सीता सहचरी जी की संत सेवा
सपत्नीक भक्त श्रीचीधरजीको सन्त - सेवा - निष्ठासे प्रभावित होकर सीता सहचरीजीने अपने पतिदेवसे जा - अब तो हमारा धर्म यह है कि हम अपना तन बेचकर भी सन्त सेवा करें । ऐसा निश्चयकर वहाँ जाकर बैठे , जहाँ अनाजकी बड़ी मण्डी थी । श्रीसीता सहचरीकी अपार सुन्दरतासे आकृष्ट करके वे लोग एकत्र हो गये जो रूप निरखनेके लोभी थे । समीप आकर जब उन लोगो ने उनको देखा तो उनके नेत्रोंका रोग अर्थात् उनकी विषय - दृष्टि नष्ट हो गयी । लोगोंने श्रीसीता सहचरीजीसे पूछा कि आप कौन हैं ? आपके साथ ये सज्जन आपके कौन हैं ? इन्होंने उत्तर दिया - हम संत सेवाके लिये बिकनेको प्रस्तुत हैं , हमारे घर - द्वार कुछ भी नहीं है और हमारे साथ यह हमारा सेवक है । यह सुनकर वे सब स्तब्ध खड़े - के - खड़े ही रह गये फिर जिन लोगोंने उन्हें द्वारकामें देखा था , उन्होंने पहचानकर बताया- अरे ये परमभक्त श्रीपीपाजी और ये उनकी धर्मपत्नी सीता सहचरीजी हैं । तब तो लोगोंने उनके आगे अन्न - वस्त्र और मुहरोंके ढेर लगा दिये । श्रीपीपाजीने वह सब सामान भक्त चीधरके यहाँ भेज दिया । श्रीसीता सहचरीजीकी इस अद्भुत सन्त - सेवा - निष्ठाका श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार वर्णन किया है
करें वेश्या कर्म अब धर्म है हमारो यही कही जाय बैठी जहाँ नाजनि की ढेरी है । घिरि आये लोग जिन्हें नैननिको रोग लखि दूर भयो सोग नेकु नीके हू न हेरी है । कहे तुम कौन ? ' वरमुखी नहीं भौन संग भरुवा ' सु गहें मौन सुनि परी बेरी है । करी अन्तरासि आगे मुहर रुपैया पागे पठै दई चीधर के तब ही निबेरी है ॥
श्रीपीपाजीको स्वर्णमुहरोंकी प्राप्ति और उनका त्याग
श्रीचीधर भक्तसे आज्ञा माँगकर उनसे विदा लेकर सीता सहचरीसमेत श्रीपीपाजी टोंड़े ग्राम आये और गवसे बाहर कुटी बनाकर रहने लगे । एक दिन आप स्नान करनेके लिये गये थे तो वहाँ एकाएक आपको मुहरोंसे भरे हुए कई मटके दिखायी पड़े । उस मिले हुए धनको त्यागकर आप चले आये । रातमें सीता सहचरीजीसे आपने कि उस सरोवरपर स्वर्णमुद्राओंसे भरे मटके मैं छोड़ आया हूँ सुनकर उन्होंने कहा - अब आप उस तालाब पर स्नान करने मत जाइयेगा। संयोगवश चोरी करने की इच्छासे वहीं कहीं कुटीके पास छिपे हुए चोरोने यहबात सुन ली । वे तुरंत उसी सरोवरपर गये और जाकर देखा तो उन पात्रोंमें साँप भरे हुए हैं । चोरोंने समझा कि वे हमें साँपोंसे कटवाकर मरवा डालनेके लिये ही ऐसी बातचीत आपसमें कर रहे थे । बदला लेनेकी भावनासे उन चोरों ने मुहर भरे सभी मटके उखाड़े और श्रीपीपाजीकी कुटीमें पटककर भाग गये ।
जब श्रीपीपाजीने गिना , तब मालूम पड़ा कि सात सौ बीस सोनेकी मुहरें हैं और एक - एक मुहर तौलमें पाँच - पाँच तोलेकी है । इस घटनाका श्रीप्रियादासजीने अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है
आज्ञा माँगि टोंड़े आये कभूँ भूखे कभूँ घाये औचक ही दाम पाये गयो हो स्नान को मुहरनि भांड़ो भूमि गाड़ो देखि छांड़ि आयौ कही निसि तिया बोली जावौ सर आन को ॥ चोर चाहें चोरी करें ढरे सुनि वाही ओर देखें जो उघारि सांप डारें हतैं प्रान को । ऐसे आय परीं गनी सात सत बीस भई तोलै पाँच बाँट करें एक के प्रमान को ॥
राजा सूर्यसेनमलका पीपाजीका शिष्य बनना
श्रीपीपाजी उस धनसे साधु - महात्माओंको निमन्त्रण देकर बड़े - बड़े विशाल भण्डारे करने लगे । असंख्य सन्त प्रसाद पाने लगे । इस प्रकार खिला - पिलाकर सम्पूर्ण धनको श्रीपीपाजीने तीन दिनमें समाप्त कर दिया । आपकी इस विशाल कीर्तिको टोंडेके राजा सूर्यसेनमलने सुना तो वह दर्शन करनेके लिये आया और दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुआ । फिर बड़ी नम्रतासे राजाने प्रार्थना की और कहा - आप मुझे शिष्य बना लीजिये । जैसी आज्ञा मुझे देंगे , मैं वही करूँगा । तब आपने आज्ञा दी कि यदि ऐसा है तो आप अपनी सब सम्पत्ति और रानियोंको यहाँ लाकर मुझको अर्पण कर दो । राजाने राज्य और रानियाँ उन्हें अर्पण कर दीं । इस प्रकार श्रीपीपाजीने राजाकी परीक्षा लेकर उसको मन्त्र - दीक्षा दी । फिर सम्पत्ति और रानियोंको लौटाकर कहा कि सम्पूर्ण राज्य तथा ये रानियाँ आजसे अब हमारी हैं , इनमें अब ममता न रखना । मेरी आज्ञासे इनका पालन - पोषण करना । रानियोंको आज्ञा दी कि सन्तोंकी सेवा करना । इसके बाद राजाने बहुत अनुनय - विनय करके गुरुदेवको एक घोड़ा और सन्त - सेवार्थ बहुत - सा धन भेंट किया । आपने उसमेंसे कुछ धन रख लिया । शेष लौटा दिया । गुरुदेवके उपदेशानुसार राजाने अहंकारको त्याग दिया और सभी जीव जन्तुओंको अपनेसे बड़ा मानने लगा । यह समाचार सुनकर राजाके भाई - बन्धु जल - भुन गये , परंतु महान् प्रतापी सीतापति श्रीपीपाजीसे वे कुछ भी कह न सके । इसी बीच एक व्यापारी बैलोंको खरीदनेके लिये टाँड़े गाँवको आया । राजाके भाइयोंने उसे बहकाया कि पीपा भगत बैलोंके बहुत बड़े व्यापारी हैं , उनके पास बहुत अच्छे - अच्छे बैल हैं , वहीं चले जाओ । राजा सूर्यसेनके पीपाजीका शिष्य बननेकी इस घटनाका श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार वर्णन किया है
जोई आवै द्वार ताहि देत हैं अहार और बोलिकै अनंत संत भोजन करायो है । बीते दिन तीन धन खाय प्याय छीन कियौ लियौ सुनि नाम नृप देखिबेको आयो है ॥ देखिकै प्रसन्न भयौ , नयौ , देवौ दीक्षा मोहि , दीक्षा है अतीत करें आप सो सुहायो है । चाहो सोई करौं है कृपाल मोको ढरौ , अजू धरौ आनि संपति औ रानी जाइ ल्यायौ है ।।
