श्रीविषणुपुरी जी महाराज ज्ञानेश्वर जी महाराज
के मंगलमय चरित्र
श्रीविष्णुपुरीजी भगवत धर्म उतंग आन धर्म आन न देखा । पीतर पटतर बिगत निकष ज्यों कुंदन रेखा ॥ कृष्ण कृपा कहि बेलि फलित सतसंग दिखायो । कोटि ग्रंथ को अर्थ तेरह बिरचन में गायो ॥ भागवत तें भक्ति रतन राजी रची । महा समुद्र कलि जीव जँजाली कारने बिष्णुपुरी बड़ि निधि सँची ॥
श्रीविष्णुपुरीजीने कलियुगके प्रपंची जीवोंके कल्याणके लिये बड़े भारी खजानेको ( भक्तिको ) इकट्ठा किया । उन्होंने वैष्णवधर्मको ही सर्वश्रेष्ठ माना । अन्य अवैदिक धर्मोकी ओर देखा भी नहीं । जिस प्रकार कसौटीपर सोनेकी रेखाके सामने पीतलकी रेखा चमकती हो नहीं है , उसी प्रकार उन्होंने अपनी बुद्धिकी कसौटीपर वैष्णवधर्मको कसकर सच्चा - खरा पाया और अन्य धर्मोको तुच्छ देखा आपने संतसंगको श्रीकृष्णकी कृपारूपी लताका फल बताया । करोड़ों ग्रन्थोंका तात्पर्य ( भक्ति ) केवल तेरह विरचनों ( अध्यायों ) में गाया । श्रीमद्भागवतरूपी महासमुद्रसे रत्नरूपी श्लोकोंको निकालकर ' भक्तिरत्नावली ' की रचना की ॥
श्रीविष्णुपुरीजीका चरित संक्षेपमें इस प्रकार है श्रीविष्णुपुरीजी परमहंसकोटिके संन्यासी थे और तिरहुतके रहनेवाले थे । ये बड़े ही प्रेमी भक्त तथा विद्वान् थे । इनकी भक्तिरत्नावलीका पन्द्रहवीं शताब्दीके प्रारम्भ में कृष्णदास लौरीयके द्वारा बंगलामें अनुवाद हुआ था , जिससे यह अनुमान होता है कि विष्णुपुरी चौदहवीं शताब्दीके अन्तमें विद्यमान रहे होंगे । हिन्दी विश्वकोष में लिखा है कि विष्णुपुरीका दूसरा नाम वैकुण्ठपुरी था और ये मदनगोपालके शिष्य थे । इन्होंने भगवद्भक्तिरत्नावली , भागवतामृत , हरिभक्तिकल्पलता और वाक्यविवरण- ये चार ग्रन्थ लिखे थे । कहा जाता है कि नवद्वीपके महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव और विष्णुपुरी एक बार काशीमें मिले थे । जब चैतन्य महाप्रभु वृन्दावनसे पुरीको जा रहे थे , उस समय दोनों ही एक - दूसरेके प्रति बड़े आकर्षित हुए । एक बार विष्णुपुरीके एक शिष्य काशीसे जगन्नाथपुरी गये और वहाँ श्रीचैतन्य महाप्रभुसे मिलकर पूछा कि ' आपको विष्णुपुरीके लिये कोई सन्देशा भेजना हो अथवा उनसे कोई प्रार्थना करनी हो तो कृपाकर बताइये । ' तब श्रीचैतन्यदेवने सभी वैष्णवोंके सामने उस शिष्यके द्वारा विष्णुपुरीको यह कहला भेजा कि ' आप हमारे लिये एक सुन्दर रत्नावली भेजिये । '
