Garur puran गरुड पुराण 3

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 गरुड पुराण सारोद्धार तीसरा अध्याय 



यमयातनाका वर्णन , चित्रगुप्तद्वारा श्रवणोंसे प्राणियोंके शुभाशुभ कर्मके विषय में पूछना , भवणोंद्वारा वह सब धर्मराजको बताना और धर्मराजद्वारा दण्डका निर्धारण 

गरुड उवाच यममार्गमतिक्रम्य गत्वा पापी यमालये । कीदृशीं यातनां भुङ्क्ते तन्मे कथय केशव ॥ १ 

 गरुडजीने कहा- हे केशव । यममार्गकी यात्रा पूरी करके यमके भवनमें जाकर पापी किस प्रकारकी यातनाको भोगता है ? वह मुझे बतलाइये ॥ १ 

 श्रीभगवानुवाच आद्यन्तं च प्रवक्ष्यामि शृणुष्व चत्वारिंशद्योजनानि चतुर्युक्तानि विनतात्मज कथ्यमानेऽपि नरके त्वं भविष्यसि कम्पितः ॥ २ 

 काश्यप । बहुभीतिपुरादग्रे धर्मराजपुरं महत् ॥ ३ 

 श्रीभगवान् बोले- हे विनताके पुत्र गरुड ! मैं ( नरकयातनाको ) आदिसे अन्ततक कहूँगा , सुनो । मेरे द्वारा नरकका वर्णन किये जानेपर ( उसे सुननेमात्रसे ही ) तुम काँप उठोगे ॥ २

हे कश्यपनन्दन ! बहुभीतिपुरके आगे चौवालीस योजनमें फैला हुआ धर्मराजका विशाल पुर है ॥ ३ 

हाहाकारसमायुक्तं दृष्ट्वा क्रन्दति त पातकी । तत्क्रन्दनं समाकर्ण्य यमस्य पुरचारिणः ॥ ४ 

 गत्वा च तत्र ते सर्वे प्रतीहारं वदन्ति हि धर्मध्वजः प्रतीहारस्तत्र तिष्ठति सर्वदा ॥ ५ 

स गत्वा चित्रगुप्ताय ब्रूते तस्य शुभाशुभम् । ततस्तं चित्रगुप्तोऽपि धर्मराजं निवेदयेत् ॥ ६ 

हाहाकारसे परिपूर्ण उस पुरको देखकर पापी प्राणी क्रन्दन करने लगता है । उसके क्रन्दनको सुनकर यमपुरमें विचरण करनेवाले ( यमके गण ) - ॥४ 

 प्रतीहार ( द्वारपाल ) के पास जाकर उस ( पापी ) के विषयमें बताते हैं । धर्मराजके द्वारपर सर्वदा धर्मध्वज नामक प्रतीहार स्थित रहता है ॥ ५ 

 वह ( द्वारपाल ) जाकर चित्रगुप्तसे उस प्राणीके शुभ और अशुभ कर्मको बताता है । उसके बाद चित्रगुप्त भी उसके विषय में धर्मराजसे निवेदन करते हैं ॥ ६ 

 नास्तिका ये नरास्तार्क्ष्य महापापरताः सदा । तांश्च सर्वान् यथायोग्यं सम्यग्जानाति धर्मराट् ॥ ७ 

 तथापि चित्रगुप्ताय तेषां पापं स पृच्छति । चित्रगुप्तोऽपि सर्वज्ञः श्रवणान् परिपृच्छति ॥ ८ 

 श्रवणा ब्रह्मणः पुत्राः स्वर्भूपातालचारिणः । दूरश्रवणविज्ञाना दूरदर्शनचक्षुषः ॥ ९ 

 हे तार्क्ष्य ! जो नास्तिक और महापापी प्राणी हैं , उन सभीके विषयमें धर्मराज यथार्थरूपसे भलीभाँति जानते हैं ॥ ७ 

 तो भी ( वे ) चित्रगुप्तसे उन प्राणियोंके पापके विषयमें पूछते हैं और सर्वज्ञ चित्रगुप्त भी श्रवणोंसे पूछ हैं ॥ ८ 