करिकै परीक्षा दई दीक्षा संग रानी दई भई ए हमारी करौ परदा न संतसों । दीयौ धन घोरा कछू राख्यौ दै निहोरा भूप मान तन छोरा बड़ौ मान्यौ जीवजंतसों ॥ सुनि जरि बरि गये भाई सेनसूरज के ऊरज प्रताप कहा कहैं सीता कंतसों । आयो बनिजारौ मोल लियो चाहै खैलनिकौं दियो बहकाय कहाँ पीपाजू अनंतसों ॥
( झ ) पीपाजीके जीवनकी विलक्षण घटनाएँ
लोगोंके बहकानेमें आकर वह व्यापारी श्रीपीपाजीके पास आया और थैली खोलकर रुपये इनके सामनेरखते हुए बोला- मैं बैल लेने आया हूँ . मुझे बैल दीजिये । श्रीपीपाजीने कहा- आपको जितने बैल चाहिये , उतने मिल जायेंगे , परंतु आज अभी यहाँ नहीं हैं । गाँवमें चरनेके लिये भेज दिये गये हैं । कल दोपहरको आकर आप ले लीजियेगा । इसके बाद वह व्यापारी तो रुपये देकर चला गया । आपने सन्तोंको बुलवाकर भण्डारा महोत्सव कर दिया । उसीमें सब रुपये खर्च कर दिये । वह बनजारा निर्धारित समयपर आ गया और बोला - ' मुझे बैल दीजिये । बैल कहाँ हैं ? ' उस समय पंगत हो रही थी , सैकड़ों सन्त बैठे प्रसाद पा रहे थे । श्रीपीपाजीने पंगतकी और हाथसे संकेत करके कहा - ' यही सब मेरे बैल ( धर्मस्वरूप सन्त ) हैं , मैं इन्हींका व्यापार करता हूँ । इनमें से जितने आपको चाहिये , आप उतने ले जाइये । ' उस व्यापारीने सन्तोंके दर्शन किये , उसके हृदयमें भक्तिका भाव भर गया । वह उसी समय बाजार गया और वस्त्र लाकर उसने सभी साधुओंको पहनाया ।
एक दिन श्रीपीपाजी घोड़ेपर चढ़कर स्नान करनेके लिये सरोवरपर गये । घोड़ेको वहीं छोड़कर आप स्नान करने लगे । इतनेमें ही दुष्ट चोरोंने आकर घोड़ा पकड़ लिया और उसे छिपाकर बाँध दिया । आप जब स्नान करके आये तो घोड़ा ज्यों - का - त्यों वहाँपर खड़ा मिला । मानो उसीको ले आये हों । घोड़ेपर चढ़कर आप अपने आश्रममें आ गये । जब चोरोंने यह चमत्कार देखा तो वे डर गये और घोड़ेको ले आये । तब वह घोड़ा नहीं दिखायी पड़ा । उन्होंने चोरी छोड़कर शिष्यता स्वीकार की ।
इन घटनाओंका वर्णन भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजीने एक कवित्तमें इस प्रकार किया है
बोल्यो बनिजारो दाम खोलि खैला दीजियै जू , लीजियै जू आय गाँव चरन पठाये हैं । गये उठि पाछे बोलि संतनि महोच्छौ कियौ आयौ वाही सधैँ कही लेहु मन भाये हैं । दरसन करि हिये भक्ति भाव भरयौ आनि आनिकै बसन सब साधु पहिराये हैं । और दिन न्हान गये घोड़ा चढ़ि छोड़ि दियौ लियौ बांध्यौ दुष्टननि आयौ मानौ ल्याये हैं ॥
श्रीपीपादम्पतीके सन्तनिष्ठाकी अद्भुत कथा
एक बार श्रीपीपाजी राजा सूर्यसेनमलके यहाँ एक झगड़ेका फैसला करनेके लिये गये थे । आपके चले जानेके बाद कुटीपर कुछ सन्तजन पधारे । संयोगवश उस दिन कुटीमें अन्न - धन कुछ भी नहीं था । सन्त - सेवाके लिये कहीं जाकर कुछ ले आऊँ , ऐसा विचारकर श्रीसीता सहचरीजी बाजारको गयीं । वहाँ इन्हें देखकर एक दुराचारी बनियेने बुलाकर पूछा- आपने सामानकी आवश्यकता बतायी । तब उसने सब सीधा - सामान देकर कहा - ' आप रातको मेरे पास अवश्य आइये । '