श्रीचैतन्य महाप्रभु - जैसे महान् त्यागीके मुँहसे इस प्रकारके शब्द सुनकर उनके साथियों को बड़ा आश्चर्य हुआ परंतु उन्हें डरके मारे कुछ कहनेका साहस नहीं हुआ । कुछ दिन बीत जानेपर विष्णुपुरीका वही शिष्य फिर जगन्नाथपुरी आया और महाप्रभुके हाथमें एक पुस्तक देकर बोला कि ' गुरुदेवने आपके आदेशानुसार यह रत्नावली आपकी सेवामें भेजी है । यह सुनकर महाप्रभुके साथियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने महाप्रभुके आशयको न समझ सकनेपर बड़ा पश्चात्ताप किया । श्रीचैतन्यमहाप्रभुने उस रत्नावलीको भगवान् श्रीनीलाचलनाथके चरणों में रख दिया ।
भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते हैं
-जगन्नाथ क्षेत्र मांझ बैठे महा प्रभूजू वै चहूँ ओर भक्त भूप भीर अति छाई है । बोले विष्णुपुरी पुरीकाशी मध्य रहें जाते जानियत मोक्ष चाह नीकी मन आई है । लिखी प्रभु चीठी ' आपु मणिगण माला ' एक दीजिये पठाइ मोहिं लागती सुहाई है । जानि लई बात निधि भागवत रत्नदाम दई पठै आदि मुक्ति खोदिकै बहाई है ॥
इसी पुस्तकके सम्बन्ध में एक कथा यह है कि सन्त विष्णुपुरीके एक मित्र थे माधवदास । उन्होंने एक बार विष्णुपुरीसे एक अनोखे ढंगकी रत्नावली माँगी , जिसको धारण करनेसे सुख मिले । अपने उन्हीं मित्रके अनुरोधसे विष्णुपुरीने कुछ चुने हुए रत्नोंको संगृहीतकर उन्हें पुरुषोत्तमक्षेत्र भेज दिया , जहाँ उनके मित्र रहते थे ।
। भक्तिरत्नावलीमें भागवतमें नवधा भक्तिविषयक कई सुन्दर वाक्य संगृहीत किये गये हैं और उन्हें विषयके अनुसार तेरह भागोंमें विभक्त किया गया है । प्रत्येक भागका नाम ' विरचन ' रखा गया है । जो लोग पूरी भागवत नहीं पढ़ सकते , उनके लिये यह ग्रन्थ बड़े कामका है । अपने ग्रन्थके सम्बन्धमें वे स्वयं लिखते हैं कि ' मैं चाहे कितना भी अज्ञ एवं अल्पबुद्धि होऊँ , मेरे इस प्रयासका भक्तलोग अवश्य आदर करेंगे । मधुमक्खीमें कितनी बुद्धि है और क्या - क्या गुण हैं- इस बातको कोई नहीं पूछता ; किंतु उसके द्वारा संचित मधुका सभी बड़े चावसे आस्वादन करते हैं । '
भक्तिरत्नावलीपर कई टीकाएँ मिलती हैं । इनमेंसे पहली टीका श्रीधरद्वारा संस्कृतमें लिखी गयी है , इसका नाम है कान्तिमाला । दूसरी टीका हिन्दी गद्यमें लिखी गयी है । तीसरी टीका हिन्दीके दोहे - चौपाइयोंमें लिखी गयी है । उसका नाम है - भक्तिप्रकाशिका । इसके अतिरिक्त भक्तिरत्नावलीपर दो टीकाएँ गुजरातीमें भी मिलती हैं । भक्तिप्रकाशिकाके अनुसार भक्तिरत्नावलीके विरचनोंमें निम्नलिखित विषयोंका वर्णन हुआ है । पहले विरचनमें भक्तिकी महिमाका वर्णन हुआ है , दूसरेमें महापुरुषोंके तथा उनके संगके प्रभावका वर्णन है । तीसरे विरचनमें भक्तिके कई भेद बताये गये हैं । चौधेसे लेकर बारहवें विरचनतक नवधा भक्तिका अलग - अलग वर्णन है और तेरहवें विरचनमें शरणागतिका वर्णन है ।
