श्री ध्यौगू जी महाराज
नव श्रीधौगूजी बड़े ही सन्तसेवी गृहस्थ भक्त थे । आप सन्तसेवाके लिये विविध प्रकारके उद्योग करके बड़े परिश्रमसे धनोपार्जन करते थे , अतः लोग आपको उद्योगीजी कहते थे । जनसाधारणमें यही नाम बिगड़कर चौगूजी हो गया । आप बड़े ही सरल स्वभावके व्यक्ति थे । गृहस्थ होते हुए भी सांसारिकतासे दूर केवल भगवद्भजन और सन्तसेवासे ही प्रयोजन रखते थे । कहते हैं कि आपके पिताका अकस्मात् बिना किसी बीमारीके शरीर शान्त हो गया था , तो आप उनके शवको श्रीठाकुरजीके सामने रखकर पूछने लगे कि ' बिना किसी आधि - व्याधिके मेरे पिता क्यों मरे ? ' पूछते - पूछते तीन पहर बीत गये , पर कोई उत्तर न मिला । इतने में एक सन्तमण्डली आ गयी । आप सन्तोंके स्वागत - सत्कारमें जुट गये । जब आप उन्हें सीधा - सामान देने लगे तो सन्तोंने कहा - ' आपके मनमें पिता - मरणका महान् दुःख है , अतः हम आपका सीधा - सामान नहीं लेंगे । ' आपने कहा- ' ऐसी बात नहीं है , मेरे मनमें पिताजीके मरनेका किंचित् भी दुःख नहीं है , मैं तो पिताजीके शवको भगवान्के पास रखकर केवल यह पूछ रहा था कि मेरे पिताजी बिना किसी रोगके क्यों मरे ? परंतु यदि इस कारण आप लोग सीधा - सामान नहीं ले रहे हैं तो कहिये तो मैं पिताजीके शवको अभी जला दूँ । चाहे मेरा पूरा परिवार मर जाय तो भी मुझे कोई कष्ट नहीं है , पर यदि आप सन्तलोग मेरे द्वार भूखे चले जायेंगे तो मुझे महान् कष्ट होगा । ' आपकी इस प्रकारकी अनन्य सन्त - निष्ठा देखकर भगवत्कृपासे आपके पिता जीवित हो उठे । सर्वत्र भक्त और भगवान्की जय - जयकार गूंज उठी । भगवद्भक्ति और सन्तनिष्ठाके इस अद्भुत चमत्कारको देखकर पूरा गाँव धन्य धन्य कह उठा और साथ ही सबने भगवद्भक्ति और सन्तसेवाका व्रत ले लिया । इस प्रकार अद्भुत सन्तनिष्ठाके प्रतीक थे श्रीद्यौगूजी ।।
श्री चाचागुरु जी महाराज
श्रीचाचागुरुका वास्तविक नाम ' क्षेमदास ' था । आप सभी सन्तोंको चाचागुरु कहते थे , अत : आपका नाम श्रीचाचागुरु हो गया । आप बड़े ही सन्तसेवी सद्गृहस्थ थे । आपके भक्तिभाव और सरल स्वभावके कारण आपके गाँववासियोंकी आपपर बड़ी श्रद्धा थी । जब आपके यहाँ सन्त लोग आते तो आपके गाँववाले भी उनके लिये यथाशक्ति सीधा - सामान दे जाते थे और सम्यक् रूपसे सन्तसेवा होती थी । इस प्रकार यह क्रम बहुत दिनोंतक चलता रहा , परंतु जब आपके यहाँ रोज ही सन्तमण्डली आने लगी तो गाँववाले भी परेशान होकर कहने लगे कि अब तो आपके यहाँ रोज ही सन्तमण्डली आती है , हम बाल - बच्चेवाले लोग हैं , कहाँतक सहयोग करें । गाँववालोंकी इस प्रकारकी बात सुनकर आपको बड़ी निराशा हुई , क्योंकि आपके भी घरमें कुछ शेष नहीं बचा था । आपको चिन्तामें देखकर भगवान्की दिव्य वाणी हुई कि तुम्हारे पास जो धरोहरके रूपमें दूसरेका रजतपात्र रखा है , उसीको बेंचकर सन्तसेवा करो , कोई समस्या आयेगी तो मैं सँभाल लूँगा । अब क्या था , अब तो आपको सन्तसेवाका उपाय मिल गया । आपने तुरंत उस रजतपात्रको बॅच दिया , जिससे पर्याप्त धनकी प्राप्ति हो गयी और उससे आप सन्तसेवा करने लगे ।
कुछ दिन बाद जिसने अपना रजतपात्र इनके यहाँ धरोहरके रूपमें रखा था , उसे पता चल गया कि इन्होंने मेरा पात्र बेंचकर सन्तोंको खिला दिया है , तो वह इनसे पात्र माँगने आया । आपको तो भगवद्वाणीपर विश्वास था ही , अतः सीधे ' बेंच दिया ' कहनेकी बजाय बातको टाल - मटोल कर दिया ।
जब कई बार ऐसा हुआ तो उसने पंचायत जोड़ी । उधर आपके यहाँ सन्तोंकी एक बड़ी जमात आ गयी थी , अतः आप सन्तसेवामें ही व्यस्त रहे और पंचायतमें जा ही न सके । पंचायतमें न जानेके कारण आपपर आरोप सिद्ध हो सकता था , परंतु भगवान्ने जैसा कि दिव्यवाणीद्वारा पहले ही कह दिया था , अतः वे आपके वेशमें स्वयंपंचायत में हाजिर हो गये और पंचोंके पूछनेपर बोले कि ' इनका पात्र तो ज्यों - का - त्यों मन्दिरमें रखा हुआ है , ये व्यर्थ ही स्वयं भी परेशान हो रहे हैं और आप लोगोंको भी परेशान कर रहे हैं , आप लोग चाहें तो चलकर देख लें । पंचायत में वह वैश्य भी बैठा था , जिसके हाथ आपने उस रजतपात्रको बचा था । उसने पंचोंसे कहा कि ये असत्य बोल रहे हैं , पात्र तो इन्होंने हमारे हाथ बेंच दिया है । आपने भी अपनी बातपर बल देते हुए कहा कि पात्र मन्दिरमें अमुक स्थानपर रखा है , तुम स्वयं जाकर देख लो पंचोंके कहनेपर वैश्य मन्दिर में गया तो पात्र सचमुच निर्दिष्ट स्थानपर रखा मिला । अब तो वह घबड़ा गया कि झूठा साबित होनेपर मुझे पंचायत सजा दे देगी , अतः उसने पात्रको अन्यत्र छुपा दिया और पंचायतमें आकर बोला कि पात्र वहाँ नहीं है ।
इसपर आपका वेश धारण किये हुए भगवान्ने पंचोंसे अनुरोध किया कि आप लोग स्वयं मेरे साथ चलकर देख लें , मैं आप लोगोंको पात्र दिखा दूंगा । पंचोंने बात मान ली और आपके साथ मन्दिर गये । वहाँ पहुँचनेपर तो सबकी आँखें खुलीकी खुली रह गयीं । पूरे मन्दिरमें चारों ओर रजतपात्र रखे थे , सब के - सब एक - जैसे वैश्यने जहाँ पात्र छुपाकर रखा था , वहाँ देखा तो पात्र नदारद था । इस प्रकार चमत्कार देखकर सब लोग श्रीचाचागुरुजी और उनकी भगवद्भक्तिको प्रशंसा करने लगे । जिसका रजतपात्र धरोहरके रूपमें रखा था , उसने भी इस चमत्कारको देखकर अपना धरोहर रखा पात्र भगवान्को ही अर्पित कर दिया । इधर आप जब सन्तसेवासे निवृत्त हुए तो आपका ध्यान पंचायतकी ओर गया । अब तो आप बहुत घबड़ाये कि पंचायतने मेरे ऊपर अवश्य दण्ड रख दिया होगा , साथ ही मुझपर दूसरेका रजतपात्र बेंच देनेका आरोप भी सिद्ध हो जायेगा । अभी आप यह सोच ही रहे थे कि आस - पासके लोग आकर आपसे पंचायतके सारे विवरण और मन्दिरमें घटित आश्चर्यजनक घटनाको बताकर आपकी भक्तिकी प्रशंसा करने लगे । अब तो आप भी आश्चर्यचकित हो गये , फिर प्रभुकी कृपा समझ उनकी लीलाका स्मरणकर प्रेम - मग्न हो गये ।
