श्री अली भगवान जी महाराज
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के मंगलमय चरित्र
भक्तमालके आधारपर श्रीअलिभगवान्का काल सं ० १६५० के आस - पास प्रतीत होता है । आप प्रारम्भमें भगवान् श्रीराघवेन्द्रसरकारके अनन्य भक्त थे , परंतु बादमें युगलकिशोरने आपके मनको ऐसा मोहा कि आप सदा - सदाके लिये श्रीधामवृन्दावनमें बस गये और आजीवन श्रीप्रिया प्रियतमको सेवामें संलग्न रहे । आपके आराध्य - परिवर्तनकी कथा भी बहुत अद्भुत है । एक बारकी बात है , आप श्रीरामलीला देख रहे थे , उसमें जब श्रीराम वनवास और रामवनगमनके करुण प्रसंग आये तो आपका धैर्य छूट गया और आप ' हा राम ! हा रघुनाथ ! ' कहते हुए विलाप करने लगे । अनेक लोगोंने समझानेका प्रयास किया , परंतु किसी प्रकारसे आपको शान्ति ही नहीं मिलती थी । इसी अवस्था में आपके कई दिन बीत गये , शरीर जर्जर हो गया । भगवत्कृपासे इनकी एक सन्तसे भेंट हो गयी , उन्होंने इनकी स्थिति देखकर ही इनकी मनःस्थिति समझ ली । आपने भी उचित पात्र समझकर उनसे अपनी सारी मनोव्यथा कह सुनायी । सन्तने पूछा - ' आप कभी श्रीवृन्दावन गये हैं ? ' आपके ' नहीं ' कहनेपर वे आपको लेकर श्रीधामवृन्दावन आये और भगवान् श्रीकृष्णके श्रीरासलीलानुकरणका दर्शन कराया । भगवान् श्रीकृष्णने भी अधिकारी जानकर आपको लीलास्वरूप में ही अपनी दिव्य झाँकीका दर्शन कराया । भगवान्का साक्षात्कार होते ही आपका विरह दूर हो गया और मनमें एक नयी उमंग आ गयी । आपने निश्चय कर लिया कि अब मैं इन्हीं रासबिहारी भगवान्की सेवा करता हुआ यहीं वृन्दावनमें ही रहूँगा ; परंतु दूसरे ही क्षण आपको ध्यान आया कि श्रीगुरुदेवजीने तो मुझे श्रीसीतारामजीकी सेवा सौंपी है ; ऐसेमें उनकी सेवा छोड़कर श्रीरासबिहारीजीकी सेवा करनेसे कहीं भगवदपराध न बन जाय ! अन्तमें आपने निश्चय किया कि अब में श्रीसीतारामजीकी ही श्रीरासबिहारी - विहारिणीके रूपमें सेवा करूंगा । इस प्रकार श्रीरासबिहारीजीकी सेवामें रहते हुए भी आपकी श्रीसीतारामजीके प्रति अनन्यता बनी रही । '
श्रीप्रियादासजीने इष्ट परिवर्तनकी इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है -
भक्त अलि भगवान् राम सेवा सावधान मन वृन्दावन आये कछु और रीति भई है । देखे रास मण्डलमें बिहरत रसरास बाढ़ी छबि प्यास ढुंग सुधि बुधि गई है ॥ नाम धरि रास औ बिहारी सेवा प्यारी लागी खगी हिय माँझ गुरु सुनी बात नई है । बिपिन पधारे आप जाय पग धारे सीस ' ईस मेरे तुम ' सुख पायो कहि दई है ॥
विठ्ठलविपुलदेव जी महाराज
श्रीविठ्ठलविपुलदेवजीका जन्म मार्गशीर्ष शु ० ५ , सं ० १५३२ वि ० को हुआ था । आपके पिताका नाम श्रीगुरुजनजी और माताका नाम कौशल्या देवी था । महात्मा विठ्ठलविपुलदेव बड़े भगवद्भक्त और रसिक थे । उनके नेत्र , कान और अधर आदि भगवान्की रूप - रस - माधुरीसे सदा संप्लावित रहते थे । वे रसिकराज स्वामी हरिदासजीके शिष्य थे , समकालीन थे । उनकी अनन्य गुरुनिष्ठा थी । स्वामीजीके वे विशेष कृपापात्र थे ।
