवाई द्वार लाव लटकाई देखि मेरे मन भाई मैं तो तबै लई जानि कै । चलो देखौं अहो , यह कहा धौं प्रलाप करै देख्यो विषधर महा खीजी अपमानि कै ॥ जैसो मन मेरे हाड़ चाम सौं लगायो तैसो स्याम सों लगावो तौ पै जानिये सयानिकै । मैं तो भये भोर भजौं युगल किशोर अब तेरी तुही जानै चाहौ करौ मन मानिकै ॥ 

( ख ) सात्त्विक परिवर्तन 

दोनोंने उस पूरी रात भगवान्‌का भजन किया और प्रातः होते ही चिन्तामणिने हरिद्वारकी और बिल्वमंगलने सन्त श्रीसोमगिरिजी महाराजके आश्रमकी राह ली । वहाँ गुरुदेवसे दीक्षा लेकर एक वर्षतक आश्रम में ही रहकर भजन - पूजन किया , फिर वृन्दावन धामके लिये चल पड़ा । श्यामसुन्दर की प्रेममयी मनोहर मूर्तिका दर्शन करनेके लिये बिल्वमंगल पागलकी तरह जगह - जगह भटकने लगा । कई दिनों के बाद एक दिन अकस्मात् उसे रास्ते में एक परम रूपवती युवती दीख पड़ी , पूर्व संस्कार अभी सर्वथा नहीं मिटे थे । युवतीका सुन्दर रूप देखते ही नेत्र चंचल हो उठे और नेत्रोंके साथ ही मन भी खिंचा । 

बिल्वमंगलको फिर मोह हुआ । भगवान्‌को भूलकर वह पुनः पतंग बनकर विषयाग्निको ओर दौड़ा । बिल्वमंगल युवतीके पीछे - पीछे उसके मकानतक गया । युवती अपने घरके अन्दर चली गयी , बिल्वमंगल उदास होकर घरके दरवाजेपर बैठ गया । घरके मालिकने बाहर आकर देखा कि एक मलिनमुख अतिथि ब्राह्मण बाहर बैठा है । उसने कारण पूछा । बिल्वमंगलने कपट छोड़कर सारी घटना सुना दी और कहा कि ' मैं एक बार फिर उस युवतीको प्राण भरकर देख लेना चाहता हूँ , तुम उसे यहाँ बुलवा दो । ' युवती उसी गृहस्थकी धर्मपत्नी थी , गृहस्थने सोचा कि इसमें हानि ही क्या है , यदि उसके देखनेसे ही इसकी तृप्ति होती हो तो अच्छी बात है । अतिथिवत्सल गृहस्थ अपनी पत्नीको बुलानेके लिये अन्दर गया । इधर बिल्वमंगलके मन - समुद्रमें तरह - तरहकी तरंगोंका तूफान उठने लगा ।

 जो एक बार अनन्यचित्तसे उन अशरण - शरणकी शरणमें चला जाता है , उसके योगक्षेम का सारा भार वे अपने ऊपर उठा लेते हैं । आज बिल्वमंगलको सम्हालनेकी भी चिन्ता उन्हींको पड़ी । दीनवत्सल भगवान्ने अज्ञानान्ध बिल्वमंगलको दिव्यचक्षु प्रदान किये ; उसको अपनी अवस्थाका यथार्थ ज्ञान हुआ , हृदय शोकसे भर गया और न मालूम क्या सोचकर उसने पासके बेलके पेड़से दो काँटे तोड़ लिये । इतनेमें ही गृहस्थकी धर्मपत्नी वहाँ आ पहुँची , बिल्वमंगलने उसे फिर देखा और मन - ही - मन अपनेको धिक्कार देकर कहने लगा कि ' अभागी आँखें ! यदि तुम न होतीं तो आज मेरा इतना पतन क्यों होता ? ' इतना कहकर बिल्वमंगलने उन दोनों काँटोंको दोनों आँखोंमें भोंक लिया ! आँखोंसे रुधिरकी अजस्त्र धारा बहने लगी ! बिल्वमंगल हँसता और नाचता हुआ तुमुल हरिध्वनिसे आकाशको गुँजाने लगा । गृहस्थको और उसकी पत्नीको बड़ा दुःख हुआ , परंतु वे बेचारे निरुपाय थे । बिल्वमंगलका बचा - खुचा चित्त - मल भी आज सारा नष्ट हो गया और अब तो वह उस अनाथके नाथको अतिशीघ्र पानेके लिये बड़ा ही व्याकुल हो उठा । उसके जीवन - नाटकका यह तीसरा पट परिवर्तन हुआ ! 


इस घटनाका वर्णन प्रियादासजीने निम्न कवित्तोंमें किया है-

 खुलि गई आँखें अभिलायें रूप माधुरी कौं चाखें रसरंग औ उमंग अंग न्यारियै । बीन लै बजाई गाई विपिन निकुंज क्रीड़ा भयो सुख पुंज जापै कोटि विषै वारियै ॥ बीति गई राति प्रात चले आप आप कों जू हिये वही जाप दृग नीरि भरि डारियै । सोमगिरि नाम अभिराम गुरु कियो आनि सबै को बखानि लाल भुवन निहारियै ॥ रहे सो बरस रस सागर मगन भये नये नये चोजके श्लोक पढ़ि जीजिये । चले वृन्दावन मन कहै कब देखौं जाय आय मग मांझ एक ठौर मति भीजिये ॥ परयो बड़ो सोर दृगकोर कै न चाहँ काहू तहां सर तिया न्हाति देखि आंखें रीझिये । लगे वाके पाछे कांछे कांछकी न सुधि कछू गई घर आछे रहे द्वार तन छीजिये ॥ आयो वाको पति द्वार देखे भागवत ठाढ़े बड़े भागवत पूछी वधू सों जनाइयें । कही जू पधारौ पाँव धारो गृह पावनकों पांवन पखारौं जल ढारौं सीस भाइयें ॥ चले भौन मांझ मन आरति मिटायबेकौं गायवेकौं जोई रीति सोई कें बताइयें । नारिसे कह्यौ है तू सिंगार करि सेवा कीजै लीजै यौं सुहाग जामें बेगि प्रभु पाइयें ॥ १७१ ।। चली ये सिंगार करि थार मैं प्रसाद लैके ऊँची चित्रसारी जहाँ बैठे अनुरागी हैं । झनक मनक जाइ जोरि कर ठाढ़ी रही गही मति देखि देखि नून वृत्ति भागी हैं । 

 कही युग सुई ल्यायो , ल्याई , दई , सई , हाथ , फोरि बारी आंख अहो बड़ी ये अभागी है । गई पति पास स्वास भरत न बोलि आवे बोली दुख पाय आय पांग परे गगी है । कियो अपराध हम साधु को दुखायौं अहो बड़े तुम साधु हम नाम साधु धरयो है ।रहौ अजू सेवा करो करी तुम सेवा ऐसी जैसी नहीं का मांझ मेरा मन भर चले सुख पाय दुगभूतसे छुटाइ दिये हिये ही की आंखिन सो अबै काम परयो है । बैठे बन मध्य जाइ भूखे जानि आप आइ भोजन कराड़ चली छाया दिन ढारयौ है । 

( ग ) बिल्वमंगलपर भगवान्की कृपा 


                परम प्रियतम श्रीकृष्ण के वियोगकी दारुण व्यथा से उसकी फूटी आँख ने चौबीसों घण्टे आँसुओं को झड़ी लगा दी न भूखका पता है न प्यासका , न सोनेका ज्ञान है और न जगनेका कृष्ण की पुकारसे दिशाओंको गुॅजारता हुआ बिल्वमंगल जंगल - जंगल और गाँव में घुम रहा है । जिस दीनबन्धु के लिये जान - बूझकर आँखें फोड़ीं , जिस प्रियतमको पाने के लिये ऐश आराम पर लात मारी ,वह मिलनेमें इतना विलम्ब करे । यह भला , किसीसे कैसे सहन हो ? पर ' जो सच्चे प्रेमी होते हैं , प्रेमास्पदके विरहमें जीवनभर रोया करते हैं , सहस्रों आपत्तियोंको सहन करते हैं , परंतु उसपर दोषारोपण कदापि नहीं करते ; उनको अपने प्रेमास्पदमें कभी कोई दोष दीखता ही नहीं । " ऐसे प्रेमीके लिये प्रेमास्पदको भी कभी चैन नहीं पड़ता । उसे दौड़कर आना ही पड़ता है । आज अन्ध बिल्वमंगल श्रीकृष्ण प्रेममें मतवाला होकर जहाँ तहाँ भटक रहा है । कहीं गिर पड़ता है , कहीं टकरा जाता है , अन्न - जलका तो कोई ठिकाना ही नहीं । ऐसी दशामें प्रेममय श्रीकृष्ण कैसे निश्चिन्त रह सकते हैं । एक छोटे - से गोप - बालकके वेषमें भगवान् बिल्वमंगलके पास आकर अपनी मुनि मनमोहिनी मधुर वाणी बोले , ' सूरदासजी । आपको बड़ी भूख लगी होगी , मैं कुछ मिठाई लाया हूँ , जल भी लाया हूँ आप इसे ग्रहण कीजिये । ' बिल्वमंगलके प्राण तो बालकके उस मधुर स्वरसे ही मोहे जा चुके थे , उसके हाथका दुर्लभ प्रसाद पाकर तो उसका हृदय हर्ष के हिलोरों से उछल उठा ! बिल्वमंगलने बालकसे पूछा , ' भैया तुम्हारा घर कहाँ है , तुम्हारा नाम क्या है ? तुम क्या किया करते हो ?