श्री सवाई सिंह जी महाराज
धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे कर्म शौर्य तेजो दानमीश्वरभावश्च चाप्यपलायनम् । स्वभावजम् ॥
गीता मे भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनसे प्रत्येक वर्णके स्वाभाविक कर्मका वर्णन करते हुए कहते हैं कि है अर्जुन ! शूरवीरता , तेज , धैर्य , चातुर्य और युद्धसे पलायन न करना , दान देना और स्वामिभाव- ये सब - के सब क्षत्रियके स्वाभाविक कर्म हैं । ऐसे ही गुणधर्मवाले क्षत्रिय राजपूत थे श्रीसवाईसिंहजी आप बड़े ही सन्तसेवी और परोपकारी स्वभावके थे । एक बार एक भक्त दम्पती वन मार्गसे कहीं जा रहे थे , उनके पास धन - सम्पत्ति देखकर लुटेरोंने उन्हें लूट लिया । उन भक्त - दम्पतीने पासके गाँवमें जाकर गुहार लगायी । यद्यपि गाँवके अन्य लोगोंको तो लुटेरोंका नाम सुनते ही साँप सूंघ गया , परंतु सवाईसिंहजीसे भक्तोंका यह कष्ट न देखा गया । उन्होंने तुरंत अपने अस्त्र - शस्त्र लिये और घोड़ेपर सवार होकर अकेले ही लुटेरोंके पीछे सरपट दौड़ चले । डाकू संख्यामें तेरह थे , इन्हें अकेले ही आते देखकर उन सबने इन्हें घेर लिया । इन्होंने भी ललकारकर कहा कि धन - सम्पत्ति छोड़कर भाग जाओ , नहीं तो प्राणोंसे हाथ धोना पड़ेगा ; सन्तोंको दुःख देनेवाला कभी सुखी नहीं रह सकता ।
अब तो वे आपपर चारों ओरसे प्रहार करने लगे । कहाँ एक और कहाँ तेरह , आपके प्राण संकटमें पड़ गये , परंतु तभी भगवत्कृपाका चमत्कार हुआ । लुटेरोंके अस्त्र शस्त्र इनके शरीरका स्पर्श करते ही खण्ड - खण्ड हो गये , ऐसा लगता था मानो वे हाड़ - मांसके शरीरसे नहीं बल्कि पत्थरके पुतलेसे टकरा रहे हों । उधर इनकी तलवार जिधर घूम जाती , उधर मानों बिजलीसी काँध जाती । लुटेरोंको यह देखकर लगा कि हमने किसी भक्तको लूट लिया है , इसीलिये हमपर भगवान्का कोप हो गया है साधारण मनुष्य के वश का ऐसा अद्भुत पराक्रम करना सम्भव नही है । तब वे लोग आपसे रक्षाकी प्रार्थना करते हुए शरणागत हो गये । उन लुटेरोंने न केवल सारा धन वापस कर दिया , बल्कि लूट - डकैतीका काम भी छोड़ दिया और सभी भगवद्भक्त हो गये ।
श्री चांदा जी महाराज
श्रीचाँदाजीका स्थितिकाल विक्रमकी सत्रहवीं शताब्दी प्राप्त होता है , आप भगवान्के परम अनुरागी और वीर प्रकृतिके सन्त थे । उस समय देशमें यवनोंका राज्य था । वे लोग हिन्दुओंको पददलित करनेके लिये उनके आस्थाके केन्द्र मठ - मन्दिरोंको नष्ट कर देते थे । एक बार यवनसेना मठ - मन्दिरोंको ध्वस्त करती हुई बढ़ रही थी , उसने चन्द्रसेनपर आक्रमण कर दिया । तब आपने धर्मरक्षार्थ बहुत से वीरोंको एकत्र किया और बड़ी वीरताके साथ यवनोंसे युद्ध किया । आपके प्रबल प्रहारोंसे