Sri Bhugarbhgosanyi ji _ गर्व से कहो हम हिंदु है ।

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श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारी जी 



श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारीजी श्रीसनातनगोस्वामी पाद जी  के शिष्य थे । श्रीसनातनगोस्वामी जीने ठाकुर श्रीमदनमोहनजीको नवनिर्मित मन्दिर में पधराकर उनकी सेवाका भार इन्हींको सौंप दिया और कहा कि भली प्रकारसे श्रीठाकुरजीकी सेवा करना । श्रीकृष्णदासजी ब्रह्मचारी भी गुरुकी आज्ञा शिरोधार्यकर बड़ी कुशलतापूर्वक श्रीठाकुरजीकी सेवा करते । आगे चलकर यही अधिकारी श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारीके नामसे प्रसिद्ध हुए । आपने श्रीनारायण जी  की भक्तिपर रीझकर उनको अपना शिष्य बनाया । आप जब श्रीठाकुरजी का परम सुन्दर शृंगार करके स्वयं छविका दर्शन करते तो शरीरकी सुधि - बुधि भूल जाती । आपकी बुद्धि भावसागर में डूब जाती । आप अत्यन्त भावरी श्रीठाकुरजीको उत्तम राग - भोग अर्पण करते । इनके सेवित ठाकुर श्रीमदनमोहनजी वर्तमान में करौली राजस्थान में विराजमान है । 


श्रीप्रियादासजीने श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारीजीके भक्ति - भावका इस प्रकार वर्णन किया है गुसाई श्रीसनातनजू मदनमोहन रूप , माथे पधराये कही सेवा नीके कीजिये । जानौ कृष्णदास ब्रह्मचारी अधिकारी भये , भट्ट श्रीनारायणजू शिष्य किये रीझियै ॥ करिकै सिंगार चारु आप ही निहारि रहै , गहे नहीं चेत भाव माँझ मति भीजिये । कहाँ लाँ बखान करौं राग भोग रीति भाँति , अब लौ विराजमान देखि देखि जीजिये ।।

      श्रीकृष्णदास जी महाराज 


 पण्डित श्रीकृष्णदासजी महाराज बड़े ही सन्तसेवी महात्मा थे , आप ठाकुर श्रीगोविन्दचन्द्रजीको अपना आराध्य और उपास्य मानते थे । साथ ही भगवद्भक्कोंमें भी आपकी बड़ी प्रीति थी । 

श्रीप्रियादासजीने इनके इस भगवत्सेवानुरागका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है 

श्रीगोविन्दचन्द रूपरासि रसरासि दास , कृष्णदास पण्डित ये दूसरे यो जानिलै । सेवा अनुराग अङ्ग अङ्ग मति पागि रही पाग रही मति जो पै तो पै यह मानिलै ॥ प्रीति हरिदासनसों विविध प्रसाद देत हिये लाय लेत देखि पद्धति प्रमानिलै । सहजकी रीतिमें प्रतीतसों बिनीत करै ढरै वाही ओर मन अनुभव आनिलै ॥

आप श्रीठाकुरजीको श्लोक सुनानेकी सेवा करते थे , इसके लिये आप नित्य प्रति सौ नवीन श्लोकॉकी रचना करते और उन्हें प्रभुको सुनाते थे । एक दिन जब आप श्रीठाकुरजीको श्लोक सुना रहे थे , उसी समय कोई सन्त आपसे मिलने आ गये । आप सन्तसेवाको गरीयसी मानकर भगवान्‌को श्लोक सुनाना छोड़ उनसे मिलने चले गये । वार्तालापके क्रममें देर होने लगी , इधर भगवान्‌का भी धैर्य जवाब दे गया , उन्होंने आपको सचेत करनेके लिये भीतरसे एक थाल बाहर फेंका थालकी झनझनाहटसे आपका वार्तालापका क्रम टूटा और आप पुनः श्रीठाकुरजीको श्लोक सुनाने गये तो वे उलाहना देते हुए बोले - ' पण्डितजी ! आप तो मेरी उपेक्षा करके दूसरोंसे मिलने चल देते हैं । ' आपने कहा - ' प्रभो ! आपकी उपेक्षा तो की जा सकती है , क्या किसी सन्तकी उपेक्षा आपको सह्य होगी ? ' ठाकुरजी इनकी सन्तनिष्ठा देखकर बहुत प्रसन्न हुए और बोले ' अच्छा , पण्डितजी ! अब श्लोक सुनाओ । ' आप भी प्रभुकी श्रवणोत्कण्ठा विचारकर गद्गद हो गये और प्रतिदिन सौ श्लोक सुनानेका नियम दृढ़ कर लिया । 