 ' बालकने कहा , ' मेरा घर पास ही है , मेरा कोई खास नाम नहीं ; जो मुझे जिस नामसे पुकारता है , मैं उससे बोलता हूँ , गौएँ चराया करता हूँ । मुझसे जो प्रेम करते हैं , मैं भी उनसे प्रेम करता हूँ । ' बिल्वमंगल बालकको वीणा विनिन्दित वाणी सुनकर विमुग्ध हो गया । बालक जाते - जाते कह गया कि ' मैं रोज आकर आपको भोजन करवा जाया करूंगा । ' बिल्वमंगलने कहा , ' बड़ी अच्छी बात है ; तुम रोज आया करो । " बालक चला गया और बिल्वमंगलका मन भी साथ लेता गया । ' मनचोर ' तो उसका नाम ही ठहरा ! अनेक प्रकारको सामग्रियोंसे भोग लगाकर भी लोग जिनकी कृपाके लिये तरसा करते हैं , वही कृपासिन्धु रोज बिल्वमंगलको अपने करकमलो से भोजन करवाने आते हैं ? धन्य है । भक्तके लिये भगवान् क्या - क्या नहीं करते । 

बिल्वमंगल अबतक यह तो नहीं समझा कि मैंने जिसके लिये फकीरीका बाना लिया और आँखों काँटे चुभाये , वह बालक यही है ; परंतु उस गोप बालकने उसके हृदयपर इतना अधिकार अवश्य जमा लिया कि उसको दूसरी बातका सुनना भी असह्य हो उठा । एक दिन बिल्वमंगल मन - ही- मन विचार करने स कि ' सारी आफतें छोड़कर यहाँतक आया , यहाँ यह नयी आफत आ गयी । स्त्रीके मोहसे छूटा तो इस बालकने मोहमें घेर लिया । ' यों सोच ही रहा था कि वह रसिक बालक उसके पास आ बैठा और अपनी दीवाना बना देनेवाली वाणीसे बोला , ' बाबाजी । चुपचाप क्या सोचते हो ? वृन्दावन चलोगे ? " वृन्दावनका  नाम सुनते ही बिल्वमंगलका हृदय हरा हो गया , परंतु अपनी असमर्थता प्रकट करता हुआ बोला - ' भैया । मैं अन्धा वृन्दावन कैसे जाऊँ ? ' बालकने कहा- ' यह लो मेरी लाठी , मैं इसे पकड़े - पकड़े तुम्हारे साथ चलता हूँ । " बिल्वमंगलका मुख खिल उठा , लाठी पकड़कर भगवान् भक्तके आगे - आगे चलने लगे । धन्य दयालुता । भक्तकी लाठी पकड़कर मार्ग दिखाते हैं । थोड़ी - सी दूर जाकर बालकने कहा , ' लो ! वृन्दावन आ गया , अब मैं जाता हूँ । ' बिल्वमंगलने बालकका हाथ पकड़ लिया , हाथका स्पर्श होते ही सारे शरीरमें बिजली - सी दौड़ गयी , सात्त्विक प्रकाशसे सारे द्वार प्रकाशित हो उठे , बिल्वमंगलने दिव्य दृष्टि पायी और उसने देखा कि बालकके रूपमें साक्षात् मेरे श्यामसुन्दर ही हैं । बिल्वमंगलका शरीर रोमांचित हो गया , आँखोंसे प्रेमाओंकी अनवरत धारा बहने लगी , भगवान्‌का हाथ उसने और भी जोरसे पकड़ लिया और कहा - ' अब पहचान लिया है , बहुत दिनोंके बाद पकड़ सका हूँ । प्रभु ! अब नहीं छोड़नेका ! ' भगवान्ने कहा , ' छोड़ते हो कि नहीं ? ' बिल्वमंगलने कहा , ' नहीं , कभी नहीं , त्रिकालमें भी नहीं । 