 श्रवण ब्रह्माके पुत्र हैं । वे स्वर्ग , पृथ्वी तथा पातालमें विचरण करनेवाले तथा दूरसे ही सुन एवं जान लेनेवाले हैं । उनके नेत्र सुदूरके दृश्योंको भी देख लेनेवाले हैं ॥ ९ 

तेषां पत्न्यस्तथाभूताः श्रवण्यः धर्मराजस्य पृथगाह्वयाः । स्त्रीणां विचेष्टितं सर्व तां विजानन्ति तत्त्वतः ॥ १० 

 नरैः प्रच्छन्नं प्रत्यक्षं यत्प्रोक्तं च कृतं च यत् । सर्वमावेदयन्त्येव चित्रगुप्ताय ते च ताः ॥ ११ 

 चारास्ते मनुष्याणां शुभाशुभम् । मनोवाक्कायजं कर्म सर्व जानन्ति तत्त्वतः ॥ १२ 

 श्रवणी नामकी उनकी पृथक् - पृथक् पनियाँ भी उसी प्रकारके स्वरूपवाली हैं अर्थात् श्रवणके समान ही है । वे स्त्रियोंकी सभी प्रकारकी चेष्टाओंको तत्त्वतः जानती हैं ॥ १० 

 मनुष्य छिपकर अथवा प्रत्यक्षरूपसे जो कुछ करता और कहता है , वह सब श्रवण एवं श्रवणियाँ चित्रगुप्त से बताते हैं ॥ ११ 

 वे श्रवण और त्रवणियाँ धर्मराजके गुप्तचर हैं , जो मनुष्यके मानसिक , वाचिक और कायिक - सभी प्रकारके शुभ और अशुभ कमको ठीक - ठीक जानते हैं ॥ १२ 

 व्रतैदर्दानैश्च एवं तेषां शक्तिरस्ति मर्त्यामर्त्याधिकारिणाम् । कथयन्ति नृणां कर्म श्रवणाः सत्यवादिनः ॥ १३ 

सत्योक्त्या यस्तोषयति तान्नरः । भवन्ति तस्य ते सौम्याः स्वर्गमोक्षप्रदायिनः ॥ १४ 

पापिनां पापकर्माणि ज्ञात्वा ते सत्यवादिनः धर्मराजपुरः प्रोक्ता जायन्ते दुःखदायिनः ॥ १५ 

मनुष्य और देवताओंके अधिकारी वे श्रवण और श्रवणियाँ सत्यवादी हैं । उनके पास ऐसी शक्ति है , जिसके बलपर वे मनुष्यकृत कर्मोंको बतलाते हैं ॥ १३ 

 व्रत , दान और सत्य वचनसे जो मनुष्य उन्हें प्रसन्न करता है , तीसरा अध्याय ३५ उसके प्रति वे सौम्य तथा स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हो जाते हैं ॥ १४

 वे सत्यवादी श्रवण पापियोंक पापकमको जानकर धर्मराजके सम्मुख यथावत् कह देनेके कारण ( पापियोंके लिये ) दुःखदायी हो जाते हैं ॥ १५ 

 आदित्यचन्द्रावनिलोऽनलश्च द्यौर्भूमिरापो हृदयं यमश्च अहश्च रात्रिश्च उभे च सन्ध्ये धर्मश्च जानाति नरस्य वृत्तम् ॥ १६ 

 श्रवणा धर्मराजश्चित्रगुप्तः एवं सुनिश्चयं कृत्वा पापिनां भास्करादयः । कायस्थं तत्र पश्यन्ति पापं पुण्यं च सर्वशः ॥ १७ 

पातकं यमः । आहूय तन्त्रिजं रूपं दर्शयत्यति भीषणम् ॥ १८ 

 सूर्य , चन्द्रमा , वायु , अग्नि , आकाश , भूमि , जल , हृदय , यम , दिन , रात , दोनों संध्याएँ और धर्म - ये मनुष्यके वृत्तान्तको जानते हैं ॥ १६ 

 धर्मराज , चित्रगुप्त , श्रवण और सूर्य आदि मनुष्यके शरीरमें स्थित सभी पाप और पुण्योंको पूर्णतया देखते हैं ॥ १७ 

 इस प्रकार पापियोंके पापके विषयमें सुनिश्चित जानकारी प्राप्त करