Kashi ka mahatma ज्ञान वापी विवाद का समाधान

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  अविमुक्तक्षेत्र वाराणासी का माहात्म्य 


अन्य क्षेत्रे कृतं पापं 
धर्म क्षेत्रे विन्यश्यति ।
 धर्म क्षेत्रे कृतं पापं बज्र लेपो भविष्यति।

अन्य क्षेत्र मे किया गया पाप धर्म क्षेत्र मे जाने से नष्ट हो जाता है । धर्म क्षेत्र मे किया गया बज्र के समान हो जाता है । बिहार कभी नष्ट नही होता है ।

 अज्ञानतावश कलिकाल मे लोग यही कर रहे ।

काशी विश्वनाथ के महात्म्य का वर्णन करना असंभव है । पंचकोश के भीतर जितने सारे घर है ।सभी शिवालय ही है । हमारे सभी देवी देवता विश्वनाथ की तपस्या करके उनकी प्रसन्नता के लिए अलग अलग शिवलिंग की स्थापना की है । काशी के शिवालय कि गणना करना संभव नही है ।असंख्य शिवालय है काशी मे । जिसमे कुछ मुख्य मुख्य शिवालय का वर्णन ही उपलब्ध है । जिसका वर्णन नीचे किया जा रहा है ।

 

ऋषिगण बोले – हे महाबुद्धिमान् सूतजी ! यदि वाराणसी ऐसी पुण्यदायिनी है , तो अब हमलोगोंको उसका प्रभाव कृपापूर्वक बताइये ; हमलोगोंको इस अविमुक्त क्षेत्रके उत्तम माहात्म्यको विस्तारपूर्वक विधिके अनुसार सुननेकी बड़ी उत्सुकता है ॥ 

सूतजी बोले- वाराणसीके अविमुक्तक्षेत्रके अति उत्तम माहात्म्यको मैं भली - भाँति संक्षेपमें बता रहा हूँ , जैसा कि भगवान् शिवने कहा था । हे विप्रेन्द्रो ! मेरे तथा महात्मा ब्रह्माके द्वारा सौ करोड़ वर्षोंमें भी विस्तारसे इसका वर्णन नहीं किया जा सकता है ॥ ३४ ॥ प्राचीन कालमें विवाह करनेके पश्चात् नीललोहित भगवान् शंकरने हिमालयके शिखरसे देवी पार्वती तथा गणेश्वरोंके साथ वाराणसीमें पहुँचकर [ अपने ] अविमुक्तेश्वर लिंग का दर्शन कराया और वहीं रहने लगे ।वाराणासीकुरुक्षेत्र श्रीपर्वत , महालय , तुंगेश्वर और केदार इन का स्थानों में जो पति होता है , वह दूसरे जन्ममें पाशुपतयोग - सिद्ध हो जानेपर एक ही दिनमें सम्यक ( ब्रह्मज्ञानसम्पन्न ) यति हो जाता है । अतः सबकुछ छोड़कर पाशुपतत्रत करना चाहिये और वहाँ देवोद्यानमें वास करना चाहिये । शिवजीका उद्यान अत्यन्त उत्तम है रुने मनसे एक परम सुन्दर भवनका निर्माण किया है । तब नन्दीसहित देव सा परमेश्वरने स्वयं पार्वतीको उस अत्युत्तम देवोद्यान ( आनन्दकानन ) को दिखाया । भगवान् परमेश्वर शंकरने पार्वतीकी प्रसन्नताके लिये इस अविमुक्तक्षेत्रके माहात्म्यका वर्णन किया ॥ 


 वह उद्यान अनेक प्रकारके विकसित गुल्मोंसे सुशोभित था , बाहरसे लता शाखाओं आदिसे अत्यन्त मनोहर था और विरूढ़ पुष्पोंवाले प्रियंगुसे तथा पूर्ण रूपसे खिले हुए काँटेदार केतकीवृक्षोंसे युक्त था । वह सुगन्धसे युक्त तमालके गुच्छोंसे घिरा हुआ था , अत्यधिक पुष्पोंवाले बकुलके वृक्षोंसे सभी ओरसे सुशोभित था और भौरोंकी पंक्तियोंसे शोभायमान तथा खिले हुए पुष्पोंवाले सैकड़ों अशोक तथा पुन्नागके वृक्षोंसे युक्त था ॥ 

             वह उद्यान कहीं विकसित कमलोंक परागसे भूषित पक्षियों सारस , चक्रवाक तथा उन्मत्त श्रेष्ठ केगूल नामक पक्षियोंकी मधुर ध्वनियोंसे सभी ओर विशेष रूपसे गुंजित था ॥ 

 वह सुन्दर उद्यान कहीं - कहीं मयूरोंकी ध्वनिसे निनादित था , कहीं - कहीं कारण्डव पक्षीकी ध्वनिसे शब्दायमान था और कहीं - कहीं मत्त भ्रमर - समूहोंसे तथा मदसे आकुल भ्रमरांगनाओंसे गुंजायमान था ॥ 

 वह उद्यान कहीं - कहीं अति सुगन्धित पुष्पोंसे युक्त था ,कहीं - कहाँ सुन्दर पुष्पोंसे लदे हुए आमके वृक्षोंसे सुशोभित था , लताओंसे परिपूर्ण तिलक वृक्षोंसे समन्त्रित था और विद्याधरों - सिद्धों तथा चारणोंके गायनसे युक्त था ॥ १६ ॥

 वहाँ अप्सराओंका समूह नृत्य करनेमें लीन था , अनेक प्रकारके प्रसन्न पक्षी यहाँ निवास करते थे , वह उद्यान नृत्य करते हुए हात पक्षियोंके समुदायोंसे निनादित था । वह कहीं - कहीं सिंहोंकि नादसे आकुल तथा मत्त मनवाले कस्तूरोमृग समुदायोंसे घरे गये दांकुरों तथा पुष्पोंसे सुशोभित था और कहीं - कहीं अनेकविध विकसित सुन्दर कमलोंसे युक्त सरोवरों तथा सहागोंसे सुशोभित था ॥ १७-१८ 

वह उद्यान वृक्षोंके समुदायों से सम्पन्न था , नीलकण्ठ पक्षियों द्वारा सुन्दर प्रतीत होता था , प्रसन्न मनवाले पक्षियोंसे युक्त था , [ सभी ओर ] ध्वनि होनेसे यह अति सुन्दर था , खिले हुए पुष्पोंवाले वृक्षोंकी शाखाओं में विद्यमान मस्त भौरोंसे सुशोभित था , नूतन कलियोंकी सुन्दरतासे सुशोभित था और ऊंची - ऊंची शाखाओंसे युक्त था ॥ १ ९ 

 यह उद्यान कहाँ - कहाँ दाँतोंसे क्षत की गयी सुन्दर लताओंसे सुशोभित था , कहीं - कहीं लताओंसे वेष्टित वृक्षोंसे मण्डित था और कहीं - कहीं विलासके कारण मन्थर गतिवाली किंपुरुष अंगनाओंसे सेवित था ॥ २० 

 यह उद्यान पारावत पक्षियोंकी ध्वनिसे निनादित तथा गगनचुम्बी श्रृंगवाले वृक्षोंसे , बिखरे हुए पुष्पसमूहों को विभकर देनेवाले श्वेत वर्णक मनोहर तथा सुन्दर रूपवाले हंसोंसे और अनेक देवताओंके दिव्य कुलोंसे सुशोभित है । वह विकसित नीलकमलके हजारों वितानोंसे युक्त है , जलाशयोंसे सुशोभित देवमार्गवाला है और मार्गक मध्यम खिले हुए विचित्र पुष्पोंकी पंक्तिसे सम्बद्ध विविध गुल्मों तथा विटपोंसे समन्वित है ॥ २१-२२ 

 उस वनका प्रान्तभाग तुंग अग्रभागवाले , नीलपुष्प गुच्छोंक भारसे झुकी हुई ऊँची शाखाओंवाले , वायुके द्वारा आन्दोलित होनेपर कानको सुख देनेवाली ध्वनिसे भासित अन्तर्भागवाले मनोहर अशोक वृक्षोंसे युक्त है । वह रात्रि में चन्द्रकी किरणोंसे कुसुमित तिलक वृक्षोंके साथ एकताको प्राप्त है और छाया में सोकर उठे हुए हरिणके समुदाय के द्वारा चरे गये दुर्वांकुरोंके अग्रभागोंसे युक्त है । यह हंसों पंखोंकी वायुसे हिले हुए कमल तथा स्वच्छ और विस्तीर्णजलसे समन्वित है , सरोवरोंके तटपर उत्पन्न तथा चकित कर देनेवाले कदलीपत्रोंकी चाटुकारितामें नाचते हुए मयूरोंसे युक्त है , कहीं पृथ्वी पर मयूरों के पंखमें स्थित चन्दासे अलंकृत भूभागसे सुशोभित है और स्थान - स्थानपर छिपे हुए प्रमुदित , मत्त तथा क्रीडा करते हुए हारीत पक्षिसमूहोंसे सुशोभित है॥२३ -२४ 

 वह उद्यान सारंग हरिणोंसे कहीं - कहीं सुशोभित भागवाला है , कहीं - कहीं विकसित पुष्पोंसे आच्छादित है । कहीं - कहीं प्रसन्नचित्त किन्नरांगनाओंके द्वारा बजायी गयी वीणाओंकी मधुर ध्वनि -गान - नृत्यसे सुशोभित है । वह कहीं लीपी हुई , परस्पर सटी हुई तथा बिखरे पुष्पोंसे सुशोभित मुनियोंकी कुटियोंसे घिरे हुए वृक्षोंसे समन्वित है । वह कहीं जड़से ही फलोंसे लदे हुए , विशाल तथा ऊँचे कटहलके वृक्षोंसे व्याप्त है ॥ २५-२६ 

 वह उद्यान पूर्णतः पुष्पित लतागृहोंमें ले जायी गयी सिद्धोंकी सिद्धांगनाओंके सुवर्णमय नूपुरकी ध्वनिसे रमणीय है , प्रियंग वृक्षोंकी मंजरियोंपर मँडराते हुए भारोंसे सुशोभित है और मोरों की पंक्तियोंसे आस्वादित आम्र तथा कदम्बके पुष्पोंसे समन्वित है ॥ २७ 

 वन पुष्पसमूहोंसे सुवासित वायुसे आन्दोलित शोभित है , भौरोंके द्वारा गिराये गये सुन्दर युक्त है , वृक्षकुंजोंमें अत्यधिक डरी हुई मण्डित है और वायुसे प्रेरित है । वह उद्यान मनुष्य को मोक्ष देनेवाला है ॥ २८

वह चन्द्रमाकी किरणोंके जालसे विविध रंगोंवाले मनोहर तिलकवृक्षोंसे युक्त है , सिन्दूर - कुंकुम तथा कुसुम्भ रंगकी आभावाले अशोक वृक्षोंसे युक्त है और सुवर्णकी कान्तिवाले , विशाल शाखाओंवाले तथा पुष्पोंसे लदे हुए कनेर वृक्षोंसे युक्त है ॥ २ ९ 

उस उद्यानकी भूमि कहीं - कहीं अंजनके चूर्णके समान तआभावाले , कहीं विद्रुमके समान कान्तिवाले और कहीं में सुवर्णसदृश प्रभावाले पुष्पोंसे आच्छादित रहती थी ॥ ३०

 उस उद्यानमें पुन्नागके वृक्षोंपर सैकड़ों पक्षियों की ध्वनि होती रहती थी , गुच्छोंके भारसे रक्त अशोकवृक्ष झुके रहते थे , रम्य सीमास्थलपर थकानको हरनेवाले भवन थे और खिले हुए कमलोंपर भौंरे मँडराते रहते थे ॥ ३१ 

उस समय हिमालयपुत्री [ पार्वती ] और मत्त , प्रसन्न तथा शरीरसे पुष्ट प्रिय गणेश्वरोंके साथ विद्यमान सम्पूर्ण भवनोंके भर्ता शिवने अनेकविध विशाल वृक्षोंवाले अत्यन्त रम्य उपवनको देवीको दिखाया ॥ ३२ 


 शिवजीने अत्यन्त सुन्दर वन्य पुष्पोंसे बनाये गये दिव्य आभूषणोंसे उपवनमें गयी हुई दिव्य देवीको सजाया और उन पार्वतीने भी अत्यन्त सुन्दर दिव्य पुष्पोंसे इन देवदेव शंकरको भक्तिपूर्वक अलंकृत किया ॥ ३३ 

 तदनन्तर उस अत्यन्त रम्य उद्यानको देखकर नन्दी आदि गणेश्वरोंके साथ देवताओंके लिये पूज्य देव[ शंकर ] की पूजा करके और उन्हें प्रणामकर देवी [ पार्वती ] कहने लगीं ॥ ३४ 

श्रीदेवी बोलीं- हे देव ! आपने परम शोभासे युक्त उद्यानको मुझे दिखाया ; अब आप इस क्षेत्रके समस्त गुणोंको मुझे बतानेकी कृपा करें । हे देवेश ! हे देवदेव ! हे वृषभध्वज ! आप इस अविमुक्तक्षेत्रका माहात्म्य पूर्णरूपसे बतायें ॥ ३५-३६ 

 सूतजी बोले – [ हे ऋषियो ! ] तब देवीका वह वचन सुनकर देवदेव श्रेष्ठ प्रभु उनके मुखकमलको सूँघकर हँसते हुए पार्वतीसे कहने लगे ॥ ३७ 

श्रीभगवान् बोले- वाराणसी नामक यह मेरा नित्य गुह्यतम क्षेत्र है ; यह सर्वदा सभी प्राणियोंके मोक्षका हेतु है । हे देवि ! इस [ क्षेत्र ] में सिद्ध लोग सदा मेरे व्रतमें स्थित रहते हैं और मेरे लोककी अभिलाषा करनेवाले लोग नित्य अनेकविध लिङ्गोंको धारण किये रहते हैं ।

अनेक प्रकारके वृक्षोंसे युक्त , अनेक प्रकारके पक्षियोंसे सुशोभित , कमल तथा उत्पलके पुष्पोंसे सम्पन्न सरोवरोंसे अलंकृत और अप्सराओं तथा गन्धर्वोसे सेवित इस शुभ क्षेत्रमें युक्तात्मा जितेन्द्रिय लोग श्रेष्ठ योगका अभ्यास करते हैं ॥ ३८-४१ 

 [ हे देवि ! ] जिस कारणसे मुझे यहाँ निवास करना अच्छा लगता है , उसे सुनो । मुझमें अपने मनको स्थिर रखनेवाला तथा मुझमें सदा सभी क्रियाएँ अर्पित करनेवाला मेरा भक्त जिस प्रकारका मोक्ष यहाँ प्राप्त करता है , वैसा अन्यत्र कहीं भी नहीं । हे देवि ! यहाँ मरनेवाला प्राणी मोक्ष प्राप्त करता है । मेरा यह पुर दिव्य , गुह्यसे भी गुह्यतम तथा महान् है - इसे ब्रह्मा आदि , सिद्धगण तथा मुक्तिके इच्छुक लोग जानते हैं । अतः यह परम क्षेत्र मेरी परम गति है । मैंने कभी भी इसका त्याग नहीं किया है और न तो कभी इसका त्याग करूँगा , अतः मेरा यह क्षेत्र अविमुक्त कहा गया है ॥ ४२-४५३ 

 नैमिषारण्य , कुरुक्षेत्र , हरिद्वार तथा पुष्करमें स्नान करने तथा वहाँ निवास करनेसे मोक्ष नहीं प्राप्त होता है , बल्कि यहाँ प्राप्त हो जाता है , अतः यह [ अन्य तीर्थोंसे ] विशिष्ट है । प्रयागमें अथवा यहाँपर मेरे परिग्रहके कारण मुक्ति होती है ; तीर्थोंमें अग्रणी ( श्रेष्ठ प्रयागसे भी शुभ यह अविमुक्त [ क्षेत्र ] है ।। ४६ - ४८ 

धर्मका सारतत्त्व सत्य है , मोक्षका सारतत्त्व शम है ।किंतु क्षेत्रतीर्थके सारतत्त्वको ऋषिगण भी नहीं जानते ।इच्छानुसार खाता हुआ , सोता हुआ , क्रीड़ा करता हुआ तथा अनेक क्रियाएँ करता हुआ भी प्राणी इस अविमुक्तक्षेत्र में प्राणत्याग करे , तो वह मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ५० 

    यहाँ हजारों पाप करके पिशाचत्वको प्राप्त होना मनुष्योंके लिये अच्छा है , किंतु काशीपुरीको छोड़कर स्वर्गमें हजार बार इन्द्र होना अच्छा नहीं है । अतएव मुक्तिके लिये इस अविमुक्तक्षेत्र में निवास करना चाहिये । महातपस्वी महर्षि जैगीषव्यने इस क्षेत्रके माहात्म्यसे तथा मेरी भक्तिसे युक्त होकर परम सिद्धि प्राप्त की थी । महर्षि जैगीषव्यकी श्रेष्ठ गुफा योगियोंकी स्थली मानी जाती है । योगी लोग वहाँ सदा मेरा ध्यान करते हैं और वहाँ योगकी अग्नि तीव्रतासे प्रज्वलित होती रहती है । मनुष्य [ यहाँ ]परम कैवल्य ( मोक्ष ) प्राप्त करता है , जो देवताओंके लिये है भी दुर्लभ है ॥ ५१-५४ 

अव्यक्त लिङ्गोंवाले तथा सभी सिद्धान्तोंको जाननेवाले स मुनिगण यहाँ मोक्ष प्राप्त करते हैं , जो अन्यत्र कहीं भी ह दुर्लभ है । मैं उनके लिये अत्युत्तम योगैश्वर्य तथा अपने सायुज्यरूप अभीष्ट स्थानको बताऊँगा । मेरे क्षेत्रमें अपनी सभी क्रियाएँ मुझमें समर्पित करनेवाले कुबेरने क्षेत्रके सेवनसे ही गणेशत्वको प्राप्त किया था । हे देवि ! जो ऋषि संवर्त नामक मेरे भक्त जन्म लेंगे , वे भी यहाँ मेरी आराधना करके उत्तम सिद्धि प्राप्त करेंगे । हे कमलनयने ! महातपस्वी पराशरपुत्र योगी ऋषि व्यास मेरे भक्त होंगे , वेदसंहिताओंका प्रवर्तन करनेवाले वे मुनिश्रेष्ठ भी इस क्षेत्रमें विहार करेंगे । हे सुव्रते ! देवर्षियोंके साथ ब्रह्मा , विष्णु , सूर्य , देवराज इन्द्र अन्य देवता लोग तथा महात्मा- ये सब यहाँपर मेरी उपासना करते हैं ॥ ५५-६१ 

अन्य दिव्य योगी तथा महात्मा लोग भी प्रच्छन्न [ गुप्त ] रूप धारणकर एकाग्रचित्त होकर यहाँपर सदा मेरी उपासना करते रहते हैं । विषयोंमें आसक्त मनवाला तथा धर्मका त्याग किया हुआ मनुष्य भी यदि इस क्षेत्रमें मृत हो जाय , तो वह भी संसारमें पुनः जन्म नहीं प्राप्त करता है ; तो फिर हे सुव्रते ! जो ममतारहित , धीर , सत्त्वगुणमें स्थित , जितेन्द्रिय , व्रती , कर्मप्रवृत्तिसे रहित , मुझमें ध्यानरत , बुद्धिमान् तथा संगरहित हैं - वे सब [ मुझ ] देवदेवको प्राप्त करके मेरी कृपासे यहाँ श्रेष्ठ मोक्ष अवश्य प्राप्त करते हैं । हे सुव्रते ! हजारों जन्मोंमें भी योगी जिस [ मोक्ष ] -को प्राप्त नहीं कर पाता है , उस उत्तम मोक्षको वह यहाँपर मेरी कृपासे प्राप्त कर लेता है ॥ ६२-६६ 

 हे वरानने ! पूर्वकालमें यहाँ ब्रह्माके द्वारा स्थापित किये गये कैलास भवन नामक इस गोप्रेक्षक क्षेत्रको देखो । इस गोप्रेक्षक [ क्षेत्र ] -में आकर मेरा दर्शन करके मनुष्य दुर्गति नहीं प्राप्त करता है और पापोंसे छूट जाता है । इसीइसी प्रकार यहाँपर ब्रह्माने गायोंके दूधसे कपिलाहृद नामक विशाल तथा पुण्यतम तीर्थका निर्माण किया है । यहाँ भी य मैं स्वयं वृषध्वज - इस नामसे विख्यात हूँ । हे देवि ! मैंने सदासे यहाँ निवास किया है ; ऐसा आप देखती भी

हैं ॥ ६७-७० ॥ यहाँ ब्रह्माके द्वारा निर्मित किये गये भद्रतोय नामक सरोवरको देखो । हे देवि ! सभी देवताओंने ' हे ईश ! शान्त हो जाइए'- ऐसा कहकर इस स्थानपर मुझ शिवको प्रसन्न किया था , तब मैं शान्त हो गया था । परमेष्ठी ब्रह्माने यहाँ लाकर मुझे स्थापित किया । ब्रह्माजीसे प्राप्त करके विष्णुने पुनः स्थापित किया । तब दुःखी चित्तवाले ब्रह्माने विष्णुसे कहा- आपने मेरे द्वारा लाये गये इस लिङ्गको क्यों स्थापित किया ? तत्पश्चात् विष्णु कुपितमुखवाले उन ब्रह्मासे पुनः बोले- रुद्र देवतामें मेरी अत्यधिक , श्रेष्ठ तथा महत्तर भक्ति है , मेरे द्वारा स्थापित किया गया यह लिङ्ग आपके ही नामसे प्रसिद्ध होगा ॥ ७१–७५ [ हे देवि ! ] मैं तभीसे यहाँ हिरण्यगर्भ इस नामसे स्थित हूँ । इन देवेश्वरका दर्शन करके मनुष्य मेरा लोक प्राप्त करता है । तत्पश्चात् ब्रह्माने परम भक्तिसे युक्त होकर मेरे इस पवित्र लिङ्गको विधिपूर्वक पुनः स्थापित किया । मैं यहाँ स्वर्लीनेश्वर नामसे स्वयं विद्यमान हूँ ; यहाँ प्राणत्याग करने पर या मनुष्य कभी जन्म नहीं लेता है । जो गति योगियोंकी कही गयी है , वह अनन्य गति उसकी भी होती है । ७६-७८३ ॥ इसी स्थानपर मैंने व्याघ्रका रूप धारण करके न परी [ श्रीलिङ्गमहापुराण रत , प्राप्त में देवताओंके लिये कंटकस्वरूप एक अभिमानी तथा बलवान् दैत्यका वध किया था ; [ तभीसे ] व्याघ्रेश्वर इस नामसे प्रसिद्ध होकर मैं यहाँ सदा स्थित हूँ । इन व्याघ्रेश्वरका दर्शन करके मनुष्य पुनः दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता है ।

पूर्वकालमें उत्पल तथा विदल नामक जिन दो दैत्योंके लिये ब्रह्माने स्त्रीके द्वारा वध्य होनेका विधान किया था , उन्हें अभिमानयुक्त देखकर आपने ही रणमें अवज्ञापूर्वक एक कन्दुकसे मार डाला था ; आपके उसी कन्दुकका यह । देह यहाँ स्थापित हो गया अर्थात् वह कन्दुक लिङ्गरूपमें परिणत होकर स्थापित हो गया ॥ ७ ९ -८२

 प्रारम्भमें गणपोंके साथ आकर मैं यहाँ स्थित हो गया , क अत : यह ज्येष्ठस्थान है ; यहाँ मेरा दर्शन पुण्यप्रद है । देवताओंने नी यहाँ सभी ओर इन लिङ्गोंको स्थापित किया है ; अतः ने भक्तियुक्त होकर इन लिङ्गोंका केवल दर्शन करके मनुष्य मृत्यु होनेपर [ शिवका ] गण हो जाता है ॥ ८३-८४

हे देवि ! पूर्वकाल में स्वयं तुम्हारे पिता पर्वत राज हिमालयने इसे मेरा प्रिय तथा हितकर स्थान समझकर यहाँ लिङ्गकी स्थापना की थी । शैलेश्वर नामसे प्रसिद्ध इस लिङ्गको तुम आदरपूर्वक देखो । हे देवि ! इसका दर्शन करके मनुष्य दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता है ॥ ८५-८६ 

 हे देवि ! पुण्यमयी तथा पापको नष्ट करनेवाली यह वरुणा नदी इस क्षेत्रको अलंकृत करके गंगाके साथ मिल जाती है । इनके संगमपर भी ब्रह्माके द्वारा उत्तम लिङ्ग स्थापित किया गया है , यह संगमेश्वर- इस नामसे जगत्में प्रसिद्ध तुम इसका दर्शन करो । देवनदीके संगमपर स्नान करके शुद्ध होकर जो मनुष्य संगमेश्वरकी पूजा करता है , उसे जन्मभय कहाँसे हो सकता है ! ।। ८७-८९ 

 [ हे देवि ! ] मैं इसे महाक्षेत्र मानता हूँ , यह योगियों का परम निवास स्थान है । इस श्रेष्ठ क्षेत्रके मध्यमें मैं स्वयं प्रकट होकर अधिष्ठित हूँ । सभी सुर तथा असुर [ यहाँ ] मुझे मध्यमेश्वर - इस नामसे कहते हैं । मेरा व्रत धारण करनेवाले सिद्धों और मोक्षकी अभिलाषावाले तथा ज्ञानयोगमें परायण मनवाले योगियोंका यह निवास स्थान है । इन मध्यमेश्वरका दर्शन कर लेनेपर मनुष्य अपने जन्मके विषयमें चिन्ता नहीं करता है ॥ ९ ० - ९ २ ।।

 भृगुपुत्र शुक्राचार्यने भी यहाँ लिङ्गको स्थापित किया है ।शुक्रेश्वर नाम से विख्यात यह लिङ्ग सभी सिद्धों तथादेवताओंसे पूजित है । नियमित होकर इनका दर्शन करके कर मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है और मरनेपर पुनः संसारी जीव नहीं होता है ।। ९ ३ - ९ ४ 

 पूर्वकालमें देवताओंके लिये कंटकस्वरूप एक दैत्य सियारके रूपमें विद्यमान था । अपने बन्धनसे सशंकित उस दैत्यने ब्रह्मासे वर प्राप्त करके गोमायु ( सियार ) का रूप धारण कर लिया था । हे पार्वति ! मैंने उसका वध किया और तब मैं जम्बुकेश कहा जाने लगा ; आज भी लोकमें प्रसिद्ध तथा देवताओं और असुरोंसे पर नमस्कृत इन देवेश्वरका दर्शन करके मनुष्य समस्त जा कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । [ हे देवि ! ] शुक्र आदि ॥ प्रधान ग्रहोंके द्वारा स्थापित किये गये इन पुण्यमय तथा का सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले लिङ्गोंका दर्शन करो । वयं हे पार्वति ! इस प्रकार मैंने अपने निवासस्वरूप इन पवित्र ] लिङ्गोंका वर्णन किया ; मेरे क्षेत्रमें एक अन्य गुप्त रहस्य रण भी है , इसे सुनो । ९ ५ - ९ ८

 गम यह क्षेत्र चारों दिशाओंमें चार कोस अतएव एक योजनमें कहा गया है ; हे सुन्दर अंगोंवाली ! मृत्युकालमें इसे अमरता प्रदान करनेवाला जानो । महालय गिरिमें विराजमान और केदारपर स्थित मेरा दर्शन करके मनुष्य गणत्व प्राप्त करता है , किंतु इस क्षेत्रमें मोक्षकी प्राप्ति होती है । उन स्थानों में गणपति पद प्राप्त होता है और यहाँपर उत्तम मुक्ति प्राप्त होती है , अतः हे वरानने । उस महालय , केदार तथा मध्यम क्षेत्र - इन सबसे पुण्यप्रद यह अविमुक्त क्षेत्र कहा गया है । केदार , मध्यमक्षेत्र तथा महालय स्थान- ये तीनों पृथ्वीलोकमें मेरे पवित्र क्षेत्र हैं , किंतु यह [ अविमुक्तक्षेत्र ] उनसे भी अधिक श्रेष्ठ है ।। ९९ -१०३ 

 जबसे इन लोकोंकी सृष्टि की गयी है , तबसे मैंने इस पवित्र क्षेत्रका परित्याग कभी नहीं किया , इसलिये यह अविमुक्त [ क्षेत्र ] हो गया । यहाँ मेरे अविमुक्तेश्वर लिङ्गका दर्शन करके मनुष्य शीघ्र ही पापोंसे मुक्त होकर पशुपाशों ( जीवबन्धन ) से छूट जाता है । शैलेश्वर , संगमेश्वर , स्वलीनेश्वर , मध्यमेश्वर , हिरण्यगर्भ , ईशान , गोप्रेक्ष , वृषभ ध्वज , उपशान्त , ज्येष्ठस्थानमें निवास करने वाला शिव ,शुक्रेश्वर , प्रसिद्ध व्याघ्रेश्वर तथा जम्बुकेश्वरका दर्शन करके मनुष्य दुःखके सागररूप संसारमें [ पुनः ] जन्म नहीं लेता है ॥ १०४-१०७

     सूतजी बोले- [ हे ऋषियो ! ] ऐसा कहकर महादेवने सभी दिशाओंकी ओर देखा । [ दिशाओंकी और ] देखकर देवदेव महेश्वरके बैठ जानेके अनन्तर वह सम्पूर्ण स्थान सहसा देदीप्यमान हो गया । तत्पश्चात् भस्म लगानेसे श्वेत प्रभावाले , नियम - व्रत धारण करनेवाले , पशुपतिके भक्त और महेश्वरके प्रति समर्पित बहुत से सैकड़ों सिद्ध तथा महात्माओंने वहाँ आकर महेश्वरको प्रणाम किया , पुनः वे ध्यानयोगमें स्थित योगेश्वर [ शिव ] को बार - बार देखकर अपने मनको स्थिर करके उन ईश्वरमें लीन होते हुए से स्थित हो गये । उनके इस प्रकार स्थित होनेपर वे देवदेव उमापति परम मूर्ति धारण करते हुए विराट् पुरुषके रूपमें हो गये ; वे सम्पूर्ण जगत्‌को एक स्थानपर एकत्र करनेके लिये प्रलयकालके समान खड़े हो गये ॥ १०८-११३ 

तब पुलकित रोमोंवाली पार्वती वहाँ स्थित उन जगत्प्रभुकी उस परम मूर्तिको पुनः देखने में समर्थ न हो सकीं । तदनन्तर पहले कभी न देखे गये उस स्वरूपको प्रकृतिमें स्थित समझकर वे परमेश्वरी योगके द्वारा प्रकृतिका रूप धारणकर महात्मा शिवके उस स्वरूपको पुनः देखने में समर्थ हो गयीं ॥ ११४-११५ 

तब अत्यन्त सुन्दर पंचाक्षर मन्त्रका स्मरण करते हुए दग्ध लिङ्गवाले वे सभी योगी शिवके ध्यानमें लीन होकर उन [ विराट् ] पुरुषके हृदयमें प्रविष्ट हुए । तदनन्तर शिवजीने सभी पापोंका हरण करनेवाले , दिव्य तथा पूर्वमें प्रकट किये गये नीललोहितमूर्तिस्थ रूपको पुनः धारण किया ॥ ११६- ११८

  उस रूपको देखकर पुलकित समस्त रोमोंवाली पार्वतीने स्तुति करते हुए तथा उनके चरणों में प्रणाम करके कहा- ' हे भगवन् ! ये कौन हैं ? 'तब सुरश्रेष्ठ [ शिव ] पर्वतराजकी उन पुत्रीसे कहने लगे ॥ ११ ९ 

 श्रीभगवान् बोले- हे भामिनि ! मेरे व्रतका आश्रय लेकर जिन - जिन भक्तियुक्त श्रेष्ठ द्विजोंने यहाँ योगका अभ्यास किया है , उनके एक जन्ममें ही इस क्षेत्रके प्रभाव तथा उनकी भक्तिके कारण मैं स्वयं विग्रहरूपसे इस प्रकारका अनुग्रह करता हूँ । अतः यह महान् क्षेत्र ब्रह्मा आदि [ देवताओं ] , वेदज्ञ श्रेष्ठ ब्राह्मणों , सिद्धों तथा तपस्वियोंके द्वारा सेवित है । हे देवि ! प्रत्येक महीनेमें दोनों पक्षोंकी अष्टमी तथा चतुर्दशीको वाराणसीमें शिवकी पूजा की जाती है । सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहणके अवसरपर , विशेषकर कार्तिक महीनेमें , पुण्यप्रद सभी पर्वोंमें , विषुवत् तथा अयन संक्रान्तियोंमें पृथ्वीपर स्थित सभी तीर्थ वाराणसी में विद्यमान उत्तरवाहिनी , पुण्यमयी , मेरे सिरसे निकली हुई , तुम्हारे पिता गिरिराज हिमालयकी पुत्री , पुण्यमयस्थानमें विराजमान और सदा पुण्य दिशाकी ओर प्रवाहित होनेवाली पवित्र गंगाका सेवन करते हैं । हे वरानने ! सभी ओरसे आकर जो उन भागीरथीका सेवन करते हैं , उन्हें सुनो ॥ १२० - १२७ 

 हे देवि ! हे सुव्रते ! कुरुक्षेत्र , पुष्कर , निमिष , प्रयाग , पृथूदक , द्रुमक्षेत्र , कुरुक्षेत्र , तीर्थमय नैमिष , सभी क्षेत्र , देवता , ऋषिगण , सन्ध्या , ऋतुएँ , सभी नदियाँ , सभी सरोवर , सातों समुद्र तथा समस्त देवतीर्थ एकीभूत होकर सैकड़ों तीर्थोसहित सभी पर्वोके अवसरपर भागीरथी में आकर मिल जाते हैं ; और हे सुरेशानि ! सभी पर्वोपर अविमुक्तेश्वर तथा त्रिविष्टपका दर्शन करके पुनः कालभैरव पहुँचकर पूर्णरूपसे पापमुक्त हो जाते हैं । पृथ्वीपर जो भी पवित्र तथा महान् आयतन ( देवालय ) हैं , वे समस्त पर्वोके अवसरपर महापापोंका नाश करनेवाले क्षेत्रश्रेष्ठ पुण्यमय अविमुक्तमें आकर प्रविष्ट हो जाते हैं ।। १२८-१३३ 

 केदार [ खण्ड ] में स्थित लिङ्ग , महालयमें स्थित लिङ्ग , मध्यमेश्वर नामक लिए ककर्णेश्वर , नी दोनों गोकर्णेश्वर द्रुमचण्डेश्वर , अत्युत्तम भद्रेश्वर , स्थानेश्वर , एकाग्रेश्वर , कालेश्वर , अजेश्वर , भैरवेश्वर , ईशान , ओंकारेश्वर , अमरेश्वर , महाकालेश्वर ज्योतिष तथा भस्मगात्र आदि तथा अन्य जो प्रसिद्ध अरसठ मेरे पवित्र स्थान इस भूतलपर हैं एवं जो अन्य सभी लोकप्रसिद्ध स्थान हैं ; वे सब वाराणसीमें मेरे पास सभी पुण्यप्रद पर्वोपर आ जाते हैं । [ हे देवि ] इसी कारणसे यहाँपर मृत्युको । प्राप्त प्राणी दिव्य अमृत ( अमर ) पद प्राप्त करता है ; मैंने  यह रहस्यमय बात कही है ॥ १३४-१३९ 

 हे शुभे ! [ वाराणसीमें ] गंगामें स्नान करके मेरा दर्शन करनेसे मनुष्य सैकड़ों - हजारों समस्त यज्ञोंके अभीष्ट फलोंके समान फल शीघ्र ही प्राप्त करता है , इससे बढ़कर आश्चर्य क्या हो सकता है ? हे देवि ! स्वर्गमें , पृथ्वीपर तथा पर्वतोंपर जो भी सभी प्रधान देवस्थान हैं , उनमें मेरे द्वारा बताये गये इस वाराणसीक्षेत्रको सबसे श्रेष्ठ जानो । ब्राह्मणोंने वेदोंमे वर्णित पापको ' अवि ' शब्दसे कहा है , यह क्षेत्र उस [ पाप ] -से मुक्त है तथा मेरे द्वारा सेवित है , अतः इसे ' अविमुक्त ' कहा जाता है ॥ १४०-१४३

 ऐसा कहकर सभी लोकोंके स्वामी भगवान् रुद्र पुनः बोले- ' देवेशि ! मेरे इस अविमुक्त निवास स्थानको भली भाँति देखो । ' ऐसा कहनेके बाद उन देवीको साथ लेकर । भगवान् उमापतिने उन्हें अत्युत्तम श्रीपर्वत दिखाया और वे वहाँ अविमुक्तेश्वरमें उनके साथ नित्य रहने लगे । सर्वत्र गमनकी शक्ति होने तथा सर्वव्यापी होनेके कारण सर्वात्मा , सत् पवाले , देवताओंके स्वामी तथा सभी प्राणियोभगवान् शिव उन देवीके साथ श्रीपर्वतपर [ पवित्र ] क्षेत्र दिखाने लगे ॥ १४४

 


यहाँ कुवर , आशालिङ्ग , देवेश्वर , दिव्स्थापित महान् रामेश्वर , दक्षिण समलेश्वर , पूर्व द्वारके समीप स्थित और पर्वतके साथ वृद्धिको प्राप्त ऋ सर्वदेवनमस्कृत उत्तम त्रिपुरान्तक , तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध च मध्यमेश्वर , पूर्वकालमें देवताओंके द्वारा स्थापित वरप्रद द्व अमरेश्वर , गोचर्मेश्वर , ईशान , अद्भुत इन्द्रेश्वर और स् अपने कार्यके लिये ब्रह्माके द्वारा स्थापित विशाल कर्मेश्वर है लिङ्ग हैं । हे अव्यये ! श्रीमत्सिद्धवट सदा मेरा निवासस्थान है । साक्षात् ब्रह्माके द्वारा निर्मित यह दिव्य तथा पवित्र अजबिल नामक स्थान है , वहीं बिलेश्वरमें मेरी दिव्य व पादुकाएँ भी हैं । वहाँ शृंगाटक पर्वतके मध्य शिखरपरश्रृंगार केआकारवाला ( त्रिकोण ) श्रृंगाटकेश्वर नामक लिङ्ग है , जो श्रीदेवी ( लक्ष्मी ) के द्वारा स्थापित किया गया है ।यस मल्लिकार्जुन मेरा शुभ निवासस्थान है । हे देवि ! युगादिके परिवर्तित होनेपर ब्रह्माके द्वारा स्थापित रजेश्वरको , स्कन्दके द्वारा स्थापित गजेश्वरको , अविनाशी कपोतेश्वरको तथा सबसे अधिक शुभ और करोड़ों रुद्रगणोंके द्वारा सेवित कोटीश्वर नामक महातीर्थको इस समय देखो ॥ १४८-१५७


दक्षिण में ब्रह्माके द्वारा तथा उत्तरमें विष्णुके द्वारा स्थापित किये गये पाषाणनिर्मित सुन्दर द्विजदेवकुल नामक लिङ्गको , पूर्वमें मेरे द्वारा स्थापित महाप्रमाण लिङ्ग तथा पश्चिममें पर्वतपर स्थित ब्रह्मेश्वर अलेश्वर नामक लिङ्गको देखो । महादेवने ब्रह्मासे कहा था - ' हे ब्रह्मन् ! आपने मुनियोंके साथ इसे अलंकृत किया है'- ऐसा कहकर वे रुद्र उस गृहमें स्थित न हो गये , अतः उसे अलंगृह कहा गया है ।। १५८-१६० 

