श्री त्रिलोचन जी महाराज के जीवन
के अद्भुत गाथा
भक्तवर श्रीत्रिलोचनजी वैश्यकुलमें उत्पन्न हुए । ये बड़े ही वैष्णव भक्त थे , परंतु वे जैसी सेवा करना चाहते थे , वैसी बन नहीं पाती थी , क्योंकि उनकी पत्नीके अतिरिक्त घरमें और कोई सेवामें सहयोग देनेवाला न था । उनके मनमें एक यह बड़ी अभिलाषा थी कि कोई एक ऐसा नौकर मिल जाय जो साधुओंकि मनकी बात जानकर अच्छी प्रकारसे उनकी सेवा किया करे ।
अपने भक्तका मनोरथ पूरा करनेके लिये एक दिन स्वयं भगवान्ने ही नौकरका रूप धारण किया और श्रीत्रिलोचनजीके द्वारपर आये । श्रीत्रिलोचनजीने घरसे निकलते ही उन्हें देखा और इनसे पूछा - अजी आप कहाँसे पधारे हैं , मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि आपके घरमें माता - पिता आदि कोई भी नहीं हैं । नौकररूपधारी भगवान्ने कहा- आप सच कहते हैं मेरे पिता - माता आदि कोई भी नहीं है । त्रिलोचनजीने कहा- क्या नौकरी करोगे , मुझे सन्तोंकी सेवाके लिये एक नौकर चाहिये । तब आपने कहा कि यदि मेरे स्वभावसे स्वामीका स्वभाव मिल जाय तो मैं सेवा टहल कर सकता हूँ । श्रीत्रिलोचनजीने पूछा- आपके स्वभावसे औरोंका मेल क्यों नहीं हो पाता है ? तब आपने कहा कि मैं पाँच - सात सेर अन्न नित्य खाता हूँ , इसीसे लोग नाराज हो जाते हैं और मुझे रख नहीं पाते हैं ।
उस नौकरने फिर कहा- चार वर्णोंकी रीतियोंका मुझे ज्ञान है । सभी कार्योंको मैं अच्छी तरहसे मन लगाकर करता हूँ । उनमें किसीसे सहायता भी नहीं लेना चाहता हूँ । रही भक्तोंकी सेवा टहल - उसे तो करते - करते मेरा सब जीवन ही बीता है । ' अन्तर्यामी ' मेरा नाम है । मैं तो अब आपका दास हो गया । भक्त त्रिलोचनने कहा इच्छानुसार खूब भर - पेट खाओ , किसी प्रकारका संकोच मत करो ।
इसके बाद भक्त त्रिलोचनजीने अपनी स्त्रीसे कहा- तुम इस अन्तर्यामीको भोजन देते समय थोड़ी - सी भी खिन्नता मनमें मत लाना । नहीं तो यह कहीं भाग जायगा । फिर ऐसा नौकर कभी न मिलेगा । जो कुछ यह खाये , वही इसे खिलाओ । यह नित्यप्रति सन्तसेवा करेगा । श्रीत्रिलोचनजीके यहाँ अनेक साधु - सन्त नित्यप्रति आते ही रहते थे । सन्तसेवा अन्तर्यामीको हृदयसे प्रिय थी । सन्तोंकी इच्छाके अनुसार रुचिपूर्वक अन्तर्यामी उनके पैर दबाते और सब प्रकारकी सेवा करते । इस प्रकार सेवा करते - करते तेरह महीने बीत गये ।
भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराज श्रीत्रिलोचनजीकी सन्त - सेवाके प्रति इस अनन्य निष्ठाका वर्णन अपने कवित्तमें इस प्रकार करते हैं-
भये उभै शिष्य नामदेव श्रीतिलोचन जू सूर शशि नाई कियो जग में प्रकाश है । नामा की तो बात कहि आये सुनो दूसरे की सुनेई बनत भक्त कथा रसरास है । उपजे बनिक कुल सेवें कुल अच्युत को ऐष नहि बने एक तिया रहे पास है । टहलू न कोई साधु मनही की जानि लेत ये ही अभिलाय सदा दासनिको दास है ।। आये प्रभु टहलुवा रूपधरि द्वारपर फटी एक कामरी पहेँया टूटी पाय है । . निकसत पूछे अहो । कहां ते पधारे आप , बाप महतारी और देखिये न गाय है । बाप महतारी मेरे कोक नाहि सांची कहाँ , गहाँ मैं टहल जो पै मिलत सुभाय हैं । अनमिल बात कौन ? दीजिये जनाय बहू , पाऊँ पांच सात सेर उठत रिसाय हैं ।। चारि हू बरन की जु रीति सब मेरे हाथ साथ हू न चाहाँ करौँ नीके मन लाइ के भक्तनकी सेवा सो तो करत जनम गयो नयी कछु नाहि डारे बरस बिताइ के अंजामी नाम मेरो चेरो भयो तेरो हाँ तो बोल्यो भक्त भाव खायो निशंक अधाइ के । कामरी पन्हैयां सब नई करि दई और मीड़ि के हवायो तन मैल की छुटाइ के ।। बोल्यो घर दासी सों तू रहे याकी दासी होइ देखियो उदासी देत ऐसो नहीं पावनौ । खाय सो खवावो सुखपावो नित नित किये जियै जग माहि जौलों मिलि गुन गावनौ । आवत अनेक साधु भावत टहल हिये लिये चाव दायें पांव सवनि लड़ावनौ । ऐसे ही करत मास तेरह बितीत भये गये उठि आपु नेकु यात कौ चलावनौ ।।