श्रीविष्णुस्वामी सम्प्रदायके अनुयायी सन्तगण नाम तिलोचन सिष्य सूर ससि सदृस उजागर । गिरा गंग उनहारि काब्य रचना प्रेमाकर ॥
आचारज हरिदास अतुल बल आनँद दायन । तेहिं मारग बल्लभ्भ बिदित पृथु पधति परायन ॥ नवधा प्रधान सेवा सुदृढ़ मन बच क्रम हरि चरन रति । बिष्णुस्वामि सँप्रदाइ दृढ़ ग्यानदेव गंभीर मति ॥
श्रीविष्णुस्वामी सम्प्रदायके अनुयायी सुदृढ़ विचार एवं गम्भीर मतिवाले श्रीज्ञानदेवजी हुए । श्रीनामदेवजी और श्रीत्रिलोचनजी उनके शिष्य थे , जो सूर्य और चन्द्रके समान भक्तजगत्को प्रकाशित करनेवाले थे । श्रीज्ञानदेवजीकी वाणी गंगाजीके समान पवित्र थी । उनकी काव्यरचना ( गीताको टोका ज्ञानेश्वरी एवं अभंगादि ) तो मानो भगवत्प्रेमकी खानि थी । आचार्यों तथा हरिभक्तोंका आपमें अपार बला था । आप सभीको आनन्दित करनेवाले थे । श्रीपृथुजीकी अर्चन पद्धतिके अनुसार उपासना करनेवाले परम प्रसिद्ध श्रीवल्लभाचार्यजी इसी सम्प्रदायमें हुए । वे नवधाभक्तिको प्रधान मानकर सुदृढ़ भावसे भगवत्सेव करते थे । उन्हें मन , वाणी और कर्मसे भगवान्के चरणों में प्रीति थी ॥
श्रीविष्णुस्वामी सम्प्रदायके इन सन्तोका पावन चरित इस प्रकार है -
श्रीज्ञानदेवजी
श्रीविष्णुस्वामी सम्प्रदायके अनुयायी अति ही गम्भीर बुद्धिवाले श्रीज्ञानदेवजी नामक संत थे । इसके पिताजी श्रीविठ्ठल पन्तने गृहस्थाश्रमको त्यागकर संन्यास ले लिया और श्रीगुरुदेवसे झूठ बोल दिया कि मेरे स्त्री नहीं है , मैं गुरु करना चाहता हूँ । बादमें स्त्रीने संन्यासी होने की बात सुनी , तब वह आयी और उसने उनके गुरुसे सब बात कही । तब गुरुजीने जाना कि इसने मिथ्या बोलकर मुझसे संन्यास लिया है । स्त्रीने कहा कि प्रभो । आप इनका हाथ पकड़कर मेरे साथ कर दीजिये इस प्रकार वह उन्हें घर से आयी। इससे कुटुम्बी लोग अत्यन्त रुष्ट हुए और इन्हें उन लोगोंने जाति - पाँतिसे बाहर निकाल दिया । अब ये समाजसे अलग रहने लगे , परंतु इनके मनमें किसी प्रकारका दुःख नहीं था क्योंकि इन्होंने गुरू की आज्ञा से पुनः गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया था ।
श्रीप्रियादासजी महाराज श्रीज्ञानदेवजीके माता पिताका परिचय देते हुए एक कवित्नमें कहते हैं विष्णु स्वामि सम्प्रदाई बड़ोई गम्भीर मति ज्ञानदेव नाम ताकी बात सुनि लीजिये । पिता गृह त्यागि आई ग्रहण संन्यास कियो दियो बोलि झूठ तिया नहीं गुरु कीजिये ॥आई सुनि बधू पांछें कह्यो जान्यो मिथ्यावाद भुजनि पकरि मेरे संग करि दीजिये । ल्याई सो लिवाइ जाति अति ही रिसाइ दियो पंक्ति मैं ते डारि रहें दूरि नहीं छीजियै ॥