हे तीर्थज्ञे ! वहाँपर स्थित मेरे व्योमलिङ्ग तीर्थको भी देखो ; कदम्बेश्वर नामवाला यह तीर्थ स्कन्दके द्वारा स्थापित किया गया है । नन्द आदिके द्वारा विधिवत् स्थापित गोमण्डलेश्वरको भी देखो । हे वरानने । शोभासम्पन्न देव - हृद ( सरोवर ) के तटपर इन्द्र आदि सभी देवताओंके द्वारा स्थापित किये गये मेरे इन स्थानोंका अवलोकन करो । हे देवि ! हारपुरमें तुम्हारे हारके गिर जानेपर तुमने जगत्के हितके लिये इसे हारकुण्ड बना दिया था । हे सुव्रते । शिवरुद्रपुरमें उस पर्वतपर तुम्हारे पिता सुशैलने अचलेश्वरकी स्थापना की थी , जिसे मैंने ब्रह्मा आदि ऋषियोंके साथ सुशोभित किया था । हे देवि ! तुम्हारी पुत्री चण्डिकेशाने चण्डिकेश्वरको स्थापित किया है , चण्डिकाके द्वारा स्थापित यह स्थान उत्तम अम्बिकातीर्थ है । यह रुचिकेश्वर तीर्थ है , यह पवित्र कपिलधारा [ तीर्थ ] है ।। १६१-१६६३ 


हे देवि ! जो इन विविध स्थानों तथा तीर्थो में भक्तिपूर्वक सदा मेरी पूजा करता है , वह मेरे साथ आनन्द करता है । जो ब्राह्मण श्रीशैलपर शरीरत्याग करता है , वह पर पापरहित होकर मुक्त हो जाता है , जिस प्रकार अविमुक्त क्षेत्रमें शुभ फल होता है , इसमें सन्देह नहीं है । हे सुव्रते । जो इन स्थानों में विधिपूर्वक घृतसे महास्नान कराता है , वह मेरा सायुज्य प्राप्त करता है । पच्चीस पल [ घृत ] का ' अभ्यंग ' तथा सौ पलका ' स्नान ' जानना चाहिये । दो हजार पलोंसे स्नान करानेको ' महास्नान ' कहा गया है ॥ १६७-१७०

जो मेरे लिङ्गको गायके घीसे स्नान कराकर सभी पूजाद्रव्योंसे विशुद्ध करके जलसे मेरा अभिषेक करता है- इस प्रकार मार्जन करनेसे सौ यज्ञोंका , स्नान करानेसे तथा पूजा करानेसे लाख लाख यज्ञोंका तथा गीतवाद्य आदिसे अर्चन करनेपर अनन्त यज्ञोंका फल प्राप्त होता है । महास्नानमें रुचि रखनेवा भक्तोंको स्नानका आठ गुना ( आठ लाख यज्ञोंका ) फल बताया गया है । केवल जलसे अथवा भक्तिपूर्वक गन्धयुक्त जलसे अभ्यंग पचीस पलसे करना चाहिये ॥ १७१-१७४ 


 विधिपूर्वक शमीपुष्प , बिल्वपत्र , कमल तथा अन्य पुष्प अर्पित करना चाहिये ; बिल्वपत्रका त्याग [ कभी नहीं ] करना चाहिये । महादेवकी पूजा चार अथवा आठ द्रोण पुष्पोंसे करनी चाहिये और दस अथवा आठ द्रोण नैवेद्य अर्पित करना चाहिये । धनहीन ब्राह्मणके लिये एक आढक नैवेद्यका पुण्य सौ द्रोण नैवेद्यके पुण्यके समान बताया गया है , इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १७५-१७७ 


 भेरी , मृदंग , मुरज , तिमिर , पटह आदि विविध वाद्य यन्त्रों और अन्य प्रकारके निनादोंके द्वारा [ रात्रिमें ] जो जागरण करे , उसे अपने सेवकों , पुत्रों , पत्नी , सम्बन्धियों तथा बन्धुओंके साथ प्रदक्षिणा करके उत्तम लिङ्गसे इस ॥

प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये- ' हे सुरेश्वर ! हे शंकर ! मैंने जो भी द्रव्यहीन , क्रियाहीन तथा श्रद्धाहीन [ पूजन ] किया है अथवा जो नहीं भी किया गया है , उसे आप कृपा करके क्षमा करें – यह प्रार्थना करके त्वरित रुद्र तथा शान्तिमन्त्रका जप करना चाहिये । पंचाक्षरके महाबीजका जप करके वह सभी तीर्थों में जाने तथा सभी यज्ञोंको करनेसे जो फल होता है , उस फलको प्राप्त कर लेता है और वाराणसी में मरनेपर जो सायुज्य गति होती है , मेरे उस सायुज्यको प्राप्त कर लेता है , इसमें सन्देह नहीं है । [ हे देवि ! ] मेरे भक्तोंको चाहिये कि मेरी प्रसन्नता के लिये विधिपूर्वक यह सब करें । जो ऐसा नहीं करते , वे मेरे भक्त नहीं होते हैं , इसमें सन्देह नहीं है * ॥ १७८-१८४ 

सूतजी बोले- [ हे ऋषियो ! ] यह वचन सुनकर वाराणसीपुरी जाकर देवीने दूध तथा घीसे अविमुक्तेश्वर लिङ्गको स्नान कराकर भुवननायक देवेश रुद्रका अर्चन किया और अविमुक्त [ काशी ] -में तपस्याके द्वारा मन्दर पर्वतपर एक सुन्दर कन्दरामें महात्मा मन्दरका क्षेत्र निर्मित किया ; वहाँ प्रभु [ शिव ] -ने हिरण्याक्षके पुत्र महादैत्य अन्धकपर अनुग्रह करके लीलापूर्वक उसे गणत्व प्राप्त कराया था । [ हे ऋषियो ! ] इस प्रकार मैंने आप लोगोंसे आदरपूर्वक सम्पूर्ण कथासार कहा । जो मनुष्य इस क्षेत्रके उत्तम माहात्म्यको पढ़ता अथवा सुनता है , वह सभी क्षेत्रों में वासका जो पुण्य होता है , वह सब तत्काल प्राप्त कर लेता है अथवा जो सभी पवित्र तथा जितेन्द्रिय द्विजोंको सुनाता है , वह भी समस्त यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है ।। १८५-१९ 

कासी का यह महात्म्य लिंग पुराण से लिया गया है ।आशा आप सभी श्रद्धालु को आनंदित करेगा। 


हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

Bhupalmishra35620@gmail.com 

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