Sant Sri Madhav dasji _संत श्री माधव दास जी महाराज

0

 संत श्री माधवदास 



पहिले बेद बिभाग कथित पूरान अष्टदस । भारत आदि भागवत मथित उद्धारयो हरि जस ॥ अब सोधे सब ग्रंथ अर्थ भाषा बिस्तारयो । लीला जै जै जैति गाय भव पार उतारयो ॥ जगनाथ इष्ट बैराग्य सिंव करुना रस भीज्यो हियो । बिनै ब्यास मनो प्रगट है जग को हित माधो कियो ॥ 

 विनयकी मूर्ति भगवान् वेदव्यासजीने ही मानो


श्रीमाधवदासजीके रूपमें प्रकट होकर जगत्का कल्याण किया । श्रीवेदव्यासजीने पहले [ द्वापरमें ] वेदका विभाजन किया तथा अठारह पुराणोंका गान किया । फिर महाभारतकी रचना की । चारों वेद सत्रह पुराण एवं महाभारतका मन्थन करके नवनीतरूपमें श्रीहरिसुयश प्रधान श्रीमद्भागवत नामक अठारहवें पुराणकी रचना की । अब श्रीमाधवदासजीके रूपमें प्रकट होकर पुनः आपने सब ग्रन्थोंक तात्पर्यको खोज - खोजकर उनका अर्थ बोलचालकी भाषामें विस्तारसे वर्णन किया । ' जै जै ' शब्दसंयुक्त भगवान्‌की लीलाका गानकर जगत्‌में प्रचुर प्रचार करके असंख्य जीवोंको संसार - सागरसे पार किया । इनके इष्ट श्रीजगन्नाथभगवान् थे , ये वैराग्यकी सीमा थे , इनका हृदय करुणारससे सदा सराबोर रहता था ॥ 

श्रीमाधवदासजीके विषय में विशेष विवरण इस प्रकार है

श्रीमाधवदासजी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे । गृहस्थ आश्रम में आपने अच्छी धन - सम्पत्ति कमायी । आप बड़े ही विद्वान् तथा धार्मिक भक्त थे । जब आपकी धर्मपत्नी स्वर्गलोकको सिधारी , तब आपके हृदय में संसारसे सहसा वैराग्य हो गया । संसारको निस्सार समझकर आपने घर छोड़ जगन्नाथपुरीका रास्ता पकड़ा । वहाँ पहुँचकर आप समुद्र के किनारे एकान्त स्थान में पड़े रहे और अपनेको भगवद्ध्यानमें तल्लीन कर दिया । आप ऐसे ध्यानमग्न हुए कि आपको अन्न - जलकी भी सुध न रही । प्रेमकी यही दशा है । इस प्रकार जब बिना अन्न - जल आपको कई दिन बीत गये , तब दयालु जगनाथजीको आपका इस प्रकार भूखे रहना न सहा गया । तुरंत सुभद्राजीको आज्ञा दी कि आप स्वयं उत्तम - से - उत्तम भोग सुवर्ण थालमें रखकर मेरे भक्त माधवके पास पहुँचा आओ सुभद्राजी प्रभुकी आज्ञा पाकर सुवर्ण थाल सजाकर माधवदासजीके पास पहुंचीं । आपने देखा कि माधव तो ध्यान में ऐसा मग्न है कि उनके आनेका भी कुछ ध्यान नहीं करता । अपनी आँखें मूंदे प्रभुकी परम मनोहर मूर्तिका ध्यान कर रहा है , अतएव आप भी ध्यानमें विक्षेप करना उचित न समझ थाल रखकर चली आयीं । जब माधवदासजीका ध्यान समाप्त हुआ , तब वे सुवर्णका थाल देखकर भगवत्कृपाका अनुभव करते हुए आनन्दाश्रु बहाने लगे । भोग लगाया , प्रसाद पा थालको एक ओर रख दिया , फिर ध्यान मग्न हो गये । उधर जब भगवान्के पट खुले , तब पुजारियोंने सोनेका एक थाल न देख बड़ा शोरगुल मचाया । पुरीभरमें तलाशी होने लगी । ढूँढ़ते - ढूँढ़ते थाल माधवदासजीके पास पड़ा पाया गया । बस फिर क्या था , माधवदासजीको चोर समझकर उनपर चाबुक पड़ने लगे । माधवदासजीने मुसकराते हुए सब चोटें सह लीं । रात्रिमें पुजारियोंको भयंकर स्वप्न दिखलायी दिया । भगवान्ने स्वप्नमें कहा- ' मैंने माधवकी चोट अपने ऊपर ले ली , अब तुम्हारा सत्यानाश कर दूँगा ; नहीं तो चरणोंपर पड़कर अपने अपराध क्षमा करवा लो । ' बेचारे पण्डा दौड़ते हुए माधवदासजीके पास पहुँचे और उनके चरणोंपर जा गिरे । माधवदासजीने तुरंत क्षमा प्रदानकर उन्हें निर्भय किया । भक्तोंकी दयालुता स्वाभाविक है । 

भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है

 माधौदास द्विज निज तिया तन त्याग कियौ लियौ इन जानि जग ऐसोई व्यौहार है । सुत की बढ़नि जोग लिये चित चाहत हो भई यह और लै दिखाई करतार है । ताते तजि दियौ गेह येई सब पालै देह करै अभिमान सोई जानिये गँवार है । आए नीलगिरिधाम रहे गिरि सिन्धुतीर अति मतिधीर भूख प्यास न विचार है ।।

 भए दिन तीन ए तो भूख के अधीन रहें हरिलीन प्रभु शोच परयौ भारियै । दियो सैन भोग आप लक्ष्मीजू लै पधारीं हाटक की थारी झन झन पाँव धारियै । बैठे हैं कुटी में पीठ दिये हिये रूप रैंगे बीजुरी सी कौंधि गई नीके न निहारियै । देखि सो प्रसाद बड़ौ मन अहलाद भयौ लयौ भाग मानि पात्र धरधोई विचारियै ॥ 

  खोलैं जो किवार थार देखियै न सोच परयौ कयौ लै जतन ढूंढ़ि वाही ठौर पायौ है । ल्याये बाँधि मारी बेंत धारी जगन्नाथ देव भेव जब जान्यौ पीठ चिह्न दरसायौ है ॥ कही पुनि आप मैं ही दियौ जब लियौ याने माने अपराध पाँव गहि कै छिमायौ है । भई यों प्रसिद्ध बात कीरति न मात कहूँ सुनि कै लजात साधु सील यह गायौ है । 

 अब माधवदासजीके प्रेमकी दशा ऐसी हो गयी कि जब कभी आप भगवदर्शनके लिये मन्दिर में जाते , तब प्रभुकी मूर्तिको ही एकटक देखते रह जाते । दर्शन समाप्त होनेपर आप तल्लीन अवस्थामें वहीं खड़े खड़े पुजारियोंके देखते - देखते अदृश्य हो जाते । एक बार आप रात्रिमें मन्दिरमें ही रुके रहे । वहाँ जब रात्रि में आपको जाड़ा लगने लगा तो स्वयं जगन्नाथजीने अपनी रजाई ओढ़ा दी ।

 एक बार माधवदासजीको अतिसारका रोग हो गया । आप समुद्रके किनारे दूर जा पड़े । वहाँ इतने दुर्बल हो गये कि उठ - बैठ नहीं सकते थे ऐसी दशामें जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर आपकी शुश्रूषा करने लगे । जब माधवदासजीको कुछ होश आया , तब उन्होंने तुरंत पहचान लिया कि हो - न - हो ये प्रभु ही हैं । यह समझ झट उनके चरण पकड़ लिये और विनीत भावसे कहने लगे - ' नाथ मुझ जैसे अधमके लिये क्यों आपने इतना कष्ट उठाया ? फिर प्रभो ! आप तो सर्वशक्तिमान् हैं । अपनी शक्तिसे ही मेरे दुःख क्यों न हर लिये , वृथा इतना परिश्रम क्यों किया ? ' भगवान् कहने लगे- ' माधव ! मुझसे भक्तोंका कष्ट नहीं सहा जाता , उनकी सेवाके योग्य में अपने सिवा किसीको नहीं समझता । इसी कारण तुम्हारी सेवा मैंने स्वयं की । तुम जानते हो कि प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है - यह मेरा ही नियम है , इसे मैं क्यों तोड़ें ? इसलिये केवल सेवा करके प्रारब्ध - भोग भक्तोंसे करवाता हूँ और इसकी सत्यता संसारको दिखलाता हूँ । ' भगवान् यह कहकर अन्तर्धान हो गये । इधर माधवदासजीके भी सब दुःख दूर हो गये ।


 श्रीमाधवदासजीके प्रति भगवान् जगनाधस्वामीकी इन वात्सल्यभरी घटनाओंका श्रीप्रियादासजी महाराजने अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है

 देखत सरूप सुधि तन की विसरि जात रहि जात मन्दिर में जानै नहीं कोई है । लग्यो सीत गात सुनो बात प्रभु काँपि उठे दई सकलात आनि प्रीति हिये भोई है ॥ लागे जब वेग - वेग जाय परे सिन्धु तीर चाहँ जब नीर लिये ठाढ़े देह धोई है । करिकै विचारि औ निहारि कही ' जानों मैं तो देत हौ अपार दुख इंशता लै खोई है ' ॥ 

 कहा करौं अहो ! मोपै रहो नहीं जात नेकु मिटौ विधा गात मोक विधा वह भारी है । रहे भोग शेष और तन में प्रवेश करै ताते नहीं दूर करौं ईशता लें टारी है ॥ बहू बात साँच याकी गाँस एक और सुनौ साधु को न हँसै कोऊ यह मैं विचारी है । देखत ही देखत में पीड़ा सो बिलाय गई नई नई कथा कहि भक्ति विसतारी है ॥


 श्रीमाधवदासजी भिक्षा माँगकर भोजन करते थे , एक दिन भिक्षाटन करते हुए ये एक गृहस्थके घरपर गये और भिक्षाके लिये आवाज लगायी तो घरकी मालकिनने खीझकर चूल्हा पोतनेका कपड़ा इनकी ओर फेंक दिया । इन्होंने उस कपड़ेको धोकर साफ किया , उसकी बत्तियाँ बनायीं और घीमें डुबोकर भगवान्के समक्ष दीपक जलाया । इससे उस महिलाका अज्ञानान्धकार नष्ट हो गया । 

श्रीप्रियादासजी महाराजने इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया

 है कीरति अभंग देखि भिक्षाको अरम्भ कियौ दियौ काहू बाई पोता खीझत चलायकै । देवौ गुण लियौ नीके जल सों प्रछाल करि करी दिव्य बाती दई दिये में बरायकै ॥ मन्दिर उँजारी भयौ हियेको अन्ध्यारौ गयौ गये फेरि देखन कौं परी पाँय आयकै । ऐसे हैं दयाल दुःख देत मैं निहाल करें करें ले जे सेवा ताकौ सबै कौन गायकै ॥ 


 एक बार एक बड़े शास्त्री पण्डित शास्त्रार्थद्वारा दिग्विजय करते हुए माधवजीके पाण्डित्यकी चर्चा सुनकर शास्त्रार्थ करने जगन्नाथपुरी आये और माधवदासजीसे शास्त्रार्थ करनेका हठ करने लगे । भक्तोंको शास्त्रार्थ निरर्थक प्रतीत होता है । माधवदासजीने बहुत मना किया , पर पण्डित भला कैसे मानते ? अन्त में माधवदासजीने एक पत्रपर यह लिखकर हस्ताक्षर कर दिया , ' माधव हारा , पण्डितजी जीते । ' पण्डितजी इस विजयपर फूले न समाये । तुरंत काशीको चल दिये । वहाँ पण्डितोंकी सभा करके वे अपनी विजयका वर्णन करने लगे और वह प्रमाणपत्र लोगोंको दिखाने लगे । पण्डितोंने देखा तो उसपर यह लिखा पाया , ' पण्डितजी हारे , माधव जीता । ' अब तो पण्डितजी क्रोधके मारे आगबबूला हो गये । उलटे पैर जगन्नाथपुरी पहुँचे । 

