Hariram Vyash ji _ गर्व से कहो हम हिंदु है ।

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         श्री हरिराम व्यास जी महाराज

 के पावन चरित्र 



काहू के आराध्य मच्छ कछ नरहरि सूकर । बामन फरसाधरन सेतबंधन जु सैल कर ॥ एकन के यह रीति नेम नवधा सों लाएँ । सुकुल सुमोखन सुवन अच्युत गोत्री जु लड़ाएँ ॥ नै गुन तोरि नूपुर गुह्यो महत सभा मधि रास कें । उतकर्ष तिलक अरु दाम को भक्त इष्ट अति ब्यास कें  ॥


  श्रीहरिराम व्यासजी ( श्रीयुगलकिशोरजीको इष्ट और ) भक्तोंको अपना परम इष्ट मानते थे । इन्होंने ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक तथा तुलसी कण्ठी - मालाकी बड़ी महिमा गायी है । कोई - कोई तो श्रीमत्स्य , कच्छप , नृसिंह , वाराह , वामन , परशुराम , राम , कृष्ण आदि अवतारोंकी आराधना करते हैं । एक समुदाय ऐसा है जो नवधा भक्तिमें निष्ठा रखता है । परंतु श्रीसुमोखन शुक्लजीके पुत्र श्रीहरिराम व्यासजीने तो वैष्णवोंको ही प्रेमपूर्वक दुलराया । आपने रासलीलाके समय महत्पुरुषोंकी सभामें श्रीप्रियाजीके पाँवका नूपुर गूंथा था ॥ 

 श्रीहरिराम व्यासजीके विषयमें कुछ विवरण इस प्रकार है श्रीहरिराम व्यासजी ओरछानरेश महाराज मधुकरशाहजी के राजगुरू थे सम्प्रदाय -ग्रंथों मे आपकोविशाखा सखीका अवतार माना जाता है । आपका जन्म ओरछामें मार्गशीर्ष कृष्ण ५. सं ० १५६७ वि ० को हुआ था । आपके पिताका नाम श्रीसुमोखनजी शुक्ल और माताका नाम पद्मावती देवी था । आप वेदशास्त्रपुराणादिके पारंगत विद्वान थे और आपको श्रीसरस्वतीजीकी सिद्धि थी । आप शास्त्रार्थमें दिग्विजय करते हुए काशी आये और वहाँक पण्डिताँसे शास्त्रार्थ किया आपके अलौकिक पाण्डित्यके समक्ष उन सबको पराजयका मुँह देखना पड़ा । अन्तमें सभी पण्डित भगवान् विश्वनाथजीकी शरण में गये और उनसे काशीपुरीकी मर्यादाकी रक्षा करने की प्रार्थना की ब्राह्मणों की प्रार्थना स्वीकारकर भगवान् विश्वनाथ साधुका वेष धारणकर सायंकाल श्रीव्यासजीके पास गये और बोले - ' मैंने आपकी विद्वत्ता के विषय में बहुत सुना है , अतः अपनी एक जिज्ञासाका समाधान कराने के लिये आपके पास आया हूँ , आप कृपा करके उसका समाधान कर दें तो बहुत अच्छा होगा । आपने जिज्ञासा व्यक्त करने को कहा । अनुमति मिलनेपर साधुवेशधारी श्रीविश्वनाथजीने पूछा- ' विद्याका फल क्या है ? ' आपने उत्तर दिया- ' विवेककी प्राप्ति । ' शिवजीने पुनः प्रश्न किया - क्या आपने विद्या पढ़कर वियेक प्राप्त कर लिया है ? क्या विद्याका फल शास्त्रार्थ करके साधु - ब्राह्मणोंको हराना , उन्हें अपमानित करना ही है ? आप तो भगवान् श्रीकृष्णकी प्रिय सखी श्रीविशाखाजीके अवतार हैं , आपको तो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका भजन करके अपना जीवन सफल करना चाहिये , आप इन व्यर्थक विवादों में क्यों फँसे हैं ? '


