श्री लोकनाथ जी के
भक्तिमय जीवन चरित्र
बंगालके जैसोर जिलेमें तालखड़ी नामका एक छोटा - सा मामूली गाँव है । लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व इस गाँवमें एक बहुत ही सम्भ्रान्त कुलके पद्मनाभ चक्रवर्ती नामक ब्राह्मण रहते थे । इनकी पत्नीका नाम था सीतादेवी । इस धर्मप्राण ब्राह्मण - दम्पतीका एकमात्र पुत्र था लोकनाथ घरमें वैष्णव - उपासना परम्परासे चली आ रही थी । स्वयं पद्मनाभ चक्रवर्ती श्रीअद्वैतप्रभुके शिष्य थे और सदा उन्हींकी सेवा - शुश्रूषामें लगे रहते थे । इन सब कारणोंसे लोकनाथको बहुत ही दिव्य संस्कार प्राप्त हुए ।
प्रेमावतार महाप्रभु श्रीचैतन्यदेवका नाम और यश बंगालके कोने - कोने में शुक्ल पक्षके चन्द्रमाकी तरह बढ़ रहा था । लोकनाथके कानोंतक भी यह बात पहुँची और वे उनके दर्शनोंके लिये तड़फड़ाने लगे । उनका मन किसी भी वस्तुमें नहीं लगता । माता - पिताको भय था कि महाप्रभुके संगमें पड़ जानेपर यह लड़का एक दिन रात्रिमें चुपचाप चल पड़े । बेहाथ हो जायगा , अतः उन्होंने बहुत प्रयत्न किया कि वह घरमें ही रहे , किंतु लोकनाथ नहीं रुके एवं एक दिन रात्रि मे चुपचाप चल पङे।
रातभर चलते रहे। दूसरे दिन सन्ध्यासमय वे नवद्वीप पहुँचे । नवद्वीप पहुँचनेपर देखा कि महाप्रभु एक उच्च आसनपर विराजमान हैं और श्रीवासादि भक्तोंकी टोली उन्हें चारों ओरसे घेरे हुए है । लोकनाथकी वाणी मूक थी । दृष्टि गड़ी सो गड़ ही गयी । एकटक महाप्रभुकी ओर देखते ही रह गये । आँगनमें प्रतिमाकी तरह खड़े इस सुकुमार बालकपर महाप्रभुकी दृष्टि गयी । वे दौड़े - दोनों बाँहें फैलाये और लोकनाथको उन्होंने अपनी भुजाओंके पाशमें बाँध लिया भावावेशसे वे प्रभुके वक्षःस्थलपर मूर्छित हो गये । लोकनाथको कुछ पता नहीं चेतना आनेपर लोकनाथ अब पहलेके लोकनाथ नहीं रहे । उनके रोम रोमसे कृष्ण - कृष्णकी मधुर ध्वनि आ रही थी । उनका अंग - अंग हरि - हरि पुकार रहा था । प्राण - प्राणसे प्रभुकी प्रीति छलक रही थी ।
लगातार पाँच दिनोंतक वे इस अपूर्व पागलपनमें रहे । छठे दिन महाप्रभुने लोकनाथको वृन्दावन जानेका आदेश दिया । वे कहने लगे ' भाई । वृक्षोंके नीचे जहाँ स्थान पाओ , वहीं पड़ रहो । आसपाससे मधुकरी माँग लाओ और ओढ़नेके लिये चिथड़ोंकी गुदड़ी बना लो । श्रीयमुनाजीका जल भरपेट पीओ । सम्मानको कराल विष समझो एवं नीचोंके द्वारा अपमानको अमृत श्रीराधा - माधवका भजन करो । किंतु मित्र ! वृन्दावनको मत छोड़ना । '
महाप्रभुकी आज्ञाको लोकनाथ टाल नहीं सके और रोते - रोते उनसे विदा हुए । इनके साथ गदाधर पण्डितके शिष्य भूगर्भ भी तैयार हो गये ।
श्रीलोकनाथजी श्रीमहाप्रभु कृष्णचैतन्यजीके पार्षद थे , इनकी श्रीराधाकृष्णके प्रति अहर्निश एकरस प्रीति थी । रसरूप श्रीमद्भागवत महापुराणका गान , कीर्तन , पारायण इनको प्राणके समान प्रिय था । ये इसमें अत्यन्त सुख मानते थे और कहा करते थे कि जो कोई भी श्रीमद्भागवतका गान करते हैं , वे मेरे मित्र हैं । इस रसभावनामें प्रवीण श्रीलोकनाथजी एक बार मार्गमें जाते हुए एक महानुभावको श्रीमद्भागवतका पाठ करते हुए देखकर उनके चरणोंपर पड़ गये ।
