Pipa ji Maharaj श्री पीपा जी के चरित्र

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          संत श्री पीपा जी महाराज 

  प्रथम भवानी भक्त मुक्ति माँगन को धायो । सत्य कह्यो तिहिं सक्ति सुदृढ़ हरि सरन बतायो । ( श्री ) रामानँद पद पाइ भयो अति भक्ति की सीवाँ । गुन असंख्य निर्मोल संत धरि राखत ग्रीवाँ ॥ परसि प्रनाली सरस भइ सकल बिस्व मंगल कियो । पीपा प्रताप जग बासना नाहर कों उपदेस दियो ॥  

भक्तवर श्रीपीपाजी पहले भवानी देवीके भक्त थे । मुक्ति माँगनेके लिये आपने देवीका ध्यान किया , देवीने प्रत्यक्ष दर्शन देकर सत्य बात कही कि ' मुक्ति देनेकी शक्ति मुझमें नहीं है , वह शक्ति तो भगवान्‌में है । उनकी शरणमें जाना ही सुदृढ़ साधन है । ' देवीजीके उपदेशानुसार आचार्य श्रीरामानन्दजीके चरणकमलोंका आश्रय पाकर श्रीपीपाजी अतिभक्तिकी अन्तिम सीमा हुए । गुरुकृपा एवं अतिभक्तिके प्रभावसे आपमें असंख्य - अमूल्य सद्गुण थे , उन्हें सन्तजन सदा गाते रहते हैं । भक्त , भक्ति , भगवन्त और गुरुदेवकी आपने ऐसी आराधना की कि उसका स्पर्श करके अर्थात् देख - सुन और समझ करके सम्पूर्ण वैष्णवोंकी आराधना - प्रणाली अत्यन्त सरस हो गयी । आपने अपने प्रभावसे सम्पूर्ण संसारका कल्याण किया । इसका प्रमाण यह है कि आपने परम हिंसक सिंहको उपदेश देकर अहिंसक और विनीत बना दिया ॥ 

श्रीपीपाजीसे सम्बन्धित कुछ विवरण इस प्रकार है 

श्रीरामानन्दाचार्यजीका शिष्य बननेकी घटना

 गागरौनगढ़ नामक एक विशाल किला एवं नगर है , वहाँ पीपा नामक एक राजा हुए । वे देवीके बड़े भक थे । एक बार उस नगरमें साधुओंकी जमात आयी । राजाने जमातका स्वागत करके कहा- देवीजीको चालीस मन अन्नका भोग लगता है , सभी लोग प्रसाद लेते हैं , आपलोग भी देवीजीका प्रसाद ग्रहण कीजिये । साधुओंने कहा- हमारे साथ श्रीठाकुरजी हैं , हम उन्हींको भोग लगाकर प्रसाद लेते हैं , दूसरे देवी - देवताओंका नहीं । तब राजाने उन्हें सीधा - सामान दिया । साधुओंने रसोई करके भगवान्‌का भोग लगाया और मन - ही - मन प्रार्थना की ' हे प्रभो ! इस राजाकी बुद्धिको बदल दीजिये , इसे अपना भक्त बना लीजिये । ' रातको जब राजा महलमें सोया तो उसने एक बड़ा भयानक स्वप्न देखा कि एक विकराल देहधारी प्रेतने मुझे पटक दिया है । मैं भयभीत होकर रोने लगा । जागते ही राजाने स्वप्नकी घटनापर विचार किया , तब उसे वैराग्य हो गया । अब राजाके सोचने विचारनेकी रीति दूसरी हो गयी । उसे भगवान्‌की भक्ति विशेष प्रिय लगने लगी ।


