Ramdas ji रामदास जी का अनुपम चरित

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                 भक्त श्री रामदास जी महाराज 



हिंदु धर्म मे जितने भक्त उतने ही भगवान।  अर्थात भगवान का प्रमुख अवतार तो चौबीस ही है। लेकिन अपने प्यारे भक्त के लिए भी वो अवतरित होते ही रहते है ।भारतवर्ष के भूमि पर कभी भी संतो की कमी नही होती है । और भगवान भी अवतरित होते ही रहते है ।

 भक्त रामदास द्वारकासे सात कोसकी दूरीपर डाकोर नामक गाँवमें रहते थे । ' रणछोड़ ' भगवान्के मन्दिरमें प्रति एकादशीको जागरण , कीर्तन आदि उत्सवका आयोजन होता था , उसमें वे नियमपूर्वक सम्मिलित होते थे और भगवान्के दर्शनसे अपने तन , मन और बुद्धिको पवित्र करते थे । भगवान् ' रणछोड़ ' ने एक बार उनके सामने प्रत्यक्ष प्रकट होकर कहा - ' तुम वृद्ध हो चले हो , तुम्हें सात कोस आने - जानेमें जो कष्ट होता है , वह मेरे लिये नितान्त असह्य है । ' भक्त रामदास तो भगवान्की रूप- माधुरीसे छकनेमें इतने तल्लीन हो गये कि उन्हें बाह्यज्ञान कुछ रहा ही नहीं , आने - जानेके प्रश्नने उनके मस्तिष्कको कुछ चिन्तित ही नहीं किया । भगवान्ने कृपापूर्वक उन्हें दर्शन दिया , इस बातको सोच - सोचकर वे प्रेम - विहल हो रहे थे । भगवान्के अन्तर्धान होते ही उनके वियोगमें प्राण छटपटा गये , अंग - अंग सिहरने लगा । अब तो उनका निश्चय और भी दृढ़ हो गया , वे समस्त सुखोंको तिलांजलि देकर दूने उत्साहसे जागरण महोत्सवमें आने लगे । वे किसी भी मूल्यपर जागरणका आनन्द छोड़नेके लिये अपने आपको समर्थ न पा सके ।


 भगवान्‌से भक्त रामदासका एकादशी - जागरणमें आना और न सहा गया , भक्तको सुख और आनन्ददेने के लिये उन्होंने रामदाससे डाकोर चलने का निश्चय प्रकट किया। भगवान तो सच्ची निष्ठ और प्प्रेम भूखे होते हैं । उन्होंने रामदासको गाड़ी लानेको सम्मति दी और कहा कि मेरी विग्रह को अखकार मे भर उसमें  लिटा देना और यथाशीघ्र डाकोर पहुंचाने का प्रयास करना । ' दूसरी एकादशी के  जागरण अवसर रामदास द्वारकामे गाड़ी ले गये , उनको वृद्धावस्था किसीने उनपर संदेह नहीं किया । द्वादशीकी रात आधी बात चुकी थी । द्वारकावासी और मन्दिर के पुजारी तथा अन्य सेवक आदि नीद की गहरी और गीठी लहरों में बह रहे थे । साथ का सारा वातावरण नीरव और शान्त था । रामदास अपने फूले नहीं समाते थे , भगवान्के आतिथ्य का आनन्द सोच सोचकर वे प्रतिक्षण कुछ और से और होते जा रहे थे । मन्दिरका अचानक खुल गया । वे मन्दिर पहुँच गये । थोड़े ही परिश्रम से भगवान् उनकी गोदमें आ गये , भगवान् प्रसन्नतापूर्वक अपने चिन्मय मादक स्पर्शसे भक्तकी जन्म जन्मकी तपस्या सफल कर दी । गाड़ी द्वारका से बहुत दूर निकल गयी। रामदास शुम झूमकर कीर्तन करते थे और भगवान भक्तके संरक्षण में सात कोस की यात्रा पूरी कर रहे थे । 


सबेरा होते ही लोगोंने रामदासका पीछा किया । भगवान् भास्करकी सुनहली किरणे पूर्वदिशा के अंचलों विहार करनेवाली ही थी कि रामदासने देखा कि कुछ लोग पीछा कर रहे हैं । उनके मस्तकपर पसीने के  कण बिखर गये , वे किसी अनहोनी और भीषण घटनासे रह रहकर आशंकित हो उठते थे । कभी प्रभुका श्रीविग्रह प्रेमभरी दृष्टि से देख लेते तो कभी गाड़ीको तेजी से आगे बढ़ा देते । उन्हें पूरा पूरा विश्वास था कि प्रभु जो कुछ भी करेंगे , उसीमें मेरा परम कल्याण है । पीछा करनेवाले थोड़ी ही दूर रह गये थे , पर भक्तने भगवान्को जगाना उचित नहीं समझा , उन्हें तो विश्वास था कि भगवान् गाड़ीपर लेटते ही सो गये । उन्होंने सोचा कि पीछा करनेवाले मुझसे भगवान्‌को छीन लेंगे और प्रभु नोंदका सुख लेते द्वारका मन्दिरमें प्रवेश करेंगे : इससे अधिक तो कुछ होगा नहीं । पर भगवान्की लीला शक्ति तो जाग ही रही थी । भक्तभयहारी रासबिहारीने कहा- ' तुम मुझे सामने की बावलीमें छिपा दो और जब पीछा करनेवाले चले जायें , तब गाड़ीमें रखकर डाकोर ले चलना । ' रामदासने उनकी आज्ञाका पालन किया पीछा करनेवाले पुजारी आदि आ पहुँचे , बिना कुछ पूछ - ताँक किये ही उन्होंने रामदासको मारना आरम्भ किया । भगवान्‌की लीला शक्तिने भक्त रामदास को दृढ़ निष्ठा और धैर्य परीक्षाकी महिमा प्रकट करने के लिये दुष्टों को अपनी मनमानी करने दी पर उन्हें दण्डके ही माध्यम से भक्तके शरीरका स्पर्श मिल चुका था , अतः उनका विवेक जाग उठा । गाड़ी में भगवान्का श्रीविग्रह न पाकर उनके पश्चातापका पारावार उमड़ आया , उन्होंने महापापसे भी भीषण भक्तापराध कर डाला था । उन्होंने देखा कि बावलीका पानी किसीके खूनसे लाल हो गया है । सत्संगका प्रभाव तो मनपर था ही , भगवान्की लीला - शक्तिने अपना काम किया , वे प्रभुका विग्रह बावलीसे बाहर निकालकर अपने कियेपर पछताने लगे । 


भगवान्ने दर्शन दिया , भक्त रामदास प्रभुके घायल शरीरको देखकर काँप उठे । मेरे कारण उन्हें इतना कष्ट सहना पड़ा । उनका हृदय हाहाकार कर उठा । भगवान्ने कहा - ' मेरा भक्त मुझे मेरी आज्ञासे ले जा रहा है । तुमलोगोंने जो मेरे भक्तको मारा है , उस चोटको मैंने अपने शरीरपर ले लिया है , इसीसे मेरे शरीरसे खून बह रहा है । अब मैं तुम्हारे सम्पर्क में नहीं रहना चाहता । मेरी दूसरी प्रतिमा , जो अमुक्त स्थानपर है , मन्दिरमें स्थापितकर भक्ति और प्रेमसे अपना अन्तःकरण पवित्र करो ; इस महान् अपराधका यही प्रायश्चित है ।अपनी आजीविका के लिये मेरी इस मूर्तिके बाराबर सोना ले लो । ' पुजारी लोग लोभवश राजी हो गये और बोले - ' तौल दीजिये ! ' भगवान्ने रामदासको आज्ञा दी- ' मेरे तौलके बराबर इन्हें सोना दे दो । ' भक्त अपनी दरिद्रता और असमर्थतापर काँप उठे । उनको स्त्रीके कान की बाली पलङे में रखी गयी , पलड़ा भारी हो गया , प्रतिमा उसकी तौलमें हलकी हो गई। गयी । पुजारी तथा अभक्त दुष्ट अपना - सा मुँह लेकर नौ - दो - ग्यारह हो गये । भगवान्ने भक्तकी इज्जत रख ली । भगवान् ' रणछोड़ ' उसी दिनसे ' आयुधछत ' की उपाधिसे विभूषित हुए । अभीतक उनके घावपर पट्टी बाँधी जाती है । भक्तवर रामदासकी भक्तिकी महिमाका बखान तो भगवान् ' रणछोड़ ' की लीला - शक्ति ही कर सकती है । धन्य है भक्त रामदास ! 


भक्त रामदासके प्रति भगवान्‌के इस अद्भुत प्रेमका श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार वर्णन किया है -


द्वारिका के ढिग ही डाकौर एक गाँव रहे रहें रामदास भक्त भक्ति याको प्यारियै । जागरन एकादशी करें रनछोरजू के भयौ तन वृद्ध आज्ञा दई नहीं धारियै ॥ बोले भरि भाय तेरौ आयबौ सह्यौ न जाय चलौं घर धाय तेरे ल्यावो गाड़ी भारियै । खिरकी जु मन्दिर के पाछे तहाँ ठाढ़ी करौ भरौ अँकवारी मोकों बेग ही पधारियै ॥ करी वाही भाँति आयौ जागरन गाड़ी चढ़ि जानी सब वृद्ध भयो थकी पाँव गति है । द्वादशी की आधी रात लैकै चले मोद गात भूषण उतारि धरे जाकी साँची रति है । मन्दिर उघारि देखें परो है उजारि तहाँ दौरे पाछे जानि देखि कही कौन मति है । बापी पधराय हाँकि जाय सुखपाय रह्यो गह्यो चल्यो जात आनि मायौ घाव अति है ॥ देखे चहुँ दिशि गाड़ी कहुँ पै न पाये हरि करि पछितावो कहैं भक्त कै लगाई है । बोलि उठ्यो एक यहि ओर यह गयो हुतो जाय देखें बावरी को लोहू लपटाई है ॥ दास कों जु डारी चोट ओट लई अंग मैं ही नहीं मैं तो जाऊँ बिजै मूरति बताई है । मेरी सम सोनो लेहु , कही जन तोलि देहु , मेरे कहाँ बोल्यो बारी तिया के जताई है ॥ लगे जब तौलिबे कों बारी पाछे डारि दई नई गति भई पल उठै नहीं बारी कौ । तब तो खिसाने भये सबै उठि घर गये कैसैं सुख पावैं फिरयो मत ही मुरारी कौ ॥ घर ही विराजे आप कह्यौ भक्तिकौ प्रताप जाप करै जो पै फुरें रूप लालप्यारी कौ । बलि बन्ध नाम प्रभु बाँधे बलि भयो तब आयुधको छत सुनि आये चोट मारी कौ ॥ 


हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL Mishra 

Sanatan vedic dharma 

Bhupalmishra35620@gmail.com 



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