विट्ठलविपुलदेव हरिदासजीके ममेरे भाई उनसे अवस्थामें कई वर्ष बड़े थे । वे कभी - कभी हरिदासजीके साथ उनकी बाल्यावस्थाके समय भगवल्लीलानुकरणमें सम्मिलित हो जाया करते थे , उनके संस्कार पहलेसे ही पवित्र और शुद्ध थे । तीस वर्षकी अवस्थामें विठ्ठलविपुलदेव वृन्दावन गये , उन्हें कुंज कुंजमें भगवान् श्रीकृष्णकी लीलामाधुरीकी सरस अनुभूति होने लगी । साथ - ही - साथ स्वामी हरिदासके सम्पर्क और सत्संगका भी उनपर विशेष प्रभाव पड़ा । अपने गुरु आशुधीरजी महाराजकी आज्ञासे हरिदासजीने उन्हें दीक्षित कर लिया । वे उनकी कृपासे वृन्दावनके मुख्य रसिकोंमें गिने जाने लगे । वे परमोत्कृष्ट त्यागी और सुदृढ़ रसोपासक थे ।
दीक्षित होनेके बाद उन्होंने वृन्दावनको ही अपना स्थायी निवासस्थान चुना । सं ० १६३१ में स्वामी हरिदासके नित्यधाम पधारनेपर सन्तों और महन्तोंने उन्हें उनकी गद्दी सौंपी , बड़े आग्रह और अनुनय - विनयके बाद उन्होंने उत्तराधिकारी होना स्वीकार किया । गुरुविरहके दुःखसे कातर होकर उन्होंने आँखोंमें पट्टी बाँध ली थी । जिन नेत्रोंने रसिकराजेश्वर हरिदासके दिव्य अंगोंका माधुर्य पान किया था , उनसे संसारका दर्शन करना उनके लिये सर्वथा असहा था
वे बड़े भावुक और सहृदय थे । एक बार वृन्दावनकी सन्त मण्डलीने रासलीलाका आयोजन किया । सर्वसम्मति से महात्मा विट्ठलविपुलदेवको बुलानेका निश्चय किया गया । रसिकप्रवर व्यासजीके विशेष आग्रहपर वे रास - दर्शनके लिये उपस्थित हुए । उनके नेत्रोंसे अश्रुओंकी धारा बह रही थी , शरीर वशमें नहीं था , रास आरम्भ हुआ । प्रिया - प्रियतमकी अद्भुत पदनूपुरध्वनिपर उनका मन नाच उठा । दिव्य - दर्शनके लिये उनके हृदयमें तीव्र लालसा जाग उठी । विलम्ब असा हो गया । भगवान्से भक्तकी विरह - पीड़ा न सही गयी । उनकी आह्लादिनी शक्ति रसमयी रासस्थित श्रीरासेश्वरीने कहा- ' मेरे दर्शन करो । मैं राधा हूँ । ' नित्यकेलिके साहचर्य - रसके स्मरणमात्रने भावावेशमें उन्हें दर्शनके लिये विवश किया । उन्होंने पट्टी हटा दी । नेत्रोंने रासरसिक - शेखर नन्दनन्दन और राधारानीका रूप देखा । वे खुले तो खुले ही रह गये , पट्टी अपने स्थानपर पड़ी रह गयी । विट्ठलविपुलदेवने रासस्थ भगवान् और उनकी भगवत्ता स्वरूपा साक्षात् राधारानीके दर्शन किये । उनके अधरोंपर स्फुरण था- ' हे रासेश्वरी ! तुम करुणा करके मुझे अपनी नित्यलीलामें स्थान दो । अब मेरे प्राण संसारमें नहीं रहना चाहते हैं । ' बस वे नित्यलीलामें सदाके लिये सम्मिलित हो गये । उनकी रसोपासनाने पूर्ण सिद्धि अपनायी । वे भगवान्के रासरसके सच्चे अधिकारी थे , रसिक सन्त और विरक्त महात्मा थे । भगवान्ने उन्हें अपना लिया , कितना बड़ा सौभाग्य था उनका !