श्रीविठ्ठलपन्तके द्वितीय पुत्र , श्रीनिवृत्तिनाथके छोटे भाई श्रीज्ञानेश्वरका जन्म सं ० १३३२ वि ० भद्रकृष्णाष्टमीकी मध्यरात्रिमें हुआ था । जब ये पाँच वर्षके थे , तभी इनके माता - पिता धर्म - मर्यादाकी रक्षाके लिये त्रिवेणीसंगममें अपने शरीरोंको छोड़कर इहलोकसे चले गये थे । श्रीज्ञानेश्वरसे छोटे सोपान उस समय चार वर्षके और सबसे छोटी बहन मुक्ताबाई तीन वर्षकी थी । इस तरह ये चारों बालक बचपनमें ही माता पिताके बिना अनाथ हो गये थे । परंतु इनका चरित्र देखनेसे ऐसा मालूम होता है कि ये चारों भाई - बहन इस प्रकार बाह्यतः अनाथोंकी - सी अवस्थामें ही नाथोंके नाथ सकललोकनाथका कार्य करनेके लिये आये हुए महान् आत्मा थे । ये मातृ - पितृविहीन बालक कच्चा अन्न भिक्षामें माँगकर लाते और उससे जीवननिर्वाह करते हुए सदा भगवद्भजन , भगवत्कथा - कीर्तन और भगवच्चर्चामें ही अपना समय व्यतीत करते थे । इनकेसामने सबसे बड़ी कठिनाई इनके उपनयन संस्कार न होनेकी थी । उसके लिये आलन्दीके ब्राह्मण इन्हें संन्यासोंके लड़के जानकर अनुकूल नहीं थे । परंतु इनके साधुजीवनका प्रभाव उनपर दिन - दिन अधिक पढ़ रहा था और जब विलपन्त तथा रुक्मिणीबाईने अलौकिकरूपसे अपना देहविसर्जन कर दिया , तब तो उन ब्राह्मणोंपर इनका और भी गहरा प्रभाव पड़ा । उनके हृदयमें इन बालकों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो गयी और उन्होंने इन्हें सलाह दी कि ' तुमलोग पैठण जाओ । वहाँके विद्वान् शास्त्रज्ञ यदि तुम्हारे उपनयनकी व्यवस्था दे देंगे तो हमलोग भी उसे मान लेंगे । ' अतः ये लोग पैदल यात्रा करके भगवन्नाम संकीर्तन करते हुए पैठण पहुंचे । वहाँ इनके लिये ब्राह्मणों की सभा हुई । परंतु सभामें यही निश्चय हुआ कि ' इन बालकोंकी शुद्धि और किसी तरह भी नहीं हो सकती । केवल एक उपाय है और वह यही कि
। विसृज्य समयमा प्रणमेदण्डवद् स्वान् दृशं व्रीडो च लौकिकीम् । भूमावाश्व चाण्डालगोखरम् ॥ -श्रीमद्भागवत अर्थात् '
अपने ऊपर हँसनेवाले लोगोंको और देह - दृष्टि तथा लोक - लाजको त्यागकर ये लोग कुत्ते , चाण्डाल और गौसमेत सबको भूमिपर लेटकर प्रणाम करें और इस प्रकारकी भगवान्की अनन्य भक्ति करें । ' इस निर्णयको सुनकर चारों भाई - बहन सन्तुष्ट हो गये । निवृत्तिनाथने कहा - ' ठीक है । ' सोपान और मुक्ताने कहा - ' यह बड़े आनन्दको बात है । ' और ज्ञानेश्वर गम्भीरतापूर्वक बोले - ' आपलोग जो कहें , स्वीकार है । ' वहाँसे चारों भाई - बहन लौटनेको ही थे कि कुछ दुष्टोंने उनसे छेड़ - छाड़ आरम्भ कर दी । ज्ञानदेवसे किसीने पूछा- तुम्हारा क्या नाम है ? ' उत्तर मिला ' ज्ञानदेव । ' पास ही एक भैंसा था , उसकी ओर संकेत करके एक भले आदमीने इनको ताना मारा कि ' यहाँ तो यही ज्ञानदेव है , दिनभर बेचारा ज्ञानका ही तो बोझा ढोया करता है । कहिये , देवता ! क्या आप भी ऐसे ही ज्ञानदेव हैं ? ' ज्ञानदेवने कहा- ' हाँ , हाँ , इसमें सन्देह हो क्या है ? यह तो मेरा ही आत्मा है , इसमें मुझमें कोई भेद नहीं । ' यह सुनकर किसीने और भी छेड़ करनेके लिये भैंसेकी पीठपर सटासट दो साँटे लगा दिये और ज्ञानदेवसे पूछा कि ' ये साँटे तो तुम्हें जरूर लगे होंगे । ' ज्ञानदेवने कहा- हाँ , और अपना बदन खोलकर दिखला दिया , उसपर साँटोंके चिह्न थे । परंतु इसपर भी उन लोगोंकी आँखें नहीं खुलीं । एक सज्जन बोले - ' यह भैसा यदि तुम्हारे जैसा ही है तो तुम जैसी ज्ञानकी बातें कहते हो , वैसी इससे भी कहलाओ । ' ज्ञानदेवने भैंसेकी पीठपर हाथ रखा । हाथ रखते हो वह भैसा ॐ का उच्चारण करके वेदमन्त्र बोलने लगा । यह चमत्कार देखकर पैठणके विद्वान् ब्राह्मण चकित - स्तम्भित हो गये । उन्होंने अब जाना कि ये साधारण मनुष्य नहीं , कोई महात्मा हैं , इससे उन पण्डितोंमें भी भक्ति प्राप्त करनेकी रुचि जाग गयी । उनका अहंकार दूर हो गया । उन्होंने आकर श्रीज्ञानदेवजीके चरण पकड़ लिये । भक्तोंका - सा सरल स्वभाव अपनाकर उन्होंने दीनता ग्रहण की ।
श्रीप्रियादासजी इस घटनाका वर्णन इस प्रकार करते हैं
भये पुत्र तीन तामें मुख्य बड़ो ज्ञानदेव जाकी कृष्णदेवजू सों हिये की सचाई है । वेद न पढ़ावे कोऊ कहँ सब जाति गई लई करि सभा अहो कहा मन आई है ॥ बिनस्यो ब्रह्मत्व कही श्रुति अधिकार नाहि बोल्यों यों निहारि पढ़े भैंसा लै दिखाई है । देखि भक्ति भाव चाव भयो आनि गहैं पांव कियोई सुभाव वही गही दीनताई है ॥
एक दिन एक ब्राह्मणके घर श्राद्धके अवसरपर ज्ञानेश्वरने ध्यान करके ' आगन्तव्यम् ' कहकर उसके पितरोंको सशरीर बुला लिया और उन्हें भोजन कराया ।
इस प्रकार इनकी अद्भुत सामर्थ्य देखकर पैठणके लोग इनपर मुग्ध हो गये और इनके पास आ - आकर इनसे भगवन्नामकीर्तन और भगवत्कथा श्रवण करने लगे । धर्मज्ञ ब्राह्मणोंने बड़ी नम्रताके साथ इन्हें शुद्धिपत्र लिखकर दे दिया । इसके पश्चात् कुछ कालतक चारों भाई - बहन पैठणमें ही रहे । वहाँ ये लोग गोदावरीमें स्नान करते , वेदान्तकी चर्चा करते , भगवन्नामसंकीर्तन करते , पुराणोंका पठन करते और पैठणवासियोंको भगवद्भक्तिका मार्ग दिखाते थे । वहाँ रहते हुए ही ज्ञानेश्वरने श्रीमच्छंकराचार्यका भाष्य , श्रीमद्भागवत , योगवासिष्ठ आदि ग्रन्थ देख डाले और आगे जो ग्रन्थ लिखे , उनकी भूमिका भी वहीं तैयार कर ली । इस प्रकार कुछ कालतक पैठणवासियोंको अपना अपूर्व सत्संग - लाभ कराकर श्रीज्ञानेश्वरादि ब्राह्मणोंका दिया हुआ वह शुद्धिपत्र लेकर आले नामक स्थानसे होते हुए नेवासे पहुँचें ।
इसी नेवासे मे ज्ञानेश्वर महाराजने गीताका ज्ञानेश्वरी - भाष्य कहा , जिसे सच्चिदानन्दजीने लिखा । नेवासेंसे कुछ कालके लिये श्रीज्ञानेश्वर आदि चारों भाई - बहन आलन्दी चले गये , वहाँके लोगोंने इस बार उनका बड़े आदर और प्रेमके साथ स्वागत किया । फिर जब ज्ञानेश्वर महाराज अपने भाई - बहिनोंके सहित नेवासें लौट आये , तब उन्होंने सद्गुरु श्रीनिवृत्तिनाथके सामने गीताका स्वानुभूत भाष्य कहना आरम्भ किया । उस समयतक श्रीनिवृत्तिनाथ सत्रह वर्षके , श्रीज्ञानेश्वर पन्द्रह वर्षके , सोपानदेव तेरह वर्षक और मुक्ताबाई ग्यारह वर्षकी हो चुकी थीं । ज्ञानेश्वर महाराजने अपने इस बालजीवनमें जो - जो चमत्कार दिखलाये , उनमें सबसे बढ़कर चमत्कार तो यह ' ज्ञानेश्वरी ' ग्रन्थ ही है , जिसे उन्होंने केवल पन्द्रह वर्षकी अवस्थामें लिखाया था । संवत् १३४७ वि ० में यह ' ज्ञानेश्वरी ' ग्रन्थ पूर्ण हुआ था ।
इसके बाद श्रीज्ञानेश्वरने तीर्थयात्रा आरम्भ की यात्रामें गुरु निवृत्तिनाथ , सोपानदेव , मुक्ताबाई भी साथ थे । कहते हैं कि इस यात्रामें विसोबा खेचर , गोरा कुम्हार , चोखा मेला , नरहरि सुनार आदि अन्य अनेक सन्त भी साथ हो लिये थे । सबसे पहले श्रीज्ञानेश्वर महाराज पण्ढरपुर गये , जहाँ उन्हें श्रीविठ्ठलभगवान्के दर्शन हुए तथा परम विट्ठलभक्त श्रीनामदेवसे भेंट हुई । तत्पश्चात् श्रीनामदेवजीको भी साथ लेकर श्रीज्ञानेश्वर महाराजने अनेक स्थानों में अपने ज्ञानोपदेशद्वारा असंख्य मनुष्योंका उद्धार करते हुए उज्जैन , प्रयाग , काशी , गया , अयोध्या , गोकुल , वृन्दावन , द्वारका , गिरनार आदि तीर्थस्थानोंका परिभ्रमण किया और तदनन्तर वे सब सन्तोंके साथ पण्ढरपुर लौट आये । पैठण आदि स्थानों में श्रीज्ञानेश्वर महाराजने जो अद्भुत अद्भुत चमत्कार दिखलाये , उनके कारण इन चारों भाई - बहनका यश सर्वत्र फैल गया और सब दिशाओंसे आर्त , जिज्ञासु , अर्थार्थी तथा ज्ञानी - सब प्रकारके भगवद्भक्त एवं योगी , यति , साधक आदि इनके दर्शनोंके लिये आने लगे ।
बात उन दिनोंकी है , जब ज्ञानदेव अलन्दी ग्राममें निवास कर रहे थे । उन्हीं दिनों श्रीचाँगदेव नामके एक सिद्ध योगिराज ताप्ती नदीके किनारे आश्रम बनाकर रहा करते थे । उनकी आयु और प्रतिष्ठा बहुत अधिक थी , साथ ही उनके शिष्योंकी संख्या भी हजारोंमें थी । इस बातका उन्हें अभिमान भी बहुत था । उन्होंने जब ज्ञानदेवकी महिमा सुनी तो अपने हजारों शिष्योंको लेकर वे उनसे मिलने चल दिये । उस समय वे एक सिंहपर सवार थे , उनके एक हाथमें त्रिशूल और एक हाथमें सर्पका कोड़ा था । आलन्दी गाँवके समीप पहुँचनेपर चाँगदेवके शिष्योंने श्रीज्ञानदेवके पास जाकर उनसे अपने गुरुके आगमनकी बात बतायी । यह सुनकर श्रीज्ञानदेवके बड़े भाई श्रीनिवृत्तिनाथजीने ज्ञानदेवसे कहा - चाँगदेव हमारे अतिथि हैं , अतः उनके स्वागतके लिये तुम्हें जाना चाहिये । उस समय शीत ऋतु थी , ज्ञानदेव एक मिट्टीकी दीवालपर बैठे धूप सेवन कर रहे थे । चाँगदेवके शिष्यों और अपने बड़े भाईकी बात सुनकर उन्होंने दीवालसे कहा — ' चल ' । वह मिट्टी की दीवाल चल पड़ी । जब यह आश्चर्य चाँगदेवने देखा , तो वे सिंहसे कूदकर ज्ञानदेवजीके चरणों मेंगिर पड़े । उनका सिद्धिका अभिमान विगलित हो गया । उन्हें लगा कि सिंह तो चेतन प्राणी है , उसे वशमें करना बहुत बड़ी बात नहीं है , परंतु ज्ञानदेवकी महिमा तो अपार है , उन्होंने तो जड़ दीवारको ही चेतन बना दिया है । श्रीज्ञानदेवजीने उन्हें उठाया , उनकी कृपादृष्टि पड़ते ही चाँगदेवमें भक्तिका संचार हो गया , उनकी आँखों में प्रेमाश्रु भ आये और शरीरमें रोमांच हो आया ।
इसी प्रकार श्रीज्ञानदेवजीने बहुत से लोगोंको भगवद्भक्तिका उपदेश देकर भगवत्सम्मुख किया । कुल इक्कीस वर्ष , तीन मास , पाँच दिनकी अल्पावस्थामें अर्थात् संवत् १३५३ वि ० मार्गशीर्ष कृष्णा १३ को श्रीज्ञानेश्वर महाराजने जीवित - समाधि ले ली । और उनके समाधि लेनेके बाद एक वर्षके भीतर ही सोपानेदव , चांगदेव , मुक्ताबाई और निवृत्तिनाथ भी एक - एक करके इस लोकसे परमधामको पधार गये । श्रीज्ञानेश्वर महाराजके ये चार ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध हैं - भावार्थदीपिका अर्थात् ज्ञानेश्वरी , अमृतानुभव , हरिपाठके अभंग तथा चांगदेव - पासठी ( पैंसठी ) । इनके अतिरिक्त उन्होंने योगवासिष्ठपर एक अभंगवृत्तकी टीका भी लिखी थी , पर अभीतक वह उपलब्ध नहीं हुई ।
दुख का कारण है संसार मे आसक्ति, प्राणी जब भगवत्सम्मुख हो जाता है तो उनके दुखों का तत्काल ही अंत हो जाता है ।फिर शुरू होता है आनंद ही आनंद, मौज- मस्ती हर दिन चमत्कार। शुरुआत मे तो कुछ कम लगता है ।लेकिन यह चमत्कार दिनो दिन बढता ही जाता है ।संसार मे फंसे लोग इसे ढोंग, पाखंड, मानते हुए, पुनरपि जन्म पुनरपि मरणं के चक्की मे पिसते रहते है ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
भूपाल मिश्र
सनातन वैदिक धर्म
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