            श्री भूगर्भ गुसाई जी 

 श्रीभूगर्भगोसाईजी श्रीचैतन्य महाप्रभुजीके कृपापात्र शिष्य श्रीगदाधर पण्डितजीके शिष्य थे । आप श्रीलोकनाथ गोस्वामीजीके साथ वृन्दावन आये थे और फिर वृन्दावनमें ही रह गये , वृन्दावनसे बाहर कहीं नहीं गये । ये संसारसे परम विरक्त एवं भगवान्‌को रूपमाधुरीमें अत्यन्त अनुरक्त थे । रसिक भक्तजनों के साथ मिलकर आप उसी रूपमाधुरीका आस्वादन करते रहते । भगवान्का मानसी चिन्तन , मानसी अर्चन - वन्दन ही आपके जीवनका आधार था । भगवान्की मानसी मूर्तिको निरन्तर निहारा करते थे । आपके मनकी वृत्ति सदा उसी युगलस्वरूपके चिन्तनमें लगी रहती थी ।

 श्रीप्रियादासजीने श्रीभूगर्भगोसाइंजीकी युगलसरकारकी इस भक्तिका इस प्रकार वर्णन किया है


 गुसाई भूगर्भ वृन्दावन दृढ़ बास कियो लियो सुख बैठि कुंज गोविन्द अनूप हैं । बड़ेई विरक्त अनुरक्त रूप माधुरी में ताही कौ सवाद लेत मिले भक्तभूप हैं । मानसी विचार ही अहार सो निहारि रहैं गहैं मन वृत्ति वेई युगल सरूप हैं । बुद्धिके प्रमान उनमानि मैं बखान कर्यो भर्यो बहु रंग जाहि जानें रसरूप हैं ॥ 


 श्रीगोवर्धनजी महाराजकी नित्यप्रति परिक्रमा करना आपकी दैनिकचर्याका अंग था । एक दिन आप प्रेममें बेसुध हुए परिक्रमा कर रहे थे कि एक शिलासे आपका पैर टकरा गया । ठोकर जोरकी लगी थी , अतः ' हा कृष्ण ' कहकर बैठ गये । पैरसे रक्तकी धारा बहने लगी थी , पीड़ा अधिक होनेसे चलना दूभर हो गया था । आपको अपने शारीरिक कष्टसे अधिक इस बातकी मानसिक पीड़ा थी कि श्रीगोवर्धन महाराजकी परिक्रमा तो हो नहीं सकी , अब कुटीतक नहीं पहुँच सकूँगा तो वहाँ प्रतिष्ठित श्रीठाकुरजी की भी सेवा - पूजा नहीं हो सकेगी । किसी प्रकार ' हा कृष्ण हा कृष्ण ' करते दिन कटा , शाम होनेको आयी , अब आपको और क्लेश होने लगा कि ठाकुरजीकी सायं पूजा - आरती कैसे होगी ? भक्तवत्सल भगवान्से अपने भक्तका कष्ट न देखा गया , वे एक बलिष्ठ शरीरवाले साधुके रूपमें आपके पास आये और आपके मना करनेके बावजूद आपको कन्धेपर बिठाकर कुटीतक छोड़ गये । जब आपने उन्हें धन्यवाद देना चाहा तो वे अन्तर्धान हो चुके थे । अब आपको यह समझनेमें देर न लगी कि मेरे आराध्य श्रीठाकुरजी ही साधु वेशमें मुझे कन्धेपर बैठाकर यहाँतक लाये थे । अब तो आपके दुःखका पारावार न रहा । आप यह सोच सोचकर रोने लगे कि मुझसे तो श्रीठाकुरजीकी सेवा हो न सकी , उल्टे मैंने ही उनसे सेवा करा ली । उनक इस व्याकुलताको देखकर श्रीठाकुरजीने उनसे स्वप्नमें कहा - ' गुसाईंजी ! भक्तोंका दुःख मुझसे देखा नहीजाता । जबतक मैं उनका दुःख दूरकर उन्हें सुखी नहीं कर देता , तबतक मेरे मनको विश्राम नहीं मिलता . अतः आप व्यर्थ संकुचित न हों । " भगवान्‌को इस प्रकारको अमृतमयी वाणी सुनकर और उनकी भक्तवत्सलता देखकर आप गद्गद हो उठे । ऐसे भगवत्कृपापात्र थे श्रीभूगर्भगोसाईजी !