वहाँ माधवदासजीको जी खोलकर गालियाँ सुनार्थी और कहा कि ' शास्त्रार्थमें जो हारे , वही काला मुँह करके गदहेपर चढ़ नगरभरमें घूमे । ' माधवदासजीने बहुत समझाया , पर वे क्यों मानने लगे । अवकाश पाकर भगवान् माधवदासजीका रूप बना पण्डितजीसे शास्त्रार्थ करने पहुँचे और भरी सभामें उन्हें खूब छकाया । अन्तमें उनकी शर्तक अनुसार उनका मुँह काला करके गदहेपर चढ़ा , सौ - दो सौ बालकोंको ले धूल उड़ाते नगरमें सैर की माधवदासजीने जब यह हाल सुना , तब भागे और भगवान्के चरण पकड़कर उनसे पण्डितजीके अपराधोंकी क्षमा चाही । भगवान् तुरंत अन्तर्धान हो गये । माधवदासजीने पण्डितजीको गदहेसे उतारकर क्षमा माँगी , उनका रोष दूर किया । धन्य है , भक्तोंकी सहिष्णुता और दयालुता !

 श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते हैं


 पण्डित प्रबल दिग बिजै करि आयौ आय वचन सुनायौ जू ! विचार मोसों कीजियै । दई लिखि हारि काशी जायकै निहारि पत्र भयो अति ख्वार लिखी जीति वाकी खीजियै ॥ फेरि मिलि माधै जू कौं वैसे ही हरायौ एक खर कौ मँगायौ कही चढ़ौ तब धीजिये । बोल्यौ जूती बाँधौ कान गयौ सुनि न्हान आन जगन्नाथ जीते लै चढ़ायौ वाको रीझियै ॥ 

 एक बार माधवदासजी व्रजयात्राको जा रहे थे । मार्गमें एक बाई आपको भोजन कराने ले गयी । बाईने बड़े प्रेमसे आपको भोजन करवाया । इधर आपके साथ श्यामसुन्दरजी बगलमें बैठ भोजन करने लगे । बाई भगवान्का सुकुमार रूप देखकर रोने लगी और माधवजीसे पूछा , यह साँवला - सलोना किसका बालक आप बहका लाये हैं ? इसके बिना इसकी माँ कैसे जीवित रहेगी ? माधवदासजीने गर्दन फिराकर देखा तो श्यामसुन्दरजी भोजन कर रहे हैं । बस , आप सुध - बुध भूल गये और बाईजीकी प्रशंसा करके उनकी परिक्रमा करने लगे । उसके भक्तिभाव और सौभाग्यकी सराहना करके वहाँसे विदा हुए । 

श्रीप्रियादासजीने भगवान् श्यामसुन्दरकी इस कौतुकी लीलाका एक पदमें इस प्रकार वर्णन किया है 


ब्रज ही की लीला सब गावैं नीलाचल माँझ मन भई चाह जाइ नैननि निहारियै । चले वृन्दावन मग लग एक गाँव जहाँ बाई भक्त भोजन को ल्याई चाव भारियै ॥ बैठे ये प्रसाद लेत , लेत दृग भरि अहौ ! कहौ कहा बात दुख हिये को उघारियै । साँवरो कुँवर यह कौनको भुराय ल्याये ? माय कैसे जीवै ? सुनि मति लै बिसारियै  ॥

