श्री तत्वा जी श्री जीवा जी
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के पावन चरित्र
भक्ति सुधा जल समुद भए बेलावलि गाढ़ी । पूरबजा ज्यों रीति प्रीति उतरोतर बाढ़ी ॥ रघुकुल सदृस सुभाव सिष्ट गुन सदा धर्म रत । सूर धीर ऊदार दयापर दच्छ अननि ब्रत ॥ पदमखंड पदमा पधति प्रफुलित कर सबिता उदित तत्वाजीवा दछिन देस बंसोद्धर राजत बिदित ॥
परम भक्त श्रीतत्त्वाजी एवं श्रीजीवाजी दक्षिण देशके निवासी थे । ये अपने वंशका उद्धार करनेवाले तथा जगत् - प्रसिद्ध सन्त हुए । इनका सुयश आज भी सन्त - समाजमें सुशोभित है । ये दोनों भक्तिरूपी अमृतमय जलके समुद्रके दो दृढ़ किनारे थे । पूर्वाचार्योंकी भाँति श्रीसन्त - भगवन्तके प्रति इनकी प्रीति रीति भी दोपहरके बाद पूर्व दिशाकी ओर जानेवाली छायाकी तरह उत्तरोत्तर बढ़नेवाली थी । इनका स्वभाव रघुवंशियोंके समान था । ये सज्जनोंके गुणोंको धारण करते थे । सदैव धर्ममें लगे रहनेवाले तथा बड़े ही शूर , धीर , उदार , दयालु , प्रवीण तथा इष्टमें अनन्य निष्ठा रखनेवाले थे । ये श्रीसम्प्रदायरूपी कमलवनको प्रफुल्लित करनेके लिये वैष्णव जगत्में सूर्यरूप उदित हुए ॥
श्रीतत्त्वाजी और श्रीजीवाजीका विशेष परिचय इस प्रकार है श्रीतत्त्वाजी और श्रीजीवाजी दोनों भाई - भाई थे , जातिके ब्राह्मण थे । इन दोनोंने साधु - सेवाका प्रण लिया था । परंतु मनमें एक बात सोच रखे थे कि जिस सन्तके चरणामृतसे सिंचन करनेसे सूखा वृक्ष हरा - भरा हो जायगा , उसीसे मन्त्रदीक्षा लेंगे । संयोगसे एक बार इनके यहाँ श्रीकबीरदासजी आये । इन लोगोंकी आशा पूर्ण हो गयी । दोनोंने श्रीकबीरदासजीके चरणोंमें पड़कर प्रणाम किया और दीक्षाके लिये प्रार्थना की । श्रीकबीरदासजीने बड़ी कठिनाईसे इन्हें भगवन्नामका उपदेश दिया , साथ ही अपने निवासस्थान काशीका पता बताया और कहा कि यदि कोई आवश्यक काम पड़े तो आकर हमें सूचित करना ।
श्रीतत्त्वाजी - जीवाजीके श्रीकबीरदासजीसे दीक्षा लेनेके अनन्तर गाँवके ब्राह्मणोंने यही समझा कि इनकी तो जाति ही नष्ट हो गयी । फिर तो सबने सलाह करके इनको अपने खान - पानकी पंक्तिसे बहिष्कृत कर दिया और इनकी कन्याका अपने पुत्रसे विवाह करनेको कोई तैयार नहीं हुआ । तब इन्होंने सब बात कबीरदासजीसे कही । श्रीकबीरदासजीने सोच - विचारकर कहा कि तुम दोनों भाई आपसमें ही सगाईकी चर्चा कर लो । फिर तो घर आकर उन्होंने वैसा ही विचार व्यक्त किया । यह देख सुनकर जाति - बिरादरीवालोंमें खलबली मच गयी ।
श्रीतत्त्वा- जीवाजीने कहा कि हम तो ऐसा ही करेंगे । इन लोगोंको अपने निश्चयमें दृढ़ देखकर जाति बिरादरीके सभी लोग कहने लगे कि आपलोग अपना हठ छोड़ दीजिये । हम आपको अपनी पंक्तिमें लेने तथापुत्र और पुत्रियांका अपने कुल मे विवाह करने करानेका देते हैं । तब एक भाई पुन : श्री कबीर दास जी से पूछने को काशी गया । श्रीकबीरदासजीने कहा कि यदि ये लोग झुक रहे हैं तो उन्हें भक्ति मे दृढ कीजिये फिर वे जैसा कहे वैसा ही विवाह कीजिये । श्रीगुरुदेव आज्ञानुसार सभी कुल कुटुम्बी को भक्ति मे आरूढ करके इन्होंने अपनी कल्याएँ उन्हें दी और उनकी कन्याओ से अपने पुत्र का विवाह किया । उन लोगो ने भी प्रसन्न हो इन्हें अपनी पंक्तियाँ मिला लिया । ऐसी थी श्रीतत्त्वा जी जीवाजी की दृढ़ गुरु निष्ठा एवं सत्तों के प्रति सद्भाव ।
श्रीप्रियादाराजी श्रीजीवाजी और श्री तत्वा जी की इस गुरु निष्ठा का इस प्रकार वर्णन करते हैं -
तत्वा जीवा भाई उसे विप्र साधु सेवा पन मन घरी बात जाते शिष्य नहीं भए हैं । गाड़्यो एक ठुठ द्वार होय अहो हरी डार संत चरणामृत को लेके डारि दए हैं । जब ही हरित देख ताको गुरु करी लेखै आये श्रीकबीर पूजी आस पाँव लए हैं । नीठ नीठ नाम दियो दियौ परिचाय धाम काम को होय जोपे आवौ कहि गए , है ।।
काना कानी भई द्विज जानी जाति गई पाँति न्यारी करि दई कोक बेटी नहीं लेत है । चल्यो एक काशी जहाँ बसत कबीर धीर जाय कही पर जब पूछयों कौन हैत है ।। दोक तुम भाई की आयु में सगाई होय भक्ति सरसाईन घटाई धित घेत है । आय वह करी परी जाति खरभरी कई कहा उर घरी कछु मति हूँ अत है ।।
करें यही बात हमें और न सुहात आये सबै हा हा खात यह छोड़ि हट दीजिये । पूछियेकॉ फेरि गये करो व्याह जी पै नये दण्डकरि जाना भाँति भक्ति हुन्छ कीजिये । तब हुई सुता लई पाति प्रसन्न है के पांति हरि भक्तनियाँ सदा मति भीजिये । विमुख समूह देखि संमुख बड़ाई करे धरे हिय माँझ कई पन पर रीझिये ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
भूपाल मिश्र
सनातन वैदिक धर्म
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