श्रीप्रियादासजीने विठ्ठलविपुलदेवजीके नित्यलीलाप्रवेशकी घटनाका वर्णन इस प्रकार किया है
स्वामी हरिदास जू के दास दास बीठल हैं गुरुसे वियोग दाह उपज्यो अपार है । रासके समाजमें विराज सब भक्तराज बोलिकै पठाये आये आज्ञा बड़ो भार है । युगल सरूप अवलोकि नाना नृत्य भेद गान तान कान सुनि रही न सँभार है । मिलि गये वाही ठौर पायौ भावतन और कहे रससागर जो ताको यों विचार है ॥
श्रीजगन्नाथ थानेश्वरीजी महाराज
श्रीजगन्नाथ थानेश्वरीजी महाराज श्रीगौरांग महाप्रभुके शिष्य थे आप बड़े ही सन्तसेवी महात्मा थे और सन्तोंको भगवान्का ही प्रतिरूप मानते थे । एक बार आपके मनमें श्रीजगन्नाथपुरी जाकर महाप्रभु श्रीजगन्नाथजीके दर्शनकी अभिलाषा हुई , परंतु फिर मनमें आया कि मेरे घरपर न रहनेसे सन्तोंका ठीकसे सत्कार न हो पायेगा ; अतः सन्तसेवा छोड़कर भगवान्का दर्शन करने जाना उचित नहीं । भगवान्का दर्शन करनेसे मेरा व्यक्तिगत कल्याण तो होगा , परंतु यहाँ सन्तोंको कष्ट होगा - ऐसा सोचकर आपने पुरी जानेका कार्यक्रम स्थगित कर दिया । तब आपके एक शिष्यने सलाह दी - महाराज ! आप तीन दिनके लिये श्रीजगन्नाथपुरीकी यात्रापर चलिये , उतने दिनतक अन्य लोग यहाँ काम सँभाले रहेंगे । ' शिष्यकी बात आपको ठीक लगी और आपने पुनः चलनेका मन बना लिया । भगवान् जगन्नाथजीने आपका अपने प्रति प्रगाढ़ प्रेम और सन्तोंके प्रति अनन्य निष्ठा एवं सेवा भावना देखी तो गद्गद हो गये तथा लगातार तीन दिनोंतक उन्होंने घरपर ही आपको दर्शन दिया । सन्तसेवाके इस तरहके प्रताप और भगवत्कृपाको देखकर आपने पुनः यात्रा स्थगित कर दी और सन्तसेवामें ही लगे रहे ।
श्रीप्रियादासजी श्रीथानेश्वरीजीपर श्रीजगन्नाथस्वामीकी कृपाका वर्णन इस प्रकार करते हैं
महाप्रभु पारषद थानेश्वरी जगन्नाथ नाथकौं प्रकाश घर दिना तीन देख्यो है । भए शिष्य जान आप नाम कृष्णदास धरयौ , कृष्णजू कहत सबै आदर विसेख्यो है ॥ सेवा ' मनमोहनजू ' कूपमें जनाइ दई , बाहर निकासि करी लाड़ उर लेख्यो है । सुत रघुनाथजूकों स्वप्नमें श्लोकदान दयाके निधान पुत्र दियो प्रेम पेख्यो है ॥
श्रीभगवान्ने गीतामें कहा है कि जो मुझे जिस भावसे भजता है , मैं भी उसका उसी भावसे भजन करता हूँ । महाभारतमें एक उदाहरण आता है कि भीष्म पितामह शरशय्यापर पड़े हुए भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करते थे और इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी ध्यानावस्थामें अपने भक्त भीष्मका ध्यान करते थे । भगवान्का वैसा ही भाव श्रीजगन्नाथ थानेश्वरीजीके प्रति भी था । एक बार श्रीथानेश्वरीजी महाराजने अपने आराध्य श्रीठाकुर मनमोहनजीका वसन्त शृंगार किया , उस समय प्रभुकी अद्भुत सौन्दर्यमयी छविका अवलोकनकर आप भाव - विभोर हो गये और आपकी ध्यान - समाधि लग गयी उस अवस्थामें भी आप प्रभुकी उसी मनमोहनी छविका दर्शन कर रहे थे । आपकी इस तन्मयताको देखकर भगवान् भी मुग्ध हो गये और आपकी भावदशाका दर्शन करनेमें तन्मय हो गये । उस समय भगवान् कीट - भृंग न्यायसे थानेश्वरीजीका दर्शन करते हुए थानेश्वरीजीके ही स्वरूप हो गये । यहाँतक कि उसी समय थानेश्वरीजीका एक शिष्य उनका दर्शन करने आया तो उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि गुरुदेव ही आज भगवद्विग्रहके स्थानपर विराजमान हैं , वस्तुतः भगवान्की तन्मयताके कारण उनके विग्रहका स्वरूप थानेश्वरीजीका ही स्वरूप हो गया था । धन्य हैं ऐसे भक्त और धन्य है भगवान्की भक्तवत्सलता !
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL Mishra
Sanatan vedic dharma
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