श्रीत्रिलोचनजीकी स्त्री एक दिन पड़ोसिनके घर गयी , तब उसने पूछा कि तुम इतनी कमजोर एवं उदास क्यों हो गयी हो ? भक्तजीकी स्त्रीने उत्तर दिया कि क्या कहूँ ? मेरे पतिदेव कहींसे एक नौकर लिवाकर लाये हैं , वह ऐसा खोटा है कि बहुत सा भोजन करनेपर भी उसका पेट नहीं भरता है । इसलिये मुझे अधिक आटा पीसना पड़ता है , उसीसे मेरा शरीर अति दुर्बल हो गया है । देखो , बहन ! मैंने जो यह बात तुमसे कही है , उसे तुम किसी दूसरेसे मत कहना । इसे अपने मनमें ही रखना । यदि कहीं उसने सुन लिया तो सबेरे ही चला जायगा । वे तो अन्तर्यामी थे , उन्होंने सुन लिया और तुरंत उठकर चले गये ।
अन्तर्यामीके चले जानेके बाद तीन दिन बीत जानेपर भी श्रीत्रिलोचनजीने अन्न - जल नहीं लिया । वे दुखी होकर स्त्रीसे कहने लगे- हाय ! अब ऐसा चतुर सेवक मुझे कहाँ मिलेगा ? तू तो बड़ी अभागिनी है , ऐसी बात क्यों कही ? वह सन्त - सेवाका बड़ा प्रेमी था । किस उपायसे अब उसे लाऊँ ? जब श्रीत्रिलोचनजी इस प्रकार अपने मनमें पछताने लगे । तब आकाशवाणी हुई कि तुम अन्न - प्रसाद पाओ और जल पियो । सन्तोंके प्रति जो तुम्हारी प्रीतिकी रीति है , वह मुझे अति प्रिय लगी ; इसीसे तुम्हारा सेवक बनकर सन्तसेवा की । मैं तुम्हारे अधीन तुम्हारा दास हूँ और सदा तुम्हारे घरमें लीन रहता हूँ । यदि तुम कहो तो पहलेकी तरह मैं तुम्हारे यहाँ आकर रहूँ और सदा सेवा करूँ ।
आकाशवाणी सुनकर श्रीत्रिलोचनजीने जब रहस्य जाना तो उन्हें और अधिक कष्ट हुआ , मैंने भगवान्को अपना दास करके माना । प्रभु मेरे घरमें आये , इतने दिन रहे , पर मैं ऐसा मूढ़ था कि उनको नहीं जान सका । अब वे किसी प्रकार आ जायँ तो मैं दौड़कर उनके पैरोंमें लिपट जाऊँ । इस प्रकार त्रिलोचनजी अन्तर्यामीके ध्यानमें सदा मग्न रहने लगे ।
श्रीप्रियादासजीने इस वृत्तान्तका वर्णन निम्न कवितोंमें किया है
एक दिन गई ही परोसिनके भक्तबधू पूछि लई बात अहो काहेको मलीन है । बोली मुसकाय वे टहलुवा लिवाय ल्याये क्योंहू न अघाय खोट पीसि तन छीन है ।
काहू साँ न कहो यह गही मन माझ पूरी तेरी साँ सुनेगी जोये जात रहे मीन है । सुनि लई यही नेकु गये उठि हुती टेक दुखाई अनेक जैसे जल बिन मीन है ।॥ बीते दिन तीन अन्नजल करि हीन भये ऐसी सो प्रवीन अहो फेरि कहाँ पाइये । बड़ी तू अभागी बात काहे को कहन लागी रागी साधु सेवा में जु कैसे करि ल्याइये ।। भई नभवानी तुम खायो पीवो पानी यह मैं ही मति ढानी मौकों प्रीति रीति भाइये । मैं तौ हाँ अधीन तेरे घर ही में रहीं लीन जो पै कहाँ सदा सेवा करिबे को आइये ।। कीने हरिदास मैं तो दास हून भयाँ नेक बड़ो उपहास मुख जग में दिखाइये कहँ जन भक्त कहा भक्ति हम करी कही , अहो अज्ञताई रीति मन में न आइये ॥ उनकी तो बात बनि आबै सब उनही सो गुन ही को लेत मेरे औगुन छिपाइये आये घर मांझ तक मूह मैं न जानि सक्यों आवैं अब क्यों हूँ धाय पाय लपटाइये ।।