संत श्री नरहर्यानन जी महाराज
के पावन चरित्र
झर घर लकरी नाहि सक्ति को सदन उदारें । सक्ति भक्त सों बोलि दिनहिं प्रति बरही डारें । लगी परोसी हौंस भवानी भ्वै सो मारै । बदले की बेगारि मूड़ वाके सिर डारै ॥
भरत प्रसंग ज्यों कालिका लडू देखि तन में तई । निपट नरहऱ्यानंदको करदाता दुरगा भई ॥
एक बार वर्षाकी झड़ी लग जानेसे घरमें ईंधनके लिये सूखी लकड़ी न होनेसे श्रीठाकुरजीके लिये भोग बनने एवं सन्त - सेवामें बाधा देखकर श्रीनरहरियानन्दजीने समीपके श्रीदुर्गाजीके मन्दिरको ही उजाड़ना शुरू किया । तब श्रीदुर्गाजीने प्रकट होकर भक्तसे कहा कि मेरे मन्दिरको न उजाड़ें , मैं प्रतिदिन आपके यहाँ सूखी लकड़ीका एक बड़ा बोझ रख आया करूँगी । उसी दिनसे श्रीदुर्गाजी श्रीनरहरियानन्दजीके यहाँ लकड़ी पहुँचाने लगीं । यह देखकर आश्रमके पड़ोसमें रहनेवाले एक व्यक्तिको भी इच्छा हुई कि मैं भी इसी प्रकारसे दुर्गाजीसे लकड़ियाँ लूँ । वह भी श्रीनरहरियानन्दजीकी तरह भवानीजीका मन्दिर उजाड़ने लगा । तब भवानीने उसे पृथ्वीपर पटककर बहुत मार लगायी और अपने सिरकी बेगार [ लकड़ी पहुँचाना ] उसके सिरपर सौंपकर तब उसको छोड़ा । जैसे श्रीजड़भरतजी तथा श्रीलङ्कृभक्तजीके प्रसंगमें भक्तकी भक्तिके तेजसे श्रीकालिकाजी तप्त हो गयी थीं , उसी प्रकार श्रीनरहरियानन्दजीके भक्तितेजसे तप्त होकर देवीने कर दिया ॥
श्रीनरहरियानन्दजीके विषयमें विशेष विवरण इस प्रकार है
स्वामी श्रीनरहरियानन्दजी महाराज श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराजके शिष्य और गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीके गुरु थे । आपका जन्म वैशाख कृष्ण तृतीया संवत् १४ ९ १ वि ० को वृन्दावनके समीप एक ग्राममें हुआ था । आपकी माता अम्बिका देवी पतिपरायणा सद्गृहिणी और पिता श्रीमहेश्वरमिश्र भगवती विन्ध्यवासिनीके परम भक्त थे । भगवतीके ही कृपाप्रसादसे आपको श्रीनरहरियानन्द - जैसे पुत्रकी प्राप्ति हुई । बालक नरहरि जब तीन वर्षके हुए तब इनकी माताकी मृत्यु हो गयी । श्रीमहेश्वरजीने बड़े धैर्यसे उनका अन्त्येष्टि संस्कार किया । यथा समय आपका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ और भगवती विन्ध्यवासिनीके आदेशसे ही महेश्वरजीने बालक नरहरिको अन्य विद्यार्थियोंके साथ श्रीरामानन्दाचार्यजीके पास काशी भेज दिया और स्वयं तप करने बदरिकाश्रम चले गये । काशी पहुँचकर नरहरिने पहले स्वामीजीके प्रधान शिष्य श्रीअनन्तानन्दजीका दर्शन किया और दीक्षा के लिये प्रार्थना की । उसी समय श्रीस्वामीजीने अपना दिव्य शंख बजाया , जिसे सुनते ही नरहरिको समाधि लग गयी । जब पुनः चैतन्य हुए तो स्वामीजीके चरणों में प्रणिपात किया । श्रीस्वामीजीने अनन्तानन्दजीसे कहा कि बालककी दिव्य दीक्षा हो चुकी है , अब इसे पंच संस्कारोंसे संस्कृतकर वैष्णवी दीक्षा प्रदान करो और उपासना- रहस्यका बोध कराओ । श्रीअनन्तानन्दजीने नरहरिको सविधि श्रीराम - मन्त्रका उपदेश दिया और उनका नरहर्यानन्द नाम रख दिया । उन्होंने आपको अपने पास रखकर समस्त वेद - शास्त्र , पुराणादिकोंका निगूढ़ तत्त्व समझाया और भगवद्भजनमें आपकी रुचि देखकर पंचगंगाघाटपर श्रीगंगाजी के किनारे एकान्तमें एक कोठरी दे दी । श्रीगुरुदेव भगवान्से आपको कृपाप्रसादरूपमें एक शालग्रामशिला प्राप्त हुई थी , जिसे आप ' विजयराघव भगवान् ' कहते थे और उसकी सेवा - पूजा करते थे ।
श्रीनरहरियानन्दजी महाराज भगवद्भक्तिका प्रचार - प्रसार करनेके लिये तीर्थाटन करते रहते थे । आपने चित्रकूट , श्रीजगन्नाथपुरी ( उड़ीसा ) , गढ़खला ( राजस्थान ) , प्रयाग आदि अनेक स्थानोंपर चातुर्मास्य व्रत किये और भगवद्भक्तिका प्रचार किया । एक बार आप तीर्थराज प्रयागमें अलोपीबागस्थित श्रीअलोपीदेवी मन्दिरम चातुर्मास्य व्रत कर रहे थे । वहाँ आप भक्तोंके अनुरोधपर श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण और श्रीमद्भागवतकी कथा कहते और भगवान् श्रीराम एवं श्रीकृष्णका गुणगान करते । उनकी सात्त्विक भक्तिसे प्रभावित होकर स्वयं भगवती अलोपी देवी भी सात्त्विकभावापन्न हो गयीं और उन्होंने गाँवके मुखियाको स्वप्नमें आदेश दिया कि अब मैं वैष्णवी हो गयी हूँ , अतः अब मेरे स्थानपर पशुबलि नहीं दी जायगी । यदि कोई मेरे कथनके विरुद्ध मद्य - मांससे मुझे सन्तुष्ट करना चाहेगा , तो उसका सर्वनाश हो जायगा । तबसे वहाँ सात्त्विक पूजा होती है ।
श्रीनरहरियानन्दजीकी मुख्य साधना - स्थली चित्रकूट रही , वहाँ आप नित्य श्रीकामतानाथजीकी परिक्रमा करते थे । कहते हैं कि वहाँ आपको भगवान् श्रीसीतारामजी , अत्रि- अनुसूयाजी , श्रीदत्तात्रेयजी और श्रीकामतानाथजीके दिव्य दर्शन भी हुए थे । यहींपर भगवान् शिवने आपको श्रीरामचरितमानसका रहस्य बोध कराया और बालक ' रामबोला ' को इसका उपदेश देनेका आदेश दिया । वही रामबोला आगे चलकर गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीके नामसे विश्वविख्यात हुए । आपकी ' श्रीअनन्ततत्त्वामृत ' एवं ' श्रीनामप्रताप ' नामक दो रचनाएँ प्रसिद्ध हैं ।
श्रीपद्मनाभजी
नाम महानिधि मंत्र नाम ही सेवा पूजा । जप तप तीरथ नाम नाम बिन और न दूजा ॥ नाम प्रीति नाम बैर नाम कहि नामी बोलें । नाम अजामिल साखि नाम बंधन ते खोलें ॥ नाम अधिक रघुनाथ तें राम निकट हनुमत कह्यो । कबिर कृपा ते परम तत्व पद्मनाभ परचो लह्यो ॥ ६८ ॥
श्रीकबीरदासजीकी कृपासे श्रीपद्मनाभजीने परमतत्त्व श्रीनाम महाराजके माहात्म्यको भली प्रकारसे जाना । श्रीभगवन्नाम ही आपका परम धन था , श्रीनामको ही आप महामन्त्र मानते थे । श्रीनामकी ही आप सेवा - पूजा करते थे और नाम - जपको ही भगवान्की सेवा - पूजा समझते थे तथा नाम - जपको ही समस्त जप , तप , तीर्थादि साधन समझते थे । श्रीनामके अतिरिक्त अन्य साधन - साध्य कुछ भी नहीं जानते थे । वे नामानुरागियोंसे प्रीति करते थे तथा नामसे विमुखजनों एवं विरोधियोंसे वैर करते थे । इनका विश्वास था कि भगवान्का नाम चाहे प्रेमपूर्वक लिया जाय चाहे वैरपूर्वक- दोनों प्रकारसे ही नाम लेनेपर श्रीनाम महाराज उसका कल्याण ही करते हैं । ये श्रीनामको ही नामी अर्थात् परब्रह्म परमात्मा कहते थे । इनका दृढ विश्वास था कि श्रीभगवन्नाम ही जीवको भव बन्धनसे छुड़ानेवाला है । श्रीनाम महाराजके इस परत्वके साक्षी श्रीअजामिलजी हैं । श्रीरामनाम तो श्रीरामजीसे भी बड़ा है , यह बात श्रीहनुमान्जीने श्रीरामके सम्मुख ही कही है ॥
श्रीपद्मनाभजीका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
श्रीपद्मनाभजी श्रीकबीरदासजीके शिष्य थे । गृहस्थाश्रममें आपको शास्त्रार्थ करने तथा दूसरे पण्डितोंको पराजित करनेका व्यसन था । बड़े - बड़े विद्वान् पण्डित भी आपसे शास्त्रार्थ करनेमें घबड़ाते थे । आप जब कहीं शास्त्रार्थ करने जाते तो आपके साथ बैलगाड़ियोंमें भरकर आपकी पोथियाँ चलतीं और साथमें अनेक विद्वान् पण्डित चलते । ये जहाँ भी पहुँच जाते विजयश्री इनके चरण चूमती ; अधिकांश पण्डित इनकी कीर्ति सुनकर ही बिना शास्त्रार्थ किये विजय - पत्र लिख देते थे तथा जो शास्त्रार्थ करते भी थे , उन्हें अविलम्ब ही हारकर विजय - पत्र लिखना पड़ता ।
इस प्रकार देशके कोने - कोनेसे पण्डितोंद्वारा विजय - पत्र लिखवाते हुए श्रीपद्यनाभजी काशी आये । यहाँ भी इन्होंने पण्डितोंको शास्त्रार्थके लिये ललकारा कि या तो यहाँके विद्वान् मुझसे शास्त्रार्थ करें या विजय पत्र लिखकर दें । काशीके पण्डित इनकी ख्याति सुन चुके थे , वे जानते थे कि इस समय इनका नक्षत्र बलवान् है ; अतः केवल पाण्डित्यबलसे इन्हें पराजित करना असम्भव है । यदि ये कदाचित् हार सकते हैं तो सिद्धिवलसे ही हार सकते हैं । अतः सब पण्डितोंने जाकर भगवान् विश्वनाथसे प्रार्थना की । श्रीशिवजीने परामर्श दिया कि दिग्विजयी पण्डितको कबीरदासजीके पास भेजो । काशीके पण्डित भी कबीरदासजीके
सिद्धिबलसे परिचित थे ही , अतः सब लोगोंके मनपर श्रीशिवजीकी बात बैठ गयी । तत्पश्चात् सभी पण्डित मिलकर श्रोपद्मनाभजीके पास गये और बोले कि यदि आप हम लोगोंके गुरु श्रीकबीरदासजीको शास्त्रार्थ में पराजित कर दें तो हम सभी अपनी हार मान लें । श्रीपद्मनाभजीने कहा- यदि ऐसी बात है तो आप लोग उन्हें मेरे पास ले आइये । पण्डितोंने कहा- उनको शास्त्रार्थकी गर्ज नहीं है , आपको यदि शास्त्रार्थ करना हो तो उनके पास चलें । श्रीपद्मनाभजी तैयार हो गये । पण्डितोंने सारी बात जानकर श्रीकबीरदासजीसे बतायी । कबीरदासजीने कहा कि जब शिवजीकी आज्ञा है , तो वे ही मुझे सँभालेंगे और वे ही मेरे मुखसे बोलेंगे । इस प्रकार उन्होंने भी स्वीकृति दे दी ।
समयपर शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । दिग्विजयी पण्डित पद्मनाभने कबीरदासजीसे ही प्रश्न करनेका आग्रह किया । कबीरदासजीने कहा- पण्डितजी ! मैंने तो ' मसि कागद छूयो नहीं कलम गही नहिं हाथ , फिर भला मैं क्या जानूँ शास्त्र और क्या करूँ शास्त्रार्थ ! फिर भी आप कह रहे हैं तो जिज्ञासावश पूछ रहा हूँ ।
समुझि कि पढि समुझि , अहो कहो कविराय । सुनि यह बात कबीर की , पण्डित गयो हेराय ॥
श्रीकबीरदासजी सिद्ध सन्त थे , उनकी वाणी प्रासादिक थी , उसके कानमें पड़ते ही दिग्विजयी पण्डितके अन्तश्चक्षु खुल गये । उन्होंने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा - महाराज ! मैंने न तो समझकर पढ़ा , न पढ़कर ही समझा , अब आपकी कृपासे समझा कि हमारा सब पढ़ना - लिखना व्यर्थ रहा । पढ़नेका जो वास्तविक तात्पर्य है , उसे तो मैंने समझा ही नहीं , केवल वाद - विवादमें उलझकर स्वयं संतप्त हुआ और दूसरेको संतप्त किया । अब तो दिग्विजयी पण्डित पद्मनाभजी पश्चात्ताप करने लगे । उन्होंने उसी क्षण निश्चय किया कि अब मैं कभी शास्त्रार्थ नहीं करूंगा । साथ आये पण्डितोंको बैलगाड़ीपर लदी पुस्तकोंके साथ उन्होंने वापस कर दिया और स्वयं कबीरदासजीकी शरण ली । पद्मनाभजीमें पाण्डित्य और पात्रता तो थी हो ; अहंकारकी भी निवृत्ति हो ही गयी थी ; अत : कबीरदासजीने उन्हें श्रीराम मन्त्रकी दीक्षा दे दी ।
श्रीपद्मनाभजी का अब तो जीवन ही बदल गया था , निरन्तर नाम - जप करते और भगवान्की मानसी सेवा करते कहते हैं कि एक दिन आप प्रभुकी मानसी सेवा कर रहे थे । भावावेशमें सभी व्यंजनोंके नाम ले - लेकर प्रभुको नैवेद्य लगा रहे थे । उसी समय एक सज्जन वहाँ आकर खड़े हो गये और उनके क्रिया कलापोंको देखने लगे । उनके मनमें इस बातका बड़ा कौतूहल हो रहा था कि बाबाजी नाम तो छप्पन प्रकारके व्यंजनोंका ले रहे हैं और है कुछ भी नहीं । थोड़ी देर बाद उन्होंने आपको प्रणाम किया तो आपने उसी भावावेशमें उन्हें प्रसाद दे दिया । उन सज्जनको यह देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि प्रसादमें वे सारी वस्तुएँ हैं , जिनका श्रीपद्मनाभजीद्वारा नाम लिया जा रहा था ।
एक बारकी बात है , काशीपुरीमें निवास करनेवाले एक सेठको असाध्य गलित कुष्ठ हो गया था । ऐसी स्थितिमें वह श्रीगंगाजी में डूबकर मर जानेका संकल्प करके डूबनेको चला । उस समय उसके साथ लोगोंकी बहुत बड़ी भीड़ गंगातटपर एकत्रित हो गयी थी । संयोगवश श्रीपद्मनाभजी उधरसे ही जा निकले । भीड़ देखकर समीप जाकर पूछा । लोगोंने बताया तब इन्होंने कहा कि उसे पकड़ो , डूबने मत दो और उसके शरीरसे बन्धन खोल दो तथा उससे कहो कि वह श्रीगंगाजलमें स्नान करे । स्नान करते समय तोन बार श्रीरामनाम कहनेमात्रसे ही उसका शरीर नवीन हो जायगा । उसने वैसा ही किया तो सचमुच उसका शरीर नवीन हो गया । फिर तो उसने जीवनपर्यन्त बुद्धि को स्थिर करके भगवान् की भक्ति की । इसके बाद श्रीपद्यनाभजी ने श्रीगुरुदेव कबीरके पास जाकर सब वृत्तान्त कहा तो उन्होंने कहा कि अहो ! तुमने श्रीनाम महाराजको यथार्थ महिमा नहीं जानी । तब तो तुच्छ रोगके लिये तीन बार भगवन्नाम उच्चारण कराया । अरे , यह कार्य तो नामके आभास मात्र से हो सकता है ।
श्रीप्रियादासजी इस घटनाका वर्णन अपने एक कवित्तमें इस प्रकार करते हैं
भयो कोढ़ी सो निबाह कैसे परि गये कृमि चल्यौ बूड़िबेको भीर है । काशीबासी साहु निकसे पदम आय पूछी ढिग जाय , कही गही देह खोलौ गुन न्हाय गंगा नीर है ॥ रामनाम कहै बेर तीन मैं नवीन होत भयौई नवीन कियौ भक्ति मति धीर है । गुरु पास तुम महिमा न जानी अहो नाम भास काम करै कही यौं कबीर है ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL Mishra
Sanatan vedic dharma karma
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