 साधुवेशधारी भगवान् विश्वनाथजीके इस प्रबोधनसे आपके ज्ञानचक्षु खुल गये और आप दिग्विजयका विचार त्यागकर तत्काल घर लौट आये और वैष्णवी दीक्षा लेनेका विचार करने लगे , परंतु यह समझमें नहीं आ रहा था कि गुरु किसे बनायें । भगवत्कृपासे इसी बीच श्रीवृन्दावन से श्रीहितहरिवंश महाप्रभुजीके कृपापात्र श्रीनवलदासजी महाराज विचरण करते हुए ओरछा आये और आपके अतिथि हुए उनसे श्रीहितहरिवंश महाप्रभुजीके बारे सुनकर आप बहुत प्रभावित हुए और मन - ही - मन उन्हें ही गुरु बनानेका निश्चय कर लिया । अब आपका मन घरपर न लगता और श्रीवृन्दावनके कुंजोंके दर्शनकी लालसा दिनोंदिन बढ़ती गयी । एक दिन आपने घर - द्वार सब कुछ छोड़कर श्रीवृन्दावनधामकी राह ली और श्रीनवलदासजीके पास पहुँच गये तथा उनके माध्यमसे श्रीहितहरिवंश महाप्रभुके चरणों में जा पहुँचे । आपको अधिकारी जानकर महाप्रभुने सम्प्रदायकी दीक्षा और श्रीयुगलकिशोरकी उपासनाका रहस्य समझाया । 


आपके वृन्दावन चले आनेपर आपके घर - परिवारके लोग आपको वापस बुलाने आ गये और किसी भी प्रकार पीछा ही नहीं छोड़ रहे थे । परिवारीजनोंके साथ विचार - विमर्शमें उस दिन बहुत समय बीत गया , अतः आप सन्तोंकी सीध - प्रसादी भी न पा सके थे । आपकी भगवत्प्रसादमें अनन्य निष्ठा थी , प्रसाद न पानेके कारण आपको बहुत ही पश्चात्ताप हो रहा था । सहसा आपने देखा कि झाड़ लगानेवाली महिला अपनी टोकरीमें सन्तोंकी सीध - प्रसादी लिये हुए जा रही है , आप उसके पास गये और बोले - ' माताजी । आज मैं सन्तोंकी सीथ - प्रसादी नहीं पा सका , अगर आप कहें तो थोड़ा - सा सीथ प्रसादी में आपकी टोकरीसे ले लूँ । ' वह अपनी हीनताका विचारकर संकुचित होती हुई बोली - ' महाराज आप इतने बड़े महापुरुष होकर यह कैसी बात कह रहे हैं , फिर भी यदि आपकी ऐसी ही इच्छा हो तो ले लीजिये । फिर तो आपने सब कुटुम्बियोंके समक्ष ही उस महिलाकी टोकरीसे एक पकौड़ी निकाल ली और भगवत्प्रसाद एवं सन्तोंकी सीथ प्रसादीकी महिमाका स्मरण करते हुए उसे पा लिया । फिर तो इनके परिवारीजन भी नाक - भौं सिकोड़ते हुए यह कहने लगे कि ये तो सबका हुआ खा लेते हैं , अतः अब ये हम लोगोंकी पंक्तिमें बैठनेलायक नहीं रह गये , इस प्रकार किसी तरह उस समय भगवत्प्रसादकी कृपासे आप परिवारजनोंके चंगुलसे छूट सके । 

