Sri krishnadasji mahraj

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                          श्री कृष्णदास जी महाराज के

 अद्भुत मंगलमय चरित्र 


 श्रीबल्लभ गुरु दत्त भजन सागर गुन आगर । कबित नोख निर्दोष नाथ सेवा में नागर ॥ बानी बंदित बिदुष सुजस गोपाल अलंकृत । ब्रज रज अति आराध्य वह धारी सर्बसु चित ॥ सान्निध्य सदा हरि दास बर गौर स्याम दृढ़ ब्रत लियो । गिरिधरन रीझि कृष्णदास को नाम माझ साझो दियो ।

     श्रीगोवर्धनधारी भगवान् श्रीकृष्णने प्रसन्न होकर श्रीकृष्णदासको अपने नाममें हिस्सा दिया । श्रीकृष्ण दासजी श्रीगुरु वल्लभाचार्यजीके द्वारा दिये गये भजन - भावके समुद्र एवं समस्त शुभ गुणोंकी खानि थे । आपके द्वारा रची गयी कविताएँ बड़ी ही अनोखी एवं काव्यदोषसे रहित होती थीं । आप ठाकुर श्रीश्रीनाथजीकी सेवामें बड़े चतुर थे । श्रीगिरिधर गोपालजीके मंगलमय सुयशसे विभूषित आपकी वाणीको विद्वान् जन भी सराहना करते थे । आप श्रीव्रजकी रज ( धूल ) को अपना परम आराध्य मानते थे । चित्तमें उसीको सर्वस्व मानकर शरीरमें एवं सिर - माथेपर धारण करते थे तथा चित्तमें चिन्तन भी करते थे । आप सदा सर्वदा श्रीहरिदासवर्य श्रीगोवर्धनजीके समीप बने रहते थे एवं सदा बड़े - बड़े सन्तोंके सान्निध्य में रहते थे । आपने श्रीराधा - माधव - युगलकी सेवाका दृढ़ व्रत ले रखा था ॥

         

श्रीकृष्णदासजीसे सम्बन्धित विशेष विवरण इस प्रकार है

 श्रीकृष्णदासजीका जन्म सं ० १५५३ वि ० में गुजरातप्रदेशके अहमदाबाद जनपदमें चलोतर नामक गाँवमें हुआ था । वे कुनबी कायस्थ थे । पाँच वर्षकी अवस्थासे ही वे भगवान्‌के लीला कीर्तन , भजन तथा उत्सवों में सम्मिलित होने लगे थे । बाल्यावस्थासे ही बड़े सत्यनिष्ठ और निडर थे । जब वे बारह सालके थे , उनके गाँवमें एक बनजारा आया , उसने माल बेचकर बहुत सा रुपया जमा किया था । कृष्णदासके पिता गाँवके प्रमुख थे , उन्होंने रातमें उसका रुपया लुटवाकर हड़प लिया । कृष्णदासके सीधे - सादे हृदयपर इस घटनाने बड़ा प्रभाव डाला , उन्होंने अपने पिताके विरुद्ध बनजारेद्वारा न्यायालयमें अभियोग चलाया और उनके साक्ष्यके फलस्वरूप बनजारेको पैसा पैसा मिल गया । वे घरसे निकाल बाहर किये गये , तीर्थयात्राके लिये चल पड़े । 


महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य अड़ैलसे व्रज जा रहे थे । उन्होंने गऊघाटपर अभी दो ही चार दिन पहले सूरको ब्रह्मसम्बन्ध दिया था । महाप्रभुजीने मधुराके विश्रामघाटपर युवक कृष्णदासको देखा , देखते ही समझ नया कि बालक बड़ा संस्क है ; उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक उनको दीक्षितकर ब्रह्मसम्बन्ध दिया । आचार्यसे मन्त्र प्राप्त करते ही उन्हें सम्पूर्ण भगवल्लीलाका स्मरण हो आया । आचार्यने उनको श्रीनाथजीके मन्दिरका अधिकारी नियुक्त किया । उनकी देख - रेखमें श्रीनाथजीकी सेवा राजसी ठाटसे होने लगी । दूर - दूरतक उनकी प्रसिद्धि फैल गयी । वे श्रीनाथजीकी सेवा करते थे और सरस पदोंकी रचना करके भक्तिपूर्वक समर्पित करते थे । उनके पद अधिकांश शृंगार - भावना प्रधान हैं , भक्ति और शृंगारमिश्रित प्रेम - लीला , रासलीलाके सम्बन्ध में उन्होंने अनेकानेक पद लिखे । ' युगल - मान - चरित्र ' की रचना - माधुरी और विशिष्ट कवित्व शक्तिसे प्रभावित होकर श्रीविठ्ठलनाथने उनको अष्टछापमें गौरवपूर्ण स्थानसे सम्मानित किया । वे आजीवन अविवाहित रहे । 


पुष्टिमार्गक भक्तों और महाप्रभुके शिष्यों में उनका व्यक्तित्व अत्यन्त विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण स्वीकारकिया जाता है । वे बहुत बड़े भगवदीय थे ।

 

श्रीकृष्णदासजी महाप्रभु वल्लभाचार्यजीके शिष्य थे । महाप्रभुने ठाकुर श्रीश्रीनाथजीकी सेवाका सम्पूर्ण भार इन्हें सौपा था । एक बार आप श्रीठाकुरजीके सेवा कार्यके लिये दिल्ली गये हुए थे । वहाँ बाजार में कड़ाहीसे निकलती हुई गरमागरम जलेबियों को देखकर आपने मानसी सेवामें ही उन जलेबियोंका श्रीश्रीनाथजीको भोग लगाया , भाववश्य भगवान्ने उसे स्वीकार कर लिया । फलस्वरूप जब मन्दिरमें भोग उसारा गया तो विविध भोग सामग्रियों में जलेबीका थाल और हाथमें जलेबी प्रत्यक्ष मौजूद पायी गयी । ऐसे ही एक बार आप आगरा गये थे । वहाँ आप एक वेश्याका अत्यन्त मधुर राग - स्वरसे गायन सुनकर प्रेमके वशीभूत हो गये और उससे बोले- क्या तू हमारे चन्द्रमुख श्रीलालजीके यहाँ चलकर गाना सुना सकती है ? वेश्याने इन्हें गुणग्राहक तथा प्रेमी देखकर इनके साथ चलनेकी स्वीकृति दे दी । फिर तो ये भी लोक लाजको सर्वथा दूरकर उसे साथ लेकर चल दिये । 


          श्रीकृष्णदासजी उस वेश्याको अपने संग श्रीश्रीनाथजीके मन्दिरमें लिवा लाये और बोले- आजतक तुमने संसारी लोगोंको रिझाया है , अब हमारे श्रीलालजीको रिझाओ । देखो , ये कैसे रिझवार हैं । ' वेश्या श्रीश्रीनाथजीका दर्शन करते ही प्रेममतवाली हो गयी और स्वर साधकर उसने आलाप किया । श्रीकृष्णदासजीने पूछा- क्या तुमने मेरे लालजीको अच्छी प्रकार देखा ? उसने कहा- हाँ , मैंने देखा , दर्शनमात्र से ही हृदयको अत्यन्त अच्छे लग रहे हैं । वेश्याने अपने नृत्य , गान , तान , भावभरी मुसकान और नेत्रोंकी चितवनसे श्रीनाथजीको एकदम रिझा लिया । उसने एकदम तदाकार होकर नृत्य - गान किया । प्रेमाधिक्यके कारण उसका शरीर छूट गया । श्रीठाकुरजीने उसके जीवात्माको अंगीकार कर लिया । वेश्याने अपने हृदय में प्रेमभाव भर रखा था और भगवान् भी प्रेमके भूखे हैं , अतः उसकी जाति - पाँति या कर्मपर दृष्टि न देकर उसके हृदयके प्रेमको ही अपने हृदयमें धारणकर अपना लिया ।


 श्रीप्रियादासजीने श्रीकृष्णदासजीसे सम्बन्धित इन दो घटनाओंका इस प्रकार वर्णन किया है


 प्रेम रसरास कृष्णदास जू प्रकाश कियौ लियौ नाथ मानि सो प्रमान जग गाइयै । दिल्लीके बजारमें जलेबी सो निहारि नैन भोग लै लगाई लगी विद्यमान पाइयै ॥ राग सुनि भक्तिनी को भए अनुरागबस ससिमुख लाल जूको जाइ कै सुनाइयै । देखि रिझवार रीझि निकट बुलाइ लई लई संग चले जग लाजको बहाइयै ॥

         नीके अन्हवाय पट आभरत पहिराय सौधौ हूं लगाय हरि मन्दिर में ल्याये हैं । देखि भई मतवारी कीनी लै अलापचारी कह्यौ ' लाल देखे ? ' बोली देखेमें ही भाये हैं । नृत्य , गान , तान , भावभरि मुसक्यान , दुगरूप लपटान , नाथ निपट रिझाये हैं । है कै तदाकार , तन छूट्यौ अंगीकार करी धरी उर प्रीति मन सबके भिजाये हैं ॥

                    

एक बार श्रीकृष्णदासजी श्रीसूरदासजीसे मिलने आये । पद - रचनाके प्रसंग में श्रीसूरदासजीने विनोदमें कहा कि आप तो कविता करनेमें बड़े प्रवीण हैं , अतः कोई ऐसा पद बनाकर गाइये , जिसमें मेरे पदोंकी छाया न हो । श्रीकृष्णदासजीने पाँच - सात पद गाये । श्रीसूरदासजी उन पदोंको सुनकर मुसकराने लगे तथा पूछनेपर बताया कि आपके इस पदमें हमारे इस पदकी छाया है । श्रीकृष्णदासजी बड़े संकुचित हुए । श्रीसूरदासजीने कहा कि अच्छा , कोई बात नहीं है , कल प्रातःकाल कोई नया पद बनाकर आकर मुझे सुनाना निवास स्थानपर आकर श्रीकृष्णदासजीको भारी सोच हुआ ; क्योंकि कोई भी भाव श्रीसूरदासजीसे अछूता नहीं मिल रहा था । श्रीकृष्णदासजीकी सोचका निवारण करनेके लिये प्रभुने स्वयं एक अत्यन्तसुन्दर पद बनाकर श्रीकृष्णदासजीकी शब्यापर रख दिया । जब चिन्तामें निमग्न श्रीकृष्णदासजी शय्यापर पौढ़ने गये तो सिरहाने श्रीप्रभुके करकमलसे लिखा हुआ पद पाया । फिर क्या था , प्रातःकाल होते ही श्रीकृष्णदासजी पुनः श्रीसूरदासजीके पास आये और उस पदको सुनाया सुनकर श्रीसूरदासजी बड़े सुखी हुए , साथ ही यह जानकर कि यह पद श्रीकृष्णदासरचित नहीं हो सकता है , इसे तो श्री श्रीनाथजीने बनाया है , श्रीसूरदासजीने इसे श्रीठाकुरजीका पक्षपात बताया । श्रीठाकुरजीके इस पक्षपातपर श्रीसूरदासजी रूठ गये । उन्होंने मन्दिरमें कीर्तनकी सेवा बन्द कर दी , तब श्रीठाकुरजीने उन्हें मनाया । फिर तो भक्त और भगवान् के हृदय में परस्पर प्रेमरंग छा गया । 


श्रीठाकुरजीकी इस लीला और भक्तवत्सलताका वर्णन श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार किया है 

आए सूर सागर सो कही बड़े नागर हौ कौऊ पद गावो मेरी छाया न मिलाइये । गाए पाँच सात सुनि जानि मुसकात कही भले जू प्रभात आनि करिकै सुनाइयै ॥ पर्यो सोच भारी गिरिधारी उर धारी बात सुन्दर बनाय सेज़ धर्यो यो लखाइये । आयके सुनायौ सुख पायौ पच्छपात लै बतायाँ हूँ मनायी रंग छायौ अभू गाइयै ॥ l


अन्त समयमें श्रीकृष्णदासजी फिसलकर कुएँमें गिर गये और उसीमें इनका शरीर छूट गया । यद्यपि भजनके प्रतापसे आपको तत्काल दिव्यदेहकी प्राप्ति हो गयी , परंतु लोगोंके मनमें अकाल मृत्युकी आशंका थी । इस आशंकासे रसिकजनों के मनमें दुःख हुआ सुजानशिरोमणि श्रीश्रीनाथजीने भक्तोंके हार्दिक दुःखको जानकर उसे दूर करनेके लिये तथा लोगोंकी आशंकाका निवारण करनेके लिये श्रीकृष्णदासजीका परम सुखदायी ग्वालस्वरूप लोगोंको प्रत्यक्ष दिखला दिया । श्रीगोवर्धनजीकी तलहटीमें कुछ व्रजवासियों को देखकर दिव्यदेहधारी श्रीकृष्णदासजीने कहा कि आगे श्रीबलदाऊजी गये हैं , उन्हींके साथ पीछे - पीछे मैं भी जा रहा हूँ , आपलोग श्रीगुसाई विट्ठलनाथजीसे मेरा प्रणाम कह देना । तदुपरान्त श्रीकृष्णदासजीने पृथ्वीमें गड़े हुए धनका पता बताया , जो इन्होंने पूर्व शरीरसे सुरक्षार्थ पृथ्वीमें गाड़ रखा था । ब्रजवासियोंने आकर श्रीकृष्णदासजीका वृत्तान्त गुसाई श्रीविठ्ठलनाथजीसे निवेदन किया , पुनः निर्दिष्ट स्थान खोदा गया तो वहाँ धन भी मिला । इससे सबको विश्वास हो गया कि निश्चय ही इन व्रजवासियोंको श्रीकृष्णदासजी मिले थे तथा दूसरी बात यह कि श्रीकृष्णदासजीकी अधोगति नहीं हुई , वे भगवान्‌की नित्यलीलामें सम्मिलित हो गये ।


 भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है


 कुवाँ में खिसिल देह छूटि गई नई भई भई यों असंका कछु और उर आई है । रसिकन मन दुख जानि सो सुजान नाथ दियो दरसाय तन ग्वाल सुखदाई है । गोबर्धन तीर कही आगे बलबीर गये श्रीगुसाई धीरसों प्रनाम ' यो जनाई है । धनहू बतायो खोदि पायो बिसवास आयो हिये सुख छायो संक पंक लै बहाई है ॥ 

श्रीवर्धमानजी तथा श्रीगंगलजी श्रीभागवत बखानि अमृतमै नदी बहाई । अमल करी सब अवनि ताप हारक सुखदाई ॥ भक्तन सों अनुराग दीन सों परम दयाकर । भजन जसोदानंद संत संघट के आगर ॥

भीषमभट अंगज उदार कलिजुग दाता सुगति के । बर्द्धमान गंगल गंभिर उभै थंभ हरि भगति के ॥ 

                    श्री वर्थमान जी तथा 

श्री गंगल जी महाराज 

ये दोनों भाई भक्तिरूपी सेतुके दो सुदृढ़ स्तम्भ थे । इन्होंने श्रीमद्भागवतमहापुराणको कथा कहकर मानो पृथ्वीपर कथासुधाको नदी बहा दी तथा अपने दर्शन - स्पर्श - सदुपदेश - समागमादिसे सम्पूर्ण को पापरहित कर दिया । आप दोनों प्राणियोंके तीनों तापोंको दूर करनेवाले तथा उन्हें परम सुख देनेवाले हुए । आप दोनों भक्तोंसे अत्यन्त प्रेम एवं दीनोंपर दया करनेवाले थे , श्रीयशोदानन्दन श्रीकृष्णकी उपासना करते थे , सन्त - समूहमें अग्रगण्य तथा सेवामें बड़े चतुर थे । आप दोनों श्रीभीष्मभट्टजीके पुत्र थे , स्वभावसे बड़े उदार थे तथा इस कराल कलिकालमें भी प्राणियोंको उत्तम गति अर्थात् भगवत्पद प्रदान करनेवाले थे ॥

          श्रीवर्धमानजी तथा श्रीगंगलजीके विषय में विशेष विवरण इस प्रकार है 

परम विरक्त अकिंचन सन्त श्रीवर्धमानजी तथा श्रीगंगलजी श्रीभीष्मभट्टजीके पुत्र और श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय के आचार्य श्रीकेशवाचार्यजीके कृपापात्र शिष्य थे । बचपनसे ही आप दोनों भाई संसारसे उदासीन और भगवद्धजनपरायण थे । वैष्णवी दीक्षा लेनेके बाद आप दोनों भाई प्रायः सन्तोंकी मण्डली लेकर विचरण किया करते थे और भगवद्विमुख जीवोंका उद्धार करनेके लिये उन्हें भजनोन्मुख करते रहते थे

 एक बार आप लोग विचरण करते - करते एक ऐसे क्षेत्रमें पहुँच गये , जहाँ भगवद्विमुख नास्तिकों और पाखण्डियोंका बाहुल्य था । वे लोग इन वैष्णवजनोंका अनेक प्रकारसे उपहास करने और अपने किसी तथाकथित गुरुको सिद्ध बताने लगे । अपने गुरुकी झूठी महिमाका ख्यापन करते हुए इन लोगोंके प्रति अशिष्ट बर्ताव करने लगे । उन दुष्टोंने यहाँतक कह दिया कि हमारे गुरुके तेजके सामने तुम लोग ठहर नहीं सकते हो इत्यादि कहकर उन्होंने इनका अनेक प्रकारसे अपमान किया । इतना दुर्व्यवहार करनेपर भी आप लोग क्षमाशील ही बने रहे और उन लोगोंको कुछ न कहकर केवल भगवन्नाम - स्मरण ही करते रहे । आप लोगोंकी साधुता और उन लोगोंकी दुष्टता देखकर भक्तवत्सल भगवान्से अपने भक्तोंका तिरस्कार न सहा गया , फिर तो उन सबको सबक सिखाने के लिये प्रभुने ऐसी लीला रची कि कुवाक्य बोलनेवालोंके वस्त्र मल - मूत्रसे बिगड़ गये । तब तो वे भगवद्विमुख लोग बहुत ही लज्जित हुए और भागकर अपने तथाकथित गुरुके पास पहुँचे । उसने मारण प्रयोग किया , परंतु उस मूर्खको यह ज्ञात नहीं था कि भगवान् श्रीहरिके भक्तोंकी रक्षामें अस्त्रराज सुदर्शन चक्र स्वयं नियुक्त रहते हैं , उनपर क्षुद्र आभिचारिक क्रिया - कलापोंका क्या प्रभाव ! फलतः प्रयोग करने और करानेवाले स्वयं मारे गये । फिर तो उन भगवद्विमुखोंने ' त्राहि माम् ' की पुकार लगाते श्रीगंगलजीको शरण ली । सन्तहृदय श्रीगंगलजी महाराज क्रोधसे परे थे , उन क्षमामूर्तिने उन सबको न केवल अभयदान दिया , बल्कि मरे हुओंको भगवत्कृपासे प्राणदान भी दिया । इस घटनासे आपका सुयश सर्वत्र फैल गया और उस भगवद्विमुखक्षेत्र के लोग भी इनके शिष्य बनकर वैष्णव जीवन जीने लगे । 


इसी प्रकार श्रीवर्धमानजी भी सिद्ध सन्त थे । एक बारकी बात है , किसी गाँवमें वे श्रीमद्भागवत महापुराणको कथा कह रहे थे । श्रोता समाजमें एक अन्धी वृद्धा माता भी प्रतिदिन आकर कथा सुना करती थीं । एक बार कथामें विश्राम होनेपर वे आपके पास आयीं और बोलीं - महाराज ! आप जैसे महाभागवत सन्त कृपा करके हमारे ग्राममें पधारे । समस्त ग्रामवासी आपका दर्शनकर तथा सदुपदेशोंका श्रवणकर कृतार्थ हो गये । मुझे भी आपको कथा सुनकर परम आनन्द प्राप्त हुआ ; परंतु मैं अभागिन नेत्रहीन होनेके कारण आपके दर्शनोंका लाभ न प्राप्त कर सकी , इस बातका मुझे बड़ा दुःख है । सन्तहृदय आपत्रीको वृद्धा माता की व्याकुलतापर बड़ी दया आयी और आपने भगवत्स्मरण करते हुए भगवच्चरणामृत उन वृद्धा माताके नेत्रों में डाल दिया । उस अकालमृत्युहारी और सर्वरोगनाशक अमृतोपम चरणामृतके नेत्रोंमें पड़ते ही वृद्धाके नेत्र तत्काल ज्योतिष्मान् हो उठे । चारों और सन्त - भगवन्तकी जय - जयकार होने लगी । इसी प्रकार आप दोनों भाइयोंके अनेक पावन चरित्र हैं ।


हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

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