 राजाने देवीसे मायासे मुक्ति एवं भगवत्प्राप्तिका मार्ग पूछा , तब देवीजीने सही बात कही कि ' काशीमें विराजमान श्रीस्वामी रामानन्दजीको अपना गुरु बनाओ और उनके बताये हुए मार्गपर चलकर भगवान्‌को प्राप्त करो । ' देवीजीकी आज्ञा पाकर राजाने काशीको प्रस्थान किया । श्रीस्वामीजीके दर्शनोंकी इच्छासे राजाने जब श्रीमठमें प्रवेश करना चाहा तो द्वारपालोंने कहा कि आचार्य श्रीकी आज्ञाके बिना कोई भी भीतर नहीं जा सकता । है । आप अपना परिचय दें । इन्होंने कहा- हम गागरौनगढ़के राजा हैं । जब स्वामीजीसे जाकर यह बात कही गयी । तब द्वारपालोंसे श्रीस्वामीजीने कहा कि हमलोग तो विरक्त हैं , राजाओंसे हमें क्या प्रयोजन ? यह सुनकर पीपाजीने राजशाही वेषका त्याग करके फिर शरणागतिकी प्रार्थना कहला भेजी । देहासक्तिका निराकरण करनेके लिये श्रीस्वामीजीने आदेश दिया - ' कुएँमें गिर पड़ो । ' आज्ञा सुनते ही मनमें अत्यन्त प्रसन्न होकर पीपा कुएँ में गिरने चले । परंतु श्रीस्वामीजीके सेवकोंने पकड़ लिया । इनकी दृढ़ निष्ठा देखकर श्रीस्वामीजी बड़े प्रसन्न हुए और इन्हें बुलाकर दर्शन दिया ।


 श्रीस्वामी रामानन्दाचार्यजीने भक्त पीपाको मन्त्र - दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया और इनके ऊपर विशेष कृपा की । गुरुदेवके अनुग्रहसे श्रीपीपाजीने भगवद्भक्तिको दृढ़तापूर्वक अपने हृदयमें धारण किया । श्रीस्वामीजीने इन्हें आज्ञा दी कि अब तुम अपनी राजधानी गागरौनगढको जाओ और वहीं घरमें रहकर साधु - सन्तोंकी सेवा करो । एक वर्ष बीतनेपर जब हम तुम्हारी सेवाको सरस जानेंगे और यह देख लेंगे कि तुम सन्तोंकी सेवामें सुख मानते हो और तुम्हारी सेवासे सुखी होकर सन्त तुम्हारे यहाँसे विदा होते हैं , तब हम तुम्हारे घर आयेंगे , वहीं हमारा दर्शन करना । श्रीस्वामीजीकी ऐसी आज्ञा पाकर श्रीपीपाजी घरको लौट आये और बड़ी सुन्दर रीतिसे सन्तसेवा करने लगे । जब वर्ष पूरा होने लगा , तब गुरुदेवभगवान्‌को एक पत्रमें लिखकर भेजा कि ' दासपर आप कृपा कीजिये , अपने वचनोंका पालन कीजिये । पत्र पाकर श्रीस्वामीजी अपने प्रिय चालीस भक्तोंको साथ लेकर गागरौनगढ़को चले । 

श्रीप्रियादासजीने श्रीपीपाजीके रामानन्दाचार्यजीका शिष्य बननेकी घटनाका वर्णन इस प्रकार किया है 

गागरौन गढ़ बढ़ पीपा नाम राजा भयो लयो पन देवी सेवा रंग चढ्यो भारियै । आये पुर साधु सीधो दियो जोई सोई लियो कियो मन माँझ प्रभु बुद्धि फेरि डारियै ॥सोयो निशिरोयो देखि सुपनो बेहाल अति प्रेत विकराल देह धरि कै पछारियै । अब न सुहाय कछू बहू पायँ परि गई नई रीति भई वाहि भक्ति लागी प्यारियै ॥ 

पूछ्यो हरि पायबे कौ मग जब देवी कही सही रामानन्द गुरु करि प्रभु पाइयै । लोग जानें बौरौ भयौ गयौ यह काशीपुरी फुरी मति अति आये जहाँ हरि गाइयै ॥ द्वार मैं न जान देत आज्ञा ईश लेत कही राज सों न हेत सुनि सबही लुटाइयै । कह्यौ कुवाँ गिरौ चले गिरन प्रसन्न हिये जिये सुख पायौ ल्याय दरस दिखाइयै ॥ 

 किये शिष्य कृपा करी धरी हरिभक्ति हृदै कही अब जावौ गृह सेवा साधु कीजिये । बितये बरस जब सरस टहल जानि संत सुखमानि आवैं घर मधि लीजियै ।। आये आज्ञा पाय धाम कीन्ही अभिराम रीति प्रीतिकौ न पारावार चीठी लिखि दीजिये । हूजिये कृपाल वही बात प्रतिपाल करौ चले जुग बीस जन संग मति रीझियै ॥ 

  पीपाजीकी रानी श्रीसीता सहचरीका श्रीरामानन्दजीकी शिष्या बनना

 आचार्य श्रीरामानन्दजी महाराज कबीरदास , रैदास आदि अपने चालीस शिष्य सेवकोंको साथ लेकर गागरौनगढ़के निकट पहुँचे । श्रीगुरुदेवके शुभागमनका समाचार पाते ही पीपाजी पालकी लेकर आये । आपने स्तुति करके गुरुदेवको तथा सभी साधुओंको अलग - अलग दण्डवत् प्रणाम किया । उत्साहपूर्वक बहुत सा घन ' मुहरें ' न्यौछावर करके , लुटा करके समस्त समाजको अपने राजभवनमें पधराया । श्रीस्वामीजीने पोपाजीकी भक्त भगवन्तमें दृढ़ भक्ति तथा सेवाकी सुन्दर रीति देखकर उनसे कहा- तुम्हारी इच्छा हो तो घरपर रहकर सेवा करो अथवा विरक्त होकर भजन करो , दोनों ही तुम्हारे लिये समान हैं । श्रीगुरुदेवमें तथा उनकी आज्ञामें विश्वास करके उनके श्रीचरणों में पड़कर पीपाजीने प्रार्थना की कि अपने चरणों में ही रखिये । श्रीपीपाजी जब घर छोड़कर श्रीस्वामीजीके साथ चलनेको तैयार हुए , तब उनकी सभी बीसों रानियाँ भी उनके साथ चलनेके लिये तैयार हो गयीं । तब श्रीपीपाजीने कहा- यदि तुम सबको मेरे साथ ही चलना है तो कमरीको फाड़कर उसकी अलफी पहन लो और मूल्यवान् वस्त्र तथा सभी गहने उतारकर फेंक दो । साधुवेष धारण करके चलो । ऐसा त्याग वे नहीं कर सकीं , सभी रोने लगीं । परंतु उनमेंसे जो सबसे छोटी रानी सीता सहचरीजी थीं , वे इसके लिये तैयार हो गयीं । उन्होंने अलफ़ी गलेमें डाल ली , सभी आभूषण उतार दिये , तब राजाने दूसरी आज्ञा दी कि अधोवस्त्र मात्र रखो , इस अलफीको भी उतारकर फेंक दो । सुनते ही सीता सहचरी अलफी उतारकर फेंकने लगीं । यह देखकर श्रीस्वामीजीको दया आ गयी । उन्होंने श्रीपीपाजीको आज्ञा दी कि इनको साथमें ही रखो । 

श्रीप्रियादासजी श्रीपीपाजीकी रानी श्रीसीता सहचरीजीके स्वामी श्रीरामानन्दजीकी शिष्या बनने और दोनोंके संन्यास ग्रहण करनेकी इस घटनाका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं


 कबीर रैदास आदि दास सब संग लिये आये पुरपास पीपा पालकी लै आयौ है । करी साष्टांग न्यारी न्यारी बिनै साधुनको धनको लुटाय सो समाज पधरायौ है ॥ जैसी कीन्हीं सेवा बहु मेवा नाना राग भोग बानीके न जोग भाग कापै जात गायौ है । जानी भक्ति रीति घर रहौ कै अतीत होहु करिकै प्रतीति गुरु पग लगि धायौ है ॥ 

 लागी संग रानी दस दोय कही मानी नहीं कष्टको बतावैं डरपावैं मन लावहीं । कामरीन फारि मधि मेखला पहिरि लेवो देवो डारि आभरन जो पै नहीं भावहीं ॥ काहू पै न होय दियो रोय भोय भक्ति आई छोटी नाम सीता गरें डारी न लजावहीं । यहू दूर डारौ करौ तनकौ उघारौ कियौ दया रामानन्द हियौ पीपा न सुहावहीं ॥ 

श्रीपीपाजी तथा उनकी रानीको श्रीकृष्णदर्शन होनेकी कथा श्रीस्वामीजीके अधिक आग्रह करने और शपथ दिलानेपर श्रीपीपाजी सीता सहचरीको अपने साथ ले चलनेके लिये तैयार हो गये । राजाको रोकनेके लिये रानियोंने एक ब्राह्मणको बहुत - सा धन देकर उसे प्रेरित किया , उसने कहा- मैं राजाको कदापि न जाने दूँगा । श्रीपीपाजीके समझानेपर भी उसने अपना हठ नहीं छोड़ा । ये भी रुकनेको नहीं तैयार हुए , तब उस ब्राह्मणने विष खा लिया और मर गया । तब श्रीस्वामीजीने उसे जीवित करके उसे और रानियोंको लौटा दिया । कालान्तरमें श्रीपीपाजी और श्रीसीता सहचरीजी सन्त समाजके साथ आनन्ददायिनी श्रीद्वारकापुरी पहुँचे । कुछ दिनोंतक सभी लोग वहाँ रहे । जब श्रीस्वामीजी अपने शिष्य - सेवकोंको लेकर वहाँसे काशीपुरीको चले , तब श्रीपीपाजीने प्रार्थना करके कुछ दिन द्वारकामें रहनेकी आज्ञा माँगी और आज्ञा पाकर वहीं रह गये । रहते - रहते इन्हें भगवान्‌के दिव्य द्वारकापुरीके दर्शनोंकी ऐसी उत्कट उत्कण्ठा हुई कि आप समुद्रमें कूद पड़े । उसी क्षण श्रीकृष्णने अपने कुछ सेवकोंको इन्हें लिवा लाने के लिये भेजा , वे इन्हें सादर लिवा लाये । श्रीपीपाजीने दिव्य द्वारकाका दर्शन किया । भगवान् श्रीकृष्ण बड़े प्रेमसे मिले और फिर सीता सहचरीसमेत श्रीपीपाजी सानन्द सात दिनतक वहाँ रहे । सात दिन बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने इन लोगोंको इस दिव्य द्वारकासे उस द्वारकाको जानेकी आज्ञा दी । परंतु ये वहाँसे जाना नहीं चाहते थे । तब श्रीश्यामसुन्दरने बड़े प्रेमसे कहा- मेरे जिस रूपके दर्शन तुमने किये हैं , उसीमें मनको दिये हुए तथा उसी रूपमाधुरीका पान किये हुए वहाँ जाकर भी उसे ही देखते रहोगे , अतः विरहव्यथा न व्यापेगी । यदि तुमलोग नहीं जाओगे तो संसारमें ' ऐसे भक्त डूब गये । यह जो कलंक लग गया है , कैसे मिटेगा ? इसके पश्चात् भगवान्‌के द्वारा दी गयी शंख - चक्रकी छापको तथा भगवान्‌की आज्ञा आपने स्वीकार की ।


 भगवान् स्वयं भक्तवर श्रीपीपा और सीता सहचरीको पहुँचाने के लिये चले । समुद्रके बाहरतक पहुँचाकर आप लौट आये । सपत्नीक श्रीपीपाजी जब समुद्रसे निकलकर तटपर आये तो लोगोंने एक विचित्र बात देखी कि आप दोनोंके वस्त्र सूखे हैं , परंतु हृदय प्रेमसे सराबोर है । जिन लोगोंने समुद्रमें कूदते हुए इन्हें देखा था , उन्होंने पहचान लिया और सभी लोग आकर आप दोनोंके पैरोंमें लिपट गये । श्रीपीपाजीने भगवान्की दी हुई शंख - चक्रकी छाप लोगोंके शरीरपर लगायी । द्वारकामें आपके दर्शनोंके लिये नित्य भारी भीड़ होने लगी , तब सीता सहचरीजीने श्रीपीपाजीको समझाकर कहा कि ' अब यहाँसे कहीं अन्यत्र चलो , यहाँ भजनमें बाधा हो रही है । ' दोनों द्वारकासे चल दिये । छठे मुकामपर पहुँचते ही इन्हें पठान मुसलमान मिल गये । उन्होंने सीता सहचरीको छीन लिया । उसी समय भगवान् दौड़कर आ गये और दुष्टोंको मारकर सीता सहचरीको ले आये । इस प्रकार इनकी रक्षा करके और दर्शन देकर प्रभुने इन्हें आनन्दित किया । श्रीपीपाजी - दम्पतीको दिव्य द्वारका और भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनकी

 इस घटनाका श्रीप्रियादासजी महाराज अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं


 जोपै यापै कृपा करी दीजै काहू संग करि मेरे नहीं रंग यामैं कही बार बार है । सौंह को दिवाय दई लई तब कर धरि चले ढरि विप्र एक छोड़े न विचार है ॥ खायौ विष ज्यायौ पुनि फेरिकै पठायौ सब आयौ यो समाज द्वारावती सुखसार है । रहे कोऊ दिन आज्ञा माँगी इन रहिबे की कूदे सिन्धु माँझ चाह उपजी अपार है ॥ 

आये आगे लैन आप दिये हैं पठाय जन देखि द्वारावती कृष्ण मिले बहु भाग्य कै । महल महल माँझ चहल पहल लखी रहे दिन सात सुख सबै कौन गाय कै ॥ आज्ञा दई जाइबे की जाइबौ न चाहँ दिये पिये वह रूप देखौ मोहीं को जु जाइ कै । भक्त बूड़ि गयो यह बड़ोई कलंक भयौ मेटौ तम अंक संक गही अकुलाइ कै ॥ 

चले पहुँचायबे को प्रीति के अधीन आप बिन जल मीन जैसे ऐसे फिरि आये हैं । देखि नई बात गात सूखे पट भीजे हिये लिये पहिचानि आनि पग लपटाये हैं । दई लै कै छाप पाप जगत के दूर करौ ढरौ कहूँ और कहि सीता समझाये हैं । छठेई मिलान बन मैं पठान भेंट भई लई छीनि तिया कियो चैन प्रभु धाये हैं ।। 

 पीपाजीद्वारा हिंसक सिंहको अहिंसक वैष्णव बनाना श्रीपीपाने श्रीसीता सहचरीसे कहा - देखो , यहाँ कैसे - कैसे संकट आते हैं , अत : अच्छा होगा कि अब भी तुम घरको चली जाओ । श्रीसीता सहचरीने उत्तर दिया - भगवन् ! हरि ही भयको हरनेवाले हैं , रक्षक हैं , वे ही रक्षा करेंगे । इसके उपरान्त दोनों उसी मार्गसे चले , जिसमें एक सिंह रहता था जो बहुतोंको मारकर खा चुका था , परंतु इनके दर्शनसे उसका अन्तःकरण पवित्र हो गया । वह विनीत भावसे इनके निकट बैठ गया । तब इन्होंने उसे शिष्य करके समझाया कि अब तुम वैष्णव हो गये , अतः किसीकी हिंसा न करना । इसके बाद वे दूसरे गाँवमें पहुँचे । वहाँ आपने शेषशायी भगवान्के दर्शन किये और दुकानदा न देनेपर सूखे बाँसोंको हरा करके एक हरा बाँस भगवान्‌को अर्पण किया । वहाँसे चलकर आप परम प्रेमी भक्त श्रीचीधरजीके यहाँ पहुँचे ।

 श्रीप्रियादासजीने श्रीपीपाजीद्वारा सिंहको वैष्णव बना लेनेकी इस घटनाका वर्णन इस प्रकार किया है

 अभू लगि जावो घर कैसे कैसे आवै डर बोली हरि जानिये न भाव पै न आयो है । लेत हौं परिच्छा मैं तो जानौं तेरो सिच्छा ऐपै सुनि दृढ़ बात कान अति सुख पायो है ॥ चले मग दूसरे सु तामें एक सिंह रहै आयो वास लेत शिष्य कियो समझायो है । आये और गाँव सेषसाई प्रभु नांव रहै करे बाँस हरे ढरे चीधर सुहायो है ॥ 

 श्रीचीधरदम्पतीकी सन्तनिष्ठा


 भक्त चीधरजी और उनकी धर्मपत्नीने देखा कि परम भागवत श्रीपीपाजी अपनी स्त्रीसमेत पधारे हैं तो वे परम प्रसन्न हुए परंतु घरमें खाने - पीनेका कुछ भी सामान नहीं था , क्योंकि इनकी वृत्ति अत्यन्त अपरिग्रही थी । श्रीचीधरजीकी स्त्रीने अपना एकमात्र वस्त्र दे दिया । श्रीचीधरजी उसे बेचकर सीधा - सामान ले आये और श्रीपीपाजीके सामने रखकर बोले - ' महाराज ! रसोई कीजिये और भगवान्‌का भोग लगाइये । ' वस्त्र बिक जानेके कारण भगतिनका शरीर नग्न हो गया था , अतः श्रीचीधरने उन्हें कोठरीमें छिपा दिया । दी , भगवान्का भोग लग गया । श्रीपीपाजीने श्रीचीधर भक्तसे कहा श्रीसीता सहचरीजीने रसोई तैयार भगतिनको बुला लाइये , आप और हम सब एक साथ ही बैठकर प्रसाद पायेंगे । श्रीचीधरजीने कहा आपलोग प्रसाद पायें , उसे सीथ- प्रसाद प्रिय है । वह बादमें पा लेगी । तब श्रीपीपाजीने सीता सहचरीसे कहा- तुम भीतर जाकर उन्हें बुला लाओ और उन्हें भी साथ ही प्रसाद पवाओ । तब वे भीतर गयीं तो उन्होंने जाकर देखा कि वह नग्न बैठी हैं । सीता सहचरीजीने जब भगतिनको नग्न देखा तो पूछा- कहिये , क्या बात है , आपका शरीर उघारा क्यों है ? तब श्रीचीधरजीकी स्त्रीने कहा- हमलोगोंको सन्त - सेवा हृदयसे अत्यन्त प्रिय लगती है । अतः हमारा समय इसी प्रकार बीतता है । जब सन्त भगवान् पधारते हैं , तब उनका दर्शन - सत्संग एवं स्वागत करके हमें अपार सुख होता है । उस परमानन्दके सामने यह नश्वर शरीर ढका है अथवा उघारा है , इसकी क्या चर्चा की जाय ? सीता सहचरीजीने जब ये बातें सुनीं , तो सब रहस्य उनकी समझमें आ गया । इसके उपरान्त सीता सहचरीजीने अपनी धोतीमेंसे आधी फाड़कर उन्हें दिया । उसे उन्होंने पहन लिया , तब उनका हाथ पकड़कर उन्हें घरसे वहाँ लिवा लायीं । सबोंने एक साथ बैठकर प्रसाद पाया । सन्त सेवाके प्रति निष्ठाकी इस अनोखी घटनाको सीता सहचरीने बादमें शयन करते समय पीपाजीको सुनाया । 

श्रीचीधरजी एवं उनकी पत्नीकी इस अद्भुत सन्त - सेवाका वर्णन श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार किया है


 दोऊ तिया पति देखें आये भागवत ऐपै घर की कुगति रति साँची लै दिखाई है । लहँगा उतारि बेचि दियौ ताकौ सीधौ लियौ करो अजू पाक बधू कोठीमें दुराई है ॥ करी लै रसोई सोई भोग लगि बैठे कह्यो आवौ मिलि दोई कही पाछे सीथ भाई है । वाहू को बुलावौ ल्यावौ आनिकै जिमावौ तब सीता गई ठौर जाइ नगन लखाई है ॥ 

 पूछें कहौ बात ए उघारे क्यों हैं गात कही ऐसे ही बिहात साधु सेवा मन भाई है । आवैं जब सन्त सुख होत है अनन्त तन ढँक्यो कै उघारौ कहा चरचा चलाई है ॥ जानि गई रीति प्रीति देखी एक इनही में हमहूँ कहावैं ऐ पै छटा हूँ न पाई है । दियौ पट आधौ फारि गहि कै निकारि लई भई सुखसैल पाछे पीपा सों सुनाई है ।

श्री पीपा जी महाराज का चरित्र विस्तृत है । इसलिए हम बाकी चरित्र को दुसरे भाग मे प्रकाशित कर रहा हूं।  

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हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL Mishra 

Sanatan vedic dharma karma 

Bhupalmishra35620@gmail.com 



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