यवनसेनाके पैर उखड़ गये और वह परास्त होकर तितर - बितर हो गयी । इसके बाद आपने जोधपुरके गढ़में प्रवेशकर उसे सुरक्षित किया । वैशाख कृ ० १० , सं ० १६२१ वि ० की बात है , रामपोलसे निकलते हुए आपको यवनसेनाने घेर लिया और चारों • ओरसे अस्त्र - शस्त्रों के प्रहार होने लगे । आपने अपने इष्टदेवका स्मरणकर ऐसा युद्ध किया कि एक भी यवन जीवित न बचा । इस प्रकार श्रीचाँदाजी शास्त्र और शस्त्र दोनोंसे धर्मरक्षा करनेवाले वीरव्रती भक्त थे ।
श्री नापा जी महाराज
श्रीनापाजी बड़े ही सन्तसेवी भगवद्भक्त गृहस्थ थे । आपका जन्म खोसाके निकट एक ग्राममें हुआ था और आप जातिसे माली थे । आपके यहाँ सदैव सन्तोंकी मण्डलियाँ आती ही रहती थीं और कथा कीर्तन एवं सत्संग होता रहता था । आपके आस - पासके लोगोंको इससे बड़ा आश्चर्य होता कि इनके पास कहाँसे इतना धन आता है । कुछ ईर्ष्यालु लोगोंने आपकी राजासे शिकायत कर दी कि महाराज ! नापाजीके पास बहुत धन है , परंतु वे राजकर नहीं देते हैं । अविवेकी राजाने आपको कारागारमें डाल दिया । उधर आपके घरपर एक दिन सन्तोंकी एक मण्डली आ पहुँची , अब आपकी पत्नीको बड़ी चिन्ता हुई कि घरमें न तो रुपया - पैसा है , न भोजन - सामग्री , सन्तोंका स्वागत - सत्कार और उनकी भोजन - व्यवस्था कैसे की जाय ? आपकी पत्नीने एक विश्वस्त व्यक्तिके माध्यमसे यह सूचना आपतक भिजवायी । आपने उत्तर दिया कि घरमें लोटा - थाली जो कुछ भी हो , सब बेंचकर सन्त - सेवा कर दो ।
पत्नीने ऐसा ही किया , पर लोटा थाली बेंचनेसे भला कितने दिनतक सन्तसेवा और गृहस्थी चल सकती थी । घरमें फिरसे फाँके होने लगे । इसी बीच पत्नीके मायकेवाले भी आ गये , अब उस बेचारीके समक्ष एक और धर्मसंकट खड़ा हो गया । कहींसे कोई सहायताकी आशा नहीं थी , निदान सब तरफसे निराश होकर उसने अशरण - शरण भगवान्की शरण ली और आर्त भावसे लज्जा - रक्षाकी प्रार्थना की । भक्तिमती पत्नीकी यह करुण टेर भगवान्तक पहुँचनेमें देर न लगी । उन्होंने तुरंत आपका रूप बनाया और बर्तन तथा भोज्य - सामग्री आदि लाकर घरमें रख दिया । इधर राजाके गुप्तचरोंने राजाको खबर दी कि नापाजीके घरकी तो यह हालत है कि उनकी पत्नीने घरके बर्तन आदि बेंचकर सन्तसेवा कर दी । यह सुनकर वह बहुत प्रभावित हुआ और तुरंत ही आपको कारागार छुड़वा दिया । जब आप घर आये तो घरको धन - धान्यसे सम्पन्न देख बड़े ही आश्चर्यचकित हुए । आपने पत्नीसे पूछा कि ' यह सब सामान कहाँसे आया ? ' अब आश्चर्यचकित होनेकी बारी पत्नीकी थी । उसने कहा — ' यह आप कैसी बात कर रहे हैं ? अरे ! आप ही तो कल सायंकालको सारा सामान लाये थे । ' आपकुछ नहीं बोले और मन - ही - मन प्रभुकी कृपाका स्मरणकर गद्गद हो गये ।
श्रीनापाजी गृहस्थ थे , आजीविकाके लिये आप खेती करते थे । आपका ज्यादातर समय सन्तसेवा में ही बीतता था , अतः खेत सूखने लगे । एक दिन आप रातमें खेतोंकी सिंचाई कर रहे थे , परंतु रातभर परिश्रम करनेके बावजूद खेत सूखा - का - सूखा ही रह गया । सारा का सारा पानी बह गया था । दूसरे दिन जब आपने खेतकी दशा देखी तो बहुत दुखी हुए । आप जैसे भक्तका दुःख भगवान्को भी बर्दाश्त नहीं हुआ । और वे आपके पुत्रका रूप धारणकर आये और बोले - ' पिताजी । आपको अब रात्रिमें खेतोंकी सिंचाई करनेकी आवश्यकता नहीं है , अब आप निश्चिन्त रहिये और मैं दिनमें ही खेतोंकी सिंचाई और खेतीका काम कर दिया करूंगा । आप प्रसन्नतापूर्वक सन्तसेवा कीजिये । ' पुत्रकी इस कर्तव्यनिष्ठा और सन्तसेवाके प्रति आदर भाव देखकर आपको बड़ी प्रसन्नता हुई और आप निश्चिन्त होकर सन्तसेवा करने लगे ।
एक दिन आपने देखा कि पुत्र घरपर सो रहा है , आपने सोचा थका होगा , इसलिये आराम कर रहा है और यही सोचकर स्वयं खेतपर चले गये । वहाँ देखा तो पुत्र खेतोंकी सिंचाई कर रहा था , आपको बड़ा आश्चर्य हुआ । चुपचाप घर लौट आये और यहाँ देखा तो पुत्र सो रहा था । अब तो आप समझ गये कि मेरे पुत्रका वेश धारणकर स्वयं परमपिता परमात्मा ही मेरे खेतोंकी देखभाल कर रहे हैं । अब तो आप तुरंत ही वापस अपने खेतोंपर पहुँचे और पुत्ररूपधारी भगवान्का हाथ पकड़कर कहने लगे- ' प्रभो ! मैं आपको पहचान गया , आप मेरे पुत्र नहीं स्वयं श्रीभगवान् हैं । ' पुत्ररूपधारी भगवान्ने कहा - ' अरे पिताजी ! आप यह क्या कह रहे हैं ? मैं तो आपका पुत्र ही हूँ । ' परंतु जब आप नहीं माने तो विवश होकर भगवान्को प्रकट होना पड़ा । आपने कहा - ' प्रभो ! आपको यह सब करनेकी क्या जरूरत थी ? ' प्रभुने कहा- ' नापाजी । आप नित्यप्रति हमारी और हमारे भक्तोंकी सेवा करते हैं , यदि हमने थोड़ी - सी आपकी सहायता कर हो दी तो क्या हो गया ? अरे मैं तो आपद्वारा की गयी सेवाका ब्याज भी नहीं चुका पाया हूँ । ' भक्तवत्सल प्रभुकी बातें सुनकर आपके प्रेमाश्रु छलछला आये और हृदय परमानन्दसे गद्गद हो उठा ।
ऐसे भक्त और सन्तसेवी थे श्रीनापाजी । इतना ही नहीं , बड़े उदार , दानी और परोपकारी भी थे आप । एक दिन आपके द्वारपर एक अतिथि आये । आपने पत्नीसे कहा कि अतिथिके लिये कुछ भोजनकी व्यवस्था करो । पत्नीने कहा - ' स्वामी ! मात्र एक रोटी है , जो मैंने बालकके लिये रखी है , हमें और आपको तो उपवास करना ही है , ऐसेमें मैं अतिथिके लिये क्या व्यवस्था करूँ ? घरमें अन्नका एक दाना भी नहीं है , न ही पासमें पैसे ही हैं । ' आपने कहा- देवि ! बालककी रोटीमेंसे ही आधी रोटी अतिथिको भी दे दो , इससे बालकके भी प्राण बचे रहेंगे और अतिथि भी द्वारसे भूखा नहीं जायगा । ऐसे परोपकारी सन्त थे श्रीनापाजी !
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
भूपाल मिश्र
सनातन वैदिक धर्म
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