सन्त - सेवाकी अपरिहार्य आवश्यकताके कारण सीता सहचरीजी मौन हो रहीं और आवश्यक सामग्री लेकर कुटीपर आ गयीं । रसोई हुई और भोग लगाकर जब महात्मालोग भोजन कर रहे थे , उसी समय श्रीपीपाजी पधारे । उन्होंने पूछा कि सामान कहाँसे आया तो श्रीसीता सहचरीजीने सब बात बतला दी । उसे सुनकर श्रीपीपाजीने उसकी सन्त - सेवा - निष्ठाकी बड़ी प्रशंसा की ।
सायंकाल सीतासहचरीजीको साथ लेकर वे स्वयं उस बनियेके यहाँ पहुँचे । इनके दर्शन - चिन्तनसे एवं अन्नके सन्त भगवन्तको सेवामें लगनेसे उसकी बुद्धि शुद्ध हो चुकी थी , अतः मुखपर दृष्टि न पड़कर उस बनियेकी दृष्टि इनके चरणोपर पड़ी । इनके सूखे श्रीचरणोंको देखकर उसने पूछा - माताजी ! आप यहाँतक कैसे आयी हैं ? इन्होंने उत्तर दिया- ' स्वयं श्रीस्वामीजी अपने कन्धेपर बिठाकर लाये हैं । फिर उसने पूछा - ' वे कहाँ हैं ? ' आपने कहा - ' तुम जाकर देखो , वे बाहर ही होंगे । ' यह सुनकर वह सीता सहचरीजीके चरणों में गिर पड़ा और रोने लगा ।
फिर बाहर आकर श्रीपीपाजीके चरणोंको पकड़कर बोला — ' आप कृपा करके हमारी रक्षा करो , आप तो जीवमात्रको सुख देनेवाले सन्त हैं । ' श्रीपीपाजीने कहा - ' आप अपने मनमें किसी प्रकारकी शंका एवं भय न करें । निःसंकोच एवं निडर होकर अपना काम करें । आपने हमलोगोंके साथ बड़ा भारी उपकार किया है । जिस धनके वास्ते सहोदर भाई भी परस्पर लड़ते और मरते - मारते हैं । वह धन आपने बिना रुक्का लिखाये ही सन्तोंकी सेवाके लिये दे दिया । ' वह बनिया लज्जा और ग्लानिके मारे दबा मरा जा रहा था । वह चाहता था कि धरती जाय और मैं उसमें समा जाऊँ तो अच्छा है । श्रीपीपाजीने उसे इस प्रकार दुखी देखा तो उन्हें बड़ी दया आयी । उसे दौक्षा दी, वह भगवद्भक्ति पाकर कृतार्थ हुआ । सन्तसेवाके प्रति पीपाजी - दम्पतीके इस दिव्यभाव और दुष्ट बनियेके हृदयपरिवर्तनकी इस घटनाका श्रीप्रियादासजी महाराजने अपने कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है
गये हे बुलाये आप पाछे घर संत आये अन्न कछु नाहिं कहूँ जाय करि ल्याइयै । विषयी बनिक एक देखि के बुलाई लई दई सब सौंज कही सही निसि आइयै ॥ भोजन करत माँझ पीपा जू पधारे पूछी वारे तन प्रान जब कहि के सुनाइयै । करि कैं सिंगार सीता चली झुकि मेह आयो कांधे मै चढ़ायौ बपु बनिया रिझाइयै ।।
हाट पै उतारि दई द्वार आप बैठे रहे चहे सूके पग माता कैसे कर आई हौ । स्वामीजू लिवाय ल्याये , कहाँ है ? निहारी जाय आय पांय परयो डरयो राखौ सुखदाई हो ॥ मानौ जिनि संक काज कीजिये निसंक धन दियो बिन अंक जापै लरें मरें भाई हौ । मस्यौ लाज भार चाहै धसौं भूमि फार दृग वह नीरधार देखि दई दीक्षा पाई हौ ॥