 श्रीमाधवदासजी वहाँसे आगे चले और एक दूसरे गाँवमें पहुँचे , जहाँपर एक वैश्य भक्त रहता था । परंतु संयोगकी बात , वह भक्त किसी औरके घर गया था । घरमें उसकी परम भागवती पत्नी थी । उसने आकर श्रीमाधवदासजीके चरणों में प्रणाम किया और प्रसाद पानेका अनुरोध किया । उस दिन उसके यहाँ एक महन्तजी आये हुए थे , उनका आसन मकानकी ऊपरी मंजिलपर था । भक्तपत्नीने ऊपर महन्तजीसे जाकर कहा कि एक सन्त और आ गये हैं । महन्तजीने कहा कि यहाँ तो किसीकी गुंजाइश नहीं है , तब तो वह घबड़ायी हुई नीचे आयी और श्रीमाधवदासजीसे बोली कि मैं सीधा - सामान दिये देती हूँ , आप कृपा करके रसोई बना लीजिये । इन्होंने कहा कि यदि तुम्हें कुछ खिलानेका ही आग्रह है तो जो भी बना - बनाया सामान हो , वही लाओ । तब उस भक्ताने इन्हें खूब अच्छी तरहसे औटाया हुआ दूध पिलाया । इस प्रकार उसकी अभिलाषा पूर्ण हुई । चलते समय इन्होंने कहा कि भक्तजी आयें तो कह देना कि ' जगन्नाथी माधवदासजी ' आये थे ।

 भक्तपत्नीको अपना परिचय देकर श्रीमाधवदासजी वहाँसे उठकर चल दिये । इनके जानेके थोड़ी ही देर बाद वह महाजन भक्त घरपर आया , तब उसकी पत्नीने श्रीमाधवदासजीका नाम सुनाया । यह सुन्दर एवं शुभ समाचार सुनते ही महाजन भक्त दौड़ पड़े । उनके साथ ही वे महन्तजी भी दौड़े । दोनों ही जाकर श्रीमाधवदासजीके चरणोंमें लिपट गये । श्रीमाधवदासजी भी उनसे बड़े सुखपूर्वक मिले । श्रीमाधवदासजीने भक्त दम्पतीकी सन्तनिष्ठाकी बड़ी बड़ाई की । महन्तजीने अत्यन्त दीन होकर कहा कि मैंने आपका अनन्त अपराध किया है , वह कैसे दूर होगा ? श्रीमाधवदासजीने कहा कि जबतक जीओ , तबतक सन्तोंकी सीथ प्रसादी सेवन करो अपराध छूटनेका यही अमोघ उपाय समझो घर चलनेका आग्रह करनेपर श्रीमाधवदासजीने महाजन भक्तसे कहा कि लौटते समय पुनः मिलूँगा और श्रीवृन्दावन चले आये ।

 श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं 

चले और गाँव जहाँ महाजन भक्त रहे गहे मन माँझ आगे विनती हू करी है । गये वाके घर वह गयौ काहू और घर भाय भरी तिया आनि पांयन में परी है ॥ ऊपर महंत कही ' अजू एक संत आये ' ' इहाँ तौ समाई नाहिं ' आई अरबरी है । कीजिये रसोई ' जोई सिद्ध सोई ल्यावो ' दूध नीके कैं पिवायो नाम माधौ आस भरी है ।। 

 गये उठि पाछे भक्त आयौ सो सुनायौ नाम सुनि अभिराम दौरे संग ही महन्त है । लिये जाय पाँय लपटाय सुख पाय मिले झिले घर माँझ तिया धन्य तोसों कन्त है । सन्त पति बोले मैं अनन्त अपराध किये जिये अब कही सेवो सीत मानि जन्त है । आवत मिलाप होय यही राखौ बात गोय आये वृन्दावन जहाँ सदाई बसन्त है ॥ 