जब परिवारके लोग आपको वापस घर लाने में सफल नहीं हुए तो स्वयं ओरछानरेश महाराज मधुकरशाहजी इन्हें लिवाने आये । महाराज सीधे आपके गुरु श्रीहितहरिवंश महाप्रभुसे मिले और उनसे निवेदन किया कि हमारे गुरुदेव श्रीव्यासजी यदि यहाँ रहते हैं तो केवल आत्मश्रेयका सम्पादन करेंगे और यदि ओरछामें विराजते हैं तो इनके साथ - साथ सम्पूर्ण देशवासियोंका कल्याण होगा ; अत : आप कृपा करके इन्हें आज्ञा दीजिये कि ये वहीं चलकर स्वयं भक्ति - साधन करते हुए अपने सदुपदेशोंसे लोकका भी कल्याण करें । श्रीहरिवंशजीने महाराजके निवेदनपर हामी भर ली । जब इस बातका ज्ञान श्रीव्यासजी महाराजको हुआ तो वे श्रीधामवृन्दावनके वियोगमें व्याकुल हो गये और वहाँके सभी वृक्षों और लताओंसे लिपट - लिपटकर करुण विलाप करने लगे । आपकी इस प्रेम - विह्वलताका ज्ञान होनेपर श्रीहितमहाप्रभुजी बड़े प्रसन्न हुए और आपको बुलवाकर आशीर्वाद दिया कि ' तुम अविचल श्रीवृन्दावनवास करोगे । ' श्रीमधुकरशाहजी महाराज भी इनकी वृन्दावन - निष्ठा देखकर दोनों महापुरुषोंका चरण वन्दनकर ओरछा वापस लौट आये । जब आपके पत्नी - पुत्रोंको यह विश्वास हो गया कि अब आप ओरछा नहीं आयेंगे , तो वे लोग स्वयं ही वृन्दावन आ गये और श्रीहितहरिवंश महाप्रभुकी आज्ञासे वहीं रहकर सन्त - भगवन्तकी सेवा करने लगे । यहाँतक कि आपकी धर्मपत्नीने तो अपने आभूषणतक बेचकर सन्तसेवामें लगा दिये । आपके तीन पुत्रोंमें सबसे छोटे श्रीकिशोरदासजी श्रीस्वामी हरिदासजी महाराजके कृपापात्र थे । आपकी पुत्री भी परम भगवद्भक्ता थी , विवाह होनेके बावजूद भी उन्होंने श्रीवृन्दावनधाममें वास करने और भगवत्सेवा करनेको लौकिक सुखोंसे श्रेयस्कर माना और आजीवन इसी व्रतमें सन्नद्ध रहीं । 


आपका श्रीवृन्दावनधामके प्रति अनन्यप्रेम था , अतः आपने स्वयं तो आजीवन वृन्दावनवास किया ही , दूसरोंको भी श्रीवृन्दावनवासकी प्रेरणा की । एक बारकी बात है , एक सन्त तीर्थयात्रा करते हुए श्रीधाम वृन्दावन आये और आपके पास ठहरे । उन सन्त भगवान्की कीर्तन - शैली ऐसी अद्भुत थी कि मानो आनन्दकी रस- धारा बरस रही हो , उस रसधारमें सिक्त होकर आपका मन उस आनन्दको छोड़नेके लिये तैयार नहीं था । आपकी इच्छा थी कि ऐसे सन्तको तो श्रीधाम वृन्दावनमें ही वास करते हुए अपने गायनसे श्रीठाकुरजीकी सेवाकर अपना जीवन सफल करना चाहिये , अतः आपने उन्हें आग्रहपूर्वक रोक लिया , परंतु तीर्थ पर्यटनको इच्छासे निकले सन्त महानुभाव अधिक समयतक रुकनेके लिये तैयार नहीं थे । उन्होंने अपना ठाकुर बटुआ माँगा और चलनेके लिये प्रतिबद्ध हो गये । जब आपको लगा कि ये सन्त महोदय रुक सकेंगे नहीं चले ही जायँगे तो आपने उनके ठाकुर बटुएसे श्रीठाकुरजीको तो निकाल लिया और कुंजसे एक चिड़िया पकड़कर उसमें रख दिया और उन्हें दे दिया । उन्होंने आगे जाकर स्नान आदिसे निवृत्त होकर श्रीठाकुरजीकी सेवा करनेके लिये जैसे ही ठाकुर बटुआ खोला , वैसे ही उसमें बन्द चिड़िया फुरसे श्रीवृन्दावनकी ओर उड़ चली । सन्तजीने यह कौतुक देखा तो उन्हें लगा कि श्रीठाकुरजी वृन्दावनसे नहीं जाना चाहते , इसीलिये वे चिड़िया बनकर पुनः वृन्दावन लौट गये । अब उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ कि मैंने इतने बड़े सन्त महापुरुषका आग्रह नहीं माना , जरूर मुझसे भगवदापराध हो गया , अतः मुझे भी वृन्दावन लौट चलना चाहिये । यह सोचकर वे पुनः आपके पास लौट आये । आपने भी उन्हें हृदयसे स्वीकार कर लिया । जब सन्त महानुभावने वृन्दावनवासका संकल्प ले लिया तो आपने उनको रोकनेके लिये किये गये इस प्रयासको उनसे बता दिया । इस प्रकार आपकी वृन्दावनके प्रति अनन्य निष्ठाके दर्शन होते हैं । 