श्रीप्रियादासजीने श्रीलोकनाथजीके इस भागवत - प्रेमका इस प्रकार वर्णन किया है-
महाप्रभु कृष्ण चैतन्यजूके पारषद लोकनाथ नाम अभिराम सब रीति है । राधाकृष्ण लीला सौं रंगीनमें नवीन मन जैसे जल मीन तैसें निसि दिन प्रीति है । भागवत गान रसखान सो तौ प्राण तुल्य अति सुख मान कहैं गावैं जोइ मीति है । रसिक प्रवीन मग चलत चरण लागि कृपा कै जनाय दई जैसी नेह नीति है ।। ३७ ९ ॥ वृन्दावनकी दशा उन दिनों विचित्र थी । घने जंगलों एवं भूमिशायी अस्त - व्यस्त खँडहरोंके सिवा वहाँ कुछ भी नहीं था । वृन्दावनके निवासी भी उस पावन भूमिके महत्त्वको भुला बैठे थे । उन्हें वहाँ न तो चीरघाट मिला न वंशीवट न निधिवन , भाण्डीर - बन , न श्याम और राधाकुण्ड ही क्या करें , कहाँ जायँ , पता लगायें तो कैसे ? अन्ततोगत्वा निराश हो सर्वतोभावसे वे श्रीराधारानीकी शरण होकर ' गोविन्द गोविन्द हरे मुरारे , राधाकृष्ण , गोपीकृष्ण , श्रीकृष्ण प्यारे ' का कीर्तन करने लगे । सहसा एक दिन उन्हें चीरघाटका पता लग गया । ये वहाँ अत्यन्त प्रेमावेशका जीवन बिताने लगे । लोगोंमें इनकी प्रसिद्धि भी हुई , लोगोंने इनके लिये कुटिया भी बनानी चाही । परंतु इनके लिये तो निश्चय किया हुआ था कि रहना किसी पेड़के नीचे हो । यदृच्छासे जो कुछ मिल जाता , उसीसे पेटभर यमुनाका जल पीकर मस्त रहते ।
कुछ दिनों पश्चात् लोकनाथने महाप्रभुके संन्यासकी बात सुनी साथमें यह भी सुना कि वे दक्षिण भारतमें तीर्थयात्रा के लिये गये हैं । ये अत्यन्त उत्कण्ठावश इनसे मिलने दक्षिण भारत पहुँचे तो वहाँ पता चला कि वे वृन्दावनके लिये चल पड़े । ये वृन्दावन पहुँचे तो पुनः पता चला कि वे वृन्दावनसे पुरीके लिये चल पड़े । लोकनाथका हृदय बैठ गया । परंतु स्वप्नमें श्रीमहाप्रभुने इन्हें समझाया कि ' तुम निराश मत होओ , मैं अब राहका भिखारी हूँ । तुम मुझे इस वेषमें देखकर बहुत दुःख पाते , इसीलिये मैं तुमसे नहीं मिला । '
अब लोकनाथ और भूगर्भने चीरघाटपर अपना डेरा जमा लिया और अन्तकालतक वे वहीं बने रहे । रात - दिन कृष्ण - कृष्णकी रट लगाये रहते और रातको बस एक - दो घण्टे सो लेते । न कभी किसीसे मिलते न बात करते लोकनाथने अपने शेष जीवनके दिन वृन्दावनमें भगवान्के भजनका आश्रय लेकर एक आदर्श प्रेमी एवं आदर्श विरहीके रूपमें व्यतीत किये । ' श्रीचैतन्य चरितामृत ' के रचयिता श्रीकृष्णदास कविराज अपने ग्रन्थके प्रणयनके पूर्व लोकनाथ गोस्वामीके चरणों में आशीर्वाद लेने आये । लोकनाथने उसके लिये सहर्ष हाँ भरी , परंतु अपनी एक शर्त रखी - वह यह कि इस ग्रन्थमें उनकी कहीं भी न तो चर्चा आये , न उनसे महाप्रभुके सम्बन्धकी ही बात लिखी जाय ।
इतनी मूक और निरीह उपासना थी लोकनाथगोस्वामीकी ।
श्री मधुस्वामी महाराज
मधुगोस्वामीका जन्म बंगदेशमें हुआ था । बचपनमें भी खेल खेलते समय उन्हें भगवान्की लीलाका सरस स्मरण हो जाया करता था । उनके नयन श्यामसुन्दरकी अभिराम और मोहिनी झाँकी देखने के लिये विकल हो उठते थे । यौवनके प्रथम कक्षमें चरण रखते ही भगवान् और उनके व्रजका विरह वे बहुत दिनोंतक नहीं सह सके । वृन्दावनके लिये चल पड़े । मधुगोस्वामी वृन्दावन पहुँच गये । यहाँ आनेपर इनके मनमें यह चाह बढ़ी कि इन नेत्रोंसे श्रीश्यामसुन्दरके त्रिभुवनमोहनस्वरूपको देखना चाहिये तथा यह देखना चाहिये । कि भगवान्का वह अचिन्त्यानन्त सौन्दर्यस्वरूप कैसा है ? इसी लालसासे ये श्रीवृन्दावनके वन - वन , वृक्ष लता - कुंजोंमें भगवान्को ढूँढ़ते - फिरते । दर्शनकी चटपटीमें इनकी भूख - प्यास मिट गयी । ऐसे बेसुध हुए कि इन्हें छाया - धूपका भी किंचित् भान नहीं रहा । इन्होंने श्यामवर्णवाली कालिन्दीके जलमें खड़े होकर नियम लिया कि ' जबतक वंशीवट - तटपर नित्य रास करनेवाले प्राणदेवता मदनमोहन दर्शन नहीं देंगे , तबतक अन्न जल कुछ भी नहीं ग्रहण करूंगा । ' वृन्दावनके कुंज झूम उठे , उनमें मस्ती छा गयी । नागरिकों , सन्तों और भक्तोंने मस्तकपर उनकी चरणधूलि चढ़ायी । विहारीजीका सिंहासन हिल उठा , वंशीवटकी पवित्र रेती राधारमणने मधुगोस्वामीको दर्शन दिये । सामने श्यामसुन्दर खड़े हैं । मयूरपिच्छका मुकुट लोक लोकान्तरका वैभव समेटकर उनके पीताम्बरपर जो ऐश्वर्य बिखेर रहा था , ब्रह्माकी लेखनी उसकी कल्पना भी नहीं करपाती । उनके श्याम - अंगका प्रतिबिम्ब यमुनाने अपने अंकमें भर लिया । समीर मन्द - मन्द गतिसे प्रवाहित होकर सलोनी और कोमल लताओंको नमनशीलतासे उनके चरण स्पर्श करने लगा । प्रभु वंशी बजा रहे हैं । मधु गोस्वामी निहाल हो गये , भक्तने अपनेको उनके सुरमुनिदुर्लभ पदपंकजपर निछावर कर दिया । व्रज मधु गोस्वामीकी जयध्वनिसे धन्य हो उठा ।
एक बार ये वंशीवटके निकट श्रीयमुनातटपर ( पीठ देकर ) बैठे हुए थे । उस समय श्रीयमुनाजीमें बाढ़ आयी हुई थी , वे ऊपर चढ़ रही थीं । उनका तीव्रवेग बड़े वेगसे करारोंको काट - काटकर गिरा रहा था । उस समय इन्हें श्रीवंशीवटके समीप अनूप रूपसिन्धु श्रीठाकुरजीके दर्शन हुए । इन्होंने दौड़कर श्रीठाकुरजीको गोदमें भर लिया । आज भी वे शिरमौर श्रीठाकुरजी श्रीगोपीनाथजीके रूपमें जयपुरमें विराजमान हैं । बड़भागी जन आज भी उनका दर्शनकर कृतार्थ होते हैं ।
श्रीप्रियादासजीने श्रीमधुगोस्वामीजीके वृन्दावन - प्रेमका इस प्रकार वर्णन किया है श्रीमधुगोसाईं आये वृन्दावन चाह बढ़ी देखें इन नैननिसों कैसोधौँ सरूप है । ढूँढ़त फिरत बन बन कुंज लता द्रुम मिटी भूख प्यास नहीं जानै छाँह धूप है ॥ जमुना चढ़त काट करत करारे जहाँ बंसीबट तट डीठ परो सो अनूप है । अंक भरि लिये दौर अजहूँ लॉं सिरमौर चाहै भाग भाल साथ गोपीनाथ रूप है ॥
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL Mishra
Sanatan vedic dharma
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