 श्रीमाधवदासजी श्रीवृन्दावनकी शोभा देख देखकर मनमें परमानन्दमें डूब गये । पुनः जब आप श्रीबांके बिहारीजीके दर्शनार्थ गये तो वहाँ आपको चने मिले । इन्होंने चनोंको ही ले जाकर श्रीयमुनाजीके पुलिनपर श्रीठाकुरजीको भोग लगाया और स्वयं भी चना प्रसाद पाया । इधर जब स्वामी श्रीहरिदासजी श्रीबाँके बिहारीजीके भोग आरोगनेकी भावना करने लगे तो ध्यानमें देखा कि श्रीठाकुरजी भोग नहीं आरोग रहे हैं । तब श्रीस्वामीजीने पूछा कि ' जै , जै ' आज आप भोग क्यों नहीं आरोग रहे हैं ? तब श्रीबिहारीजीने कहा कि आज मुझे पानेकी रुचि नहीं है , श्रीमाधवदासजीने चने खिला दिये हैं । श्रीस्वामीजीने पूछा- वे कहाँ हैं ? तब श्रीबिहारीजीने उन्हें बताया कि वे इस समय श्रीयमुनाजीके किनारे हैं । तब श्रीस्वामीजीकी आज्ञासे शिष्य सेवकगण श्रीमाधवदासजीको खोज लाये । पूछनेपर श्रीमाधवदासजीने कहा कि आपके ठाकुर ग्वारिया होंगे तो पचा लेंगे और यदि महली ठाकुर होंगे तो नहीं पचा पायेंगे । इस घटनाका श्रीप्रियादासजी महाराजने अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है देखि देखि वृन्दावन मन में मगन भए गए श्रीबिहारीजू के चना तहाँ पाये हैं । कहि रह्यो द्वारपाल नेकु में प्रसाद लाल यमुना रसाल तट भोग सो लगाये हैं ॥ नाना विधि पाक धेरै स्वामी आप ध्यान करें बोले हरि भावँ नाहिं वेई लै खवाये हैं । पूछ्यो सो जनायौ ढूंढि ल्यायौ आगे गायौ सब तुम तौ उदास हाँ सरस समझाये हैं ।। 

 श्रीमाधवदासजी व्रजके तीर्थोंका दर्शन करने गये । भाण्डीरवट नामक तीर्थमें पहुँचे । वहाँ ' खेमदास ' नामके एक वैरागी रहते थे । वे रात्रिमें श्रीमाधवदासजीसे छिपाकर खीर खाने लगे तो इन्होंने उन्हें शिक्षा देनेके लिये चमत्कारपूर्वक खीरमें कीड़े दिखाये फिर उपदेश भी दिया । भगवान्‌की लीला - कथा सुननेके लिये । हरियानेके एक गाँवमें जाकर कुछ दिन रहे । वहाँ एक सन्तके आश्रममें गोबर पाथनेकी सेवा करते थे । ( परिचय हो जानेपर ) पुनः ये श्रीजगन्नाथपुरीको लौट चले । मार्गमें इनकी जन्मभूमिका गाँव पड़ा । लोगों मुखसे अपनी माता एवं पुत्रका कुशल समाचार सुनकर घर आये । फिर माताकी उपदेशपरक वाणी ( मेरा मधुवा भगवान्‌को छोड़कर घर नहीं आ सकता है ) सुनकर वहाँसे तत्काल भूखे ही चल दिये । मार्गमें भगवान्ने एक महाजन भक्तको स्वप्न देकर ( प्रसाद पवानेके लिये ) श्रीमाधवदासजीसे मिलाया । आपने उसके यहाँ भोजन किया और फिर जगन्नाथपुरीको चल दिये । इस प्रकार माधवदासजीके अनेक चरित्र हैं ।

 श्रीमाधवदासजीसे सम्बन्धित इन घटनाओंका श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार वर्णन किया है 

 गये ब्रज देखिबे को भाण्डीर में खेम रहै निसिकौ दुराय खाय क्रिमि लै दिखाये हैं । लीला सुनिबे को हरियाने गाँव रहे जाय गोबरहू पाथि पुनि नीलाचल आये हैं ॥ घरहूँ को आये सुत सुखी सुनि माता बानी मारग में स्वप्न दैके बनिक मिलाये हैं । याही विधि नाना भांति चरित अपार जानौ जिते कछु जाने तिते गानके सुनाये हैं ॥ 


 श्रीमाधवदासजीका भगवान् श्रीकृष्णसे सख्यभाव था , अतः भगवान् उनसे विविध प्रकारके विनोदपूर्ण कौतुक किया करते थे । एक दिन जब आप भगवान्‌का दर्शन करने लगे तो देखा कि भगवान् कुछ उदास हैं । आपने पूछा- प्रभो ! आज आप कुछ उदाससे प्रतीत हो रहे हैं , क्या बात है ? श्रीठाकुरजीने कहा माधवदासजी ! क्या बतायें , साल बीता जा रहा है और पका कटहल खानेको नहीं मिला । राजाजीके बागमें कटहल खूब फले हैं और पके भी हैं , अगर आप सहयोग दें तो आज रातमें बागमें चलकर कटहल खाया जाय । आपने कहा- प्रभो ! बचपनमें तो मुझे पेड़पर चढ़नेका अभ्यास था , पर अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूँ , मेरे हाथ - पाँव हिलते हैं , अतः पेड़पर चढ़नेमें तो मुश्किल होगी । 


 श्रीबलरामजी भी इस विनोदमें रस ले रहे थे , उन्होंने कहा- माधवदासजी ! हम चढ़नेमें सहायता कर देंगे , आपको कोई कठिनाई नहीं होगी । बात तय हो गयी । श्रीकृष्ण , बलराम और माधवदासजी आधी रातमें चुपचाप राजाजीके बागमें घुस गये । श्रीबलरामजीने सहारा देकर माधवदासजीको पेड़पर चढ़ा दिया । माधवदासजीने बड़े और खूब पके देखकर कई कटहल नीचे गिराये । दोनों भाइयोंने खूब जी भरकर कटहल खाये । उधर फलोंके गिरनेकी आवाज सुनकर बागके माली जग गये और आवाजकी दिशामें लाठी लेकर दौड़े । उन्हें आता देखकर श्रीकृष्ण - बलराम तो बागकी चहारदीवारी लाँघकर भाग गये , पर बेचारे माधवदासजी रँगे हाथों पकड़ लिये गये । मालियोंने रात्रिके अँधेरे में इन्हें पहचाना नहीं , अतः खूब मार लगायी और रातभर बाँधकर भी रखा । प्रातःकाल इन्हें बन्दी - अवस्थामें ही राजाके सम्मुख दरबारमें पेश किया गया । राजा इन्हें देखते ही पृथ्वीपर गिर पड़े और साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया और मालियोंद्वारा किये अपराधके लिये क्षमा माँगी और मालियोंको दण्ड देना चाहा । इसपर श्रीमाधवदासजीने कहा - राजन् ! मालियोंने अपने कर्तव्यका अच्छी प्रकारसे पालन किया है । इन्होंने कोई अपराध नहीं किया , अतः इन्हें दण्ड नहीं पुरस्कार देना चाहिये । राजाने आपके कथनानुसार मालियोंको बारह बीघे जमीनका पट्टा पुरस्कारस्वरूप दे दिया । तत्पश्चात् उनसे आधी रातमें बागमें आनेका कारण जानना चाहा । श्रीमाधवदासजीने उन्हें जब सारी बात बतायी तो राजा प्रेमविभोर हो गये । उन्होंने कहा प्रभो ! मेरे धन्य भाग्य हैं कि आप मेरे बागमें आये , अब यह बाग आपकी ही सेवामें प्रस्तुत है - यह कहकर राजाने ताम्रपत्रपर लिखकर बागको श्रीठाकुरजीके ही चरणोंमें समर्पित कर दिया । माधवदासजीके ऐसे अनेक चरित्र हैं , जो विस्तार - भयसे यहाँ वर्णन नहीं किये जाते । 


हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

bhupalmishra35620@gmail.com 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

Please Select Embedded Mode To show the Comment System.*

pub-8514171401735406
To Top