आप कहा करते थे -

 किशोरी तेरे चरनन की रज पाऊँ । बैठि रहौं कुंजन के कोने स्याम राधिका स्थाम गाऊँ ॥

या रज शिव सनकादिकलोचन सो रज सिस चढाऊॅ। व्यास स्वामिनि की छवि निरखत विमल विमल रज जस गाऊँ ॥ एकबार आप श्रीठाकुरजीका शृंगार कर रहे थे । श्रीठाकुरजीके सिरपर पाग बाँध रहे थे , परंतु वह अत्यन्त चिकनी होनेके कारण सिरसे बार - बार फिसल - फिसल जाती थी । जब कई बार बाँधनेपर भी ठीकसे नहीं बँधी तो आपने झुंझलाकर कहा- अजी देखो , या तो मुझसे अच्छी तरहसे पाग बँधा लीजिये या फिर मेरा बाँधना आपको पसन्द नहीं हो तो स्वयं ही बढ़िया से बढ़िया बाँध लीजिये । यह कहकर आप शृंगार छोड़कर कुंजोंमें जाकर कीर्तन करने लगे । तब श्रीठाकुरजीने ही पाग बाँध ली । किसीने आपसे आकर कहा कि आज तो आपने श्रीठाकुरजीको बढ़िया पाग बाँधी है । यह सुनकर आपको श्रीठाकुरजीकी याद आयी तो तुरंत ही आकर देखा । सचमुच बहुत बढ़िया पाग बँधी थी तब मुसकराकर बोले - ' अहो ! जब आप स्वयं इतनी बढ़िया पाग बाँधना जानते हैं तो मेरे द्वारा बाँधी पाग आपको कैसे पसन्द आ सकती है । 

श्रीप्रियादासजी महाराजने ठाकुरजीकी इस लीलाका वर्णन अपने एक कवित्तमें इस प्रकार किया है-

 आये गृह त्यागि वृन्दावन अनुराग करि गयौ हियौ पागि होय न्यारो तासौं खीझियै । राजा लैन आयौ ऐपै जायबौ न भायौ श्रीकिशोर उरझायो मन सेवा मति भीजियै ॥ चीरा जरकसी सीस चिकनो खिसिल जाय , लेहु जू बँधाय , नहीं आप बाँधि लीजिये । गये उठि कुंज , सुधि आई सुखपुंज , आये देख्यौ बँध्यो मंजु , कही कैसे मोपै रीझियै ।। 

एक बार श्रीव्यासजी सन्तोंके आग्रहपर उनके साथ ही प्रसाद पाने बैठे । आपकी पत्नी परोस रही थीं । दूध परोसते समय उन्होंने मलाई अपने पतिके कटोरेमें गिरा दी । इससे श्रीव्यासजी बड़े ही नाराज हुए । आप समझ गये कि यह मुझमें पतिबुद्धि करके मेरा पोषण कर रही है । फिर तो श्रीव्यासजीने पत्नीको सेवासे अलग कर दिया । इससे वे बहुत उदास एवं खिन्न हो गयीं । तीन दिन बिना खाये- पीये व्यतीत हो गये । शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया । सब सन्तोंने श्रीव्यासजीको समझाया , तब आपने पत्नीके लिये यह दण्ड निश्चित किया कि यदि वह अपने समस्त आभूषण बेचकर सन्तोंका भण्डारा कर दे , तब तो सेवामें आ सकती है अन्यथा नहीं । पत्नीने ऐसा ही किया , तब उन्हें पुनः सेवा प्राप्त हो गयी ।

 श्रीप्रियादासजी इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते हैं 

सन्त सुख दैन बैठे संग ही प्रसाद लैन परोसति तिया सब भाँतिन प्रवीन है । दूध बरताई लै मलाई छिटकाई निज खीझि उठे जानि पति पोषति नवीन है । सेवा सों छुटाय दई अति अनमनी भई गई भूख बीते दिन तीन तन छीन है । सब समझावैं तब दण्ड को मनावैं अंग आभरन बेंचि साधु जेंवें यों अधीन है ॥ 