' भगवान्ने जोरसे झटका देकर हाथ छुड़ा लिया । भला , जिनके बलसे बलान्वित होकर मायाने सारे जगत्को पददलित कर रखा है , उसके बलके सामने बेचारा अन्धा क्या कर सकता था ! परंतु उसने एक ऐसी रज्जुसे उनको बाँध लिया था कि जिससे छूटकर जाना उनके लिये बड़ी टेढ़ी खीर थी ! हाथ छुड़ाते ही बिल्वमंगलने कहा - जाते हो ? पर स्मरण रखो । 

हस्तमुत्क्षिप्य यातोऽसि बलात्कृष्ण किमद्भुतम् । हृदयाद् यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते ॥ हाथ छुड़ाये जात हाँ , निबल जानि कै मोहि हिरदै तें जब जाहुगे , सबल बदौंगो तोहि ॥ 

भगवान् नहीं जा सके । जाते भी कैसे प्रतिज्ञा कर चुके हैं ये 

 ेये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । ( गीता ४१११ ) ' जो मुझको जैसे भजते हैं , मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ । 

" भगवान्ने विल्वमंगलकी आँखोंपर अपना कोमल करकमल फिराया , उसकी आँखे खुल गयीं । नेत्रोंसे प्रत्यक्ष भगवान्‌को देखकर उनकी भुवनमोहिनी अनूप रूपराशिके दर्शन पाकर बिल्वमंगल अपने आपको संभाल नही सका । वह चरणोंमें गिर पड़ा और प्रेमाश्रुओंसे प्रभुके पावन चरणकमलोंको धोने लगा !

  इस भावको श्रीप्रियादासजी इस प्रकार कहते हैं -

 चले लै गहाइ कर छाया घन तरुतर चाहत छुड़ायो हाथ छोड़ें कैसे ? नीको है । ज्यों ज्यों बल करें त्यों त्यों तजत न एक अरे लियोई छुटाइ गह्यो गाढ़ो रूप ही को है । ऐसे ही करत वृन्दावन घन आइ लियो पियो चाहें रस सब जग लाग्यो फीको है । भई उतकण्ठा भारी आये श्रीबिहारीलाल मुरली बजाइकै सु कियो भायो जीको है ॥ 

( घ ) बिल्वमंगल और चिन्तामणिका सौभाग्य

 भगवान्ने उठाकर उसे अपनी छातीसे लगा लिया । भक्त और भगवान्के मधुर मिलनसे समस्त जगत में मधुरता छा गयी । देवता पुष्पवृष्टि करने लगे । सन्त - भक्तोंके दल नाचने लगे । हरिनामकी पवित्र ध्वनि से आकाश परिपूर्ण हो गया । भक्त और भगवान् दोनों धन्य हुए । वेश्या चिन्तामणि , गृहस्थ और उसकी पत्नी भी वहाँ आ गयीं , भक्तके प्रभावसे भगवान्ने उन सबको अपना दिव्य दर्शन देकर कृतार्थ किया ।

इस वृत्तान्तका प्रियादासजीने अपने दो कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है -


              खुलि गये नैंन ज्यौं कमल रवि उदै भये देखि रूपराशि बाढ़ी कोटि गुनी प्यास है । मुरली मधुर सुर राख्यो मद भरि मनो ढरि आयो कानन मैं आनन मैं भास है ॥ मानिकै प्रताप चिन्तामनि मन मांझ भई ' चिन्तामनि जैति ' आदि बोले रसरास है । ' करनामृत ' ग्रन्थ हृदय ग्रन्थिको विदारि डारै बांधै रस ग्रन्थ पन्थ युगल प्रकास है ॥ चिन्तामनि सुनी वनमांझ रूप देख्यौ लाल है गई निहाल आई नेह नातो जानिकै । उठि बहु मान कियौ दियौ दूध भात दोना दै पठावैं नित हरि हितू जन मानिकै ॥ लियौ कैसे जाय तुम्हें भायसों दियो जो प्रभु लैहौं नाथ हाथसौं जो देहैं सनमानिकै । बैठे दोऊ जन कोऊ पावैं नहीं एक कन रीझे श्याम घन दीनो दूसरो हू आनिकै ।। बिल्वमंगल जीवनभर भक्तिका प्रचार करके भगवान्‌की महिमा बढ़ाते रहे और अन्तमें गोलोकधाम पधारे ।

मित्र 

श्री केशव माधव के कृपा से मैने शतक पोस्ट कर ली है ।सभी भक्तो के चरित्रामृत है ।समय मिले तो इस अमृत का पान अवश्य करे । यदि यह कहानी अच्छी लगे तो अपने मे शेयर कर दें । ऐसे महान संत के इतिहास को इस कराल कलिकाल मे प्रचार-प्रसार करें । अपनी राय लिखें। 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

Bhupalmishra35620@gmail.com 


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