        श्री हृषीकेश देवाचार्य 

  श्रीहषीकेश देवाचार्यजी महाराज श्रीनिम्बार्कसम्प्रदायानुयायो वैष्णव सन्त थे । आप बोहरव्यास देवाचार्यजी महाराजके द्वादश प्रधान शिष्योंमेंसे एक थे । श्रीवृन्दावनधाम आपकी साधना स्थली थी । आप श्रप्रिया - प्रियतमजीकी मानसीसेवा करते थे और सदा उनके हो ध्यानमें मग्न रहते थे । अपनी मानसी सेवामें प्रिया - प्रियतमके स्वरूपका वर्णन करते हुए श्रीहृषीकेश देवाचार्यजी कहते हैं 

मन मन्दिर में राधा मोहन नित्य किसोर किसोरी दोऊ करत विहार निरन्तर निसि दिन । दिव्य धाम व्रज मण्डल सगरी झगरौँ नहिं पैठत तहँ नैकुन मधि परम मनोहर सूक्षिम ते सूक्षिम वृन्दावन | नव निकुंज नव लता भवन में अष्ट कमल दल मृदुल सिंहासन | प्रमुदित राजत जुगल चन्द तहँ सेवत ललितादिक ललना गन । सेवा सौज सँवारि लिये कर अरमित करि निज निज तन मन धन हृषीकेश निरखत अति हरयत निवछावर बलि जाऊँ छिनहि छिन ॥


             श्री रंग जी महाराज 

श्रीरंगजी महाराज सिद्ध वैष्णव सन्त थे , आपकी सन्तसेवामें बड़ी निष्ठा थी । आपके यहाँ प्रायः सन्तोंका सत्संग चलता ही रहता । एक बार आपने सन्तोंका एक विशाल भण्डारा किया । सन्तोंकी पंक्ति प्रसाद पाने बैठ गयी और प्रसाद परोसा जाने लगा इतनेमें जितने सन्त प्रसाद पाने बैठे थे , उसके दूने और आ गये । परोसनेवाले , रसोइया आदि घबरा गये कि इतने लोगोंको खिलानेभरका सामान तो है नहीं , फिर व्यवस्था कहाँसे होगी ? एक सन्त महोदयने रंगजी महाराजको सलाह दी कि जितने सन्त निमन्त्रित हैं , उन्हें तो पूरा पवाया जाय और जो अभी - अभी बिना निमन्त्रणके ही आ गये हैं , उनमें थोड़ा - थोड़ा प्रसाद सबको वितरित करा दिया जाय । श्रीरंगजी महाराजने कहा - ' आप लोग धैर्य रखिये , भगवत्कृपासे किंचिन्मात्र भी कमी नहीं होगी ; आप लोग सबको बैठाकर पवाइये । ' रसोइयेने आपकी आज्ञाके अनुसार सबको बैठाकर प्रसाद वितरण किया , आश्चर्य ! उतना ही प्रसाद आये हुए समस्त सन्तजनोंकी पूर्णताके लिये पर्याप्त था । होता भी क्यों न ! जिन प्रभुने द्रौपदीकी बटलोईके एक सागके पत्तेसे समस्त ब्रह्माण्डको तृप्त कर दिया था , उसके भक्तकी प्रतिष्ठा भला कैसे जा सकती थी !


 श्रीघमण्डीजी 

श्रीयुगलकिशोर श्यामाश्यामके अनन्य भक्त परम वैष्णव सन्त श्रीघमण्डीजी महाराजका जन्म राजस्थानके जयपुर राज्यान्तर्गत टोडाभीमके सन्निकट दूबरदू नामक ग्राममें हुआ था । छोटी अवस्थामें ही आपने निम्बार्क - सम्प्रदायके आचार्य श्रीहरिव्यासदेवजीसे शिक्षा - दीक्षा प्राप्त कर ली और भगवद्भजनमें लग गये । श्रीगुरुदेवजीने आपका नाम श्रीउद्धवदेवजी रखा । आप अपने परमाराध्य श्रीयुगलकिशोरजीपर गर्व करते थे और पाखण्डियों तथा भगवद्विमुखोंको कुछ भी नहीं गिनते थे , अतः वे लोग आपको घमण्डीजी कहने लगे और सन्त - समाजमें आपकी ' श्रीउद्धवघमण्डदेवाचार्यजी ' के नामसे प्रतिष्ठा हो गयी । आपके जीवनका अधिकांश समय व्रजमें ही बीता , वहीं करहला ग्राममें रहते हुए आप श्रीराधामाधवजीकी भक्तिपूर्ण सेवा किया करते थे । कहते हैं कि आपकी भक्ति से प्रसन्न होकर श्रीप्रियाप्रियतम युगलकिशोरने आपको दर्शन दिये साथ ही श्रीठाकुरजीने अपना मुकुट और श्रीराधाजीने अपनी चन्द्रिका भी इन्हें दी । श्रीराधाजीने आपसे कहा कि ब्रजवासी ब्राह्मण बालकोंको मेरा और मेरी सखियोका प्रतिरूप बनाकर रासलीलाका अनुकरण कराओ । तबसे लेकर आजतक उस ग्राममें और व्रजके अन्य क्षेत्रों में भी रासलीलानुकरणकी परम्परा चली आ रही है । करहला ग्राममें श्रीठाकुरजीके मुकुट और श्रीराधाजीकी चन्द्रिकाके आज भी दर्शन होते हैं , जो श्रीधमण्डीजी महाराजपर उनके आराध्यदेवकी कृपाके साक्षात् प्रतीक है ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

Bhupalmishra108.blogspot.com 

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