 जब आपकी पुत्री रत्नाबाईका विवाह हुआ , उस समय घरवालों ( पत्नी - पुत्रों ) ने बड़े उत्साहके साथ सब कार्य किया । बारातियोंके स्वागतार्थ अनेकानेक प्रकारके पक्वान्न बने थे । सुन्दर सामान देखकर श्रीहरिराम व्यासजीकी बुद्धि विकल हो गयी कि इसे कैसे वैष्णवोंको पवाया जाय । फिर तो इन्होंने भावनामें ही उन वस्तुओंका भगवान्‌को अच्छी तरह भोग लगाया और अपने किसी अन्तरंग अनुचरद्वारा सन्तोंको बुलवाया । जब सन्त आ गये तो इन्होंने उन्हें सामानोंकी पोटली बँधवा दी और कहा कि अपनी - अपनी कुंजोंमें जाकर पाओ । इस प्रकार सन्तोंको सामान देकर कुंजोंमें भेजा । आपने श्रीठाकुरजीको वंशी धारण करायी , एक ब्राह्मणको भक्तिमें दृढ़ किया । एक सन्तके सम्पुटमें श्रीठाकुरजीकी जगह चिड़िया बन्द करके दे दी , फिर आनेपर सुखपूर्वक उन्हें श्रीवृन्दावन में बसाया ।

श्रीप्रियादासजीने श्रीव्यासजीके इस सन्त - प्रेमका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है सुता कौ विवाह भयौ बड़ौ उत्साह कियौ नाना पकवान सब नीके बनि आये हैं । भक्तनि की सुधि करी खरी अरबरी मति भावना करत भोग सुखद लगाये हैं । बुलाय कही पावँ जाय पोटनि बधाय चाय कुंजनि पठाये हैं । बंसी पहिराई द्विज भक्ति लै दृढ़ाई सन्त संपुट मैं चिरैया दै हित सो बसाये हैं ।। 

एक बार शरत्पूर्णिमाकी प्रकाशमयी रात्रिके समय श्रीप्रियाप्रियतमने रास रचाया । नृत्यके प्रसंगमें जब श्रीप्रियाजीने भावावेशमें आकर गति ली तो रासमण्डलमें मानो बिजली सी चमक गयी तथा रासमण्डलमें परम शोभा छा गयी । तबतक श्रीप्रियाजीके पाँवका नूपुर टूट गया , उसके घुँघरू बिखर गये । यह देखकर रसिकोंका मन बेचैन हो गया , परंतु उसी क्षण श्रीव्यासजीने नूपुरको पुनः पूर्ववत् पोहकर बड़ी सावधानीपूर्वक श्रीप्रियाजीके श्रीचरणों में बाँध दिया , जिससे कि नृत्यमें कोई भी व्यवधान नहीं आने पाया । श्रीव्यासजीका यह कार्य सबके मनको अत्यन्त भाया । 

 श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते हैं

 सरद उज्यारी रास रच्यौ पिया प्यारी तामें रंग बढ्यौ भारी कैसे कहिकै सुनाइये । प्रिया अति गति लई बीजुरीसी कौंधि गई चकचौंधी भई छवि मण्डलमें छाइयै ॥ नूपुर सो टूटि छूटि पस्यौ अरबस्यौ मन तोरिकै जनेऊ करयौ वाही भाँति भाइयै । सकल समाज मैं योँ कह्यौ आज काम आयौ ढोयो हाँ जनम ताकी बात जिय आइयै ॥ 