राजा सूर्यसेनमलको ज्ञान प्रदान करना
श्रीपीपाजीके सीता सहचरीको कन्धेपर चढ़ाकर बनियेके यहाँ पहुँचानेकी बात चलते - चलते राजा सूर्यसेनमलके कानोंमें पड़ी । राजाको भरी सभामें भक्तिविमुख ब्राह्मणोंने श्रीपीपाजीको निन्दा करते हुए कहा ' उनका यह आचरण धर्मशास्त्र के बिलकुल विरुद्ध है । ' राजाके मनमें भी यही आया , इसलिये गुरुदेव के श्रीचरणों में भी उसकी प्रीति घट गयी । यह जानकर समर्थ श्रीपीपाजी उसे समझाने एवं उसके हृदयमें भक्ति सुस्थिर करने चले । राजद्वारपर पहुँचकर द्वारपालोंके द्वारा अपने आगमनकी सूचना भेजी । भीतरसे राजाने कहला भेजा कि इस समय पूजा कर रहे हैं । कुछ देर बाद आयेंगे । ' यह सुनकर श्रीपीपाजीने कहा- ' राजा बड़ा मूर्ख है , मोचीके घरपर बैठकर जूते गाँठ रहा है और कहता है कि मैं सेवा - पूजा कर रहा हूँ । ' राजाने द्वारपालोंके मुखसे जब यह बात सुनी तो दौड़कर आया और चरणोंमें गिर पड़ा । वह आश्चर्यचकित था , वस्तुत : मनसे मोचीके घरपर पहुँच गया था ।
उस राजाके महलमें एक अत्यन्त रूपवती , परंतु बन्ध्या रानी थी । उसमें राजाकी विशेष आसक्ति जानकर श्रीपीपाजीने कहा- ' तुम शीघ्र उस रानीको मेरे पास ले आओ । ' राजा महलकी ओर चला , परंतु उसे बड़ा शोक और संकोच हो रहा था कि मैं रानीको कैसे लाऊँ । चलते समय उसके पैर डगमगा रहे थे । रनिवासमें घुसते ही उसे भयंकर सिंह दिखायी पड़ा । उसे देखकर राजा डर गया और वहीं खड़ा हो गया । पीछे लौटनेमें बुराई और आगे जानेका साहस नहीं रहा । फिर वह सिंह गायब हो गया । राजा किसी प्रकार रानीके पास पहुँचा तो उसके पास अभीका जन्मा हुआ एक बालक दिखायी पड़ा । अब राजाकी समझमें आया कि गुरुदेव भगवान्में कितनी सामर्थ्य है । वहीं पृथ्वीपर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके राजाने स्तुति की- ' हे प्रभो ! हम आपकी मायाको नहीं जान सकते हैं । आपके सिंह एवं शिशु दोनों ही रूप वन्दनीय हैं । ' राजाकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर निज स्वरूपसे श्रोपीपाजी वहीं प्रकट हो गये और फटकारते हुए बोले कहो , वह पहलेवाला रंग कहाँ गया , जब तुमने लोकलज्जा और मोहका त्याग करके सारा राज्य और रानियाँ मुझे अर्पण की थीं और मेरे शिष्य हुए थे । इस घटनाका श्रीप्रियादासजीने अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है
चलत चलत बात नृपति श्रवन परी भरी सभा विप्र कहैं बड़ी विपरीति है । भूप मन आई यह निपट घटाई होत भक्ति सरसाई नहीं जानै घटी प्रीति है ।
शेष चरित्र का वर्णन अगले पोस्ट मे-
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL Mishra
Sanatan vedic dharma karma
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