 भक्त ही श्रीव्यासजीके परम इष्ट हैं - यह सुनकर एक महन्त श्रीव्यासजीके इस भावकी परीक्षा लेने आये । उनके संग सन्तोंकी बहुत बड़ी जमात थी । महन्तजीने आते ही भूखका संकेत किया , वे श्रीव्यासजीको सुना - सुनाकर अपने भूखे होनेकी बात कहने लगे , उसे सुनकर श्रीव्यासजीने कहा- ' आपलोग तनिक धैर्य धारण करें , श्रीठाकुरजीको भोग जा चुका है , अभी - अभी प्रसादी थाल आता है , फिर पूर्ण होकर पाइये । ' यह सुनकर महन्तजीने मनमें सोचा कि मालूम पड़ता है कि हृदयसे तो श्रीभगवान्‌को ही परम इष्ट मानते हैं , परंतु ऊपरसे कहते हैं कि सन्त ही हमारे परम इष्ट हैं । उन्होंने मनमें श्रीव्यासजीके भावपर शंका की । इतनेमें भगवत्प्रसाद आ गया । श्रीव्यासजीने बड़े ही भावपूर्वक उनको प्रसाद परोसा । परंतु श्रीमहन्तजी दो चार ग्रास ही प्रसाद पाकर ऐसे उठ गये , मानो उनके पेटमें पीड़ा हो गयी हो । तब श्रीव्यासजीने उनकी पत्तल समेट ली और बोले - ' अहो ! सन्त कितने कृपालु होते हैं । आपने कृपा करके मेरे लिये सीथ - प्रसादी छोड़ दी है । अच्छा अब आप और पाइये , हम आपके लिये अभी - अभी अमनिया ही मँगवाते हैं । यह सुनकर श्रीव्यासजीके भावको सच्चा जानकर श्रीमहन्तजी आपके चरणोंमें पड़ गये । उनकी आँखों से आँसुओंका प्रवाह बह चला । 

श्रीव्यासजीकी इस सन्त - भगवन्त - निष्ठाका वर्णन श्रीप्रियादासजीने एक कवित्तमें इस प्रकार किया है 

गायो भक्त इष्ट अति सुनिकै महन्त एक लैन कौं परिच्छा आयो संग संत भीर है । भूख को जतावैं बानी व्यासको सुनावैं सुनि कही भोग आवैं इहाँ मानें हरि धीर है । तब न प्रमान करी सङ्क धरी लै प्रसाद ग्रास दोय चार उठे मानो भई पीर है । पातर समेटि लई सीत करि मोकों दई पावौ तुम और पाँव लिये दृग नीर है ।। 

 श्रीव्यासजीके तीन पुत्र थे । इन्होंने अपने पुत्रोंमें अपनी सम्पत्तिका बँटवारा नितान्त ही नवीन ढंगसेकिया । एक हिस्सेमें तो श्रीठाकुरजीकी सेवा पूजाको रखा , दूसरे हिस्सेमें धन इत्यादि और तीसरे हिस्से में श्याम बंदनी और छापको रखा । आपने तीनों पुत्रोंको छूट दे दी कि वे स्वेच्छानुसार जो चाहें , ले लें । तब ज्येष्ठ पुत्र श्रीरासदासने धन लिया , मँझले पुत्र श्रीविलासदासने श्रीठाकुर युगलकिशोरजीकी सेवा ली और तीसरे पुत्र श्रीकिशोरदासजीने श्याम बंदनी और छाप ली एवं तुरंत ही उन्होंने ललाटपर तिलक कर लिया तथा गलेमें माला धारण कर ली । श्रीव्यासजीके अनुरोधपर श्रीस्वामी हरिदासजीने श्रीकिशोरदासजीको छाप दी , अपना शिष्य बनाया । एक दिन श्रीस्वामीजीके आदेशसे श्रीकिशोरदासजी कुछ रात रहते ही श्रीयमुनाजसे जल लेने गये तो वहाँ उन्होंने श्रीयमुनापुलिनपर श्रीप्रियाप्रियतमका दिव्य रास देखा । भावकी उमंगमें श्रीकिशोरदासजीने उसी समय स्वरचित एक पद गाया । जिसे ललिता आदि सखियोंने तत्काल सीख लिया और फिर जब भावनामें श्रीस्वामी हरिदासजी रास - क्रीड़ाका ध्यान कर रहे थे तो रासमें वही पद श्रीललिता आदि सखियोंको गाते हुए सुना , जिसे सुनकर श्रीस्वामी हरिदासजीका मन हर गया । 

श्रीप्रियादासजी इस घटनाका वर्णन इस प्रकार करते हैं 


भये सुत तीन बाँट निपट नवीन कियौ एक ओर सेवा एक ओर धन धरयौ है । तीसरी जु ठौर स्याम बंदनी और छाप धरी करी ऐसी रीति देखि बड़ौ सोच परयौ है ॥ एकने रुपैया लिये एकने किशोर जू को श्रीकिशोरदास भाल तिलक लै करयौ है । छापे दिये स्वामी हरिदास निसि रास कीनौ वही रास ललितादि गायो मन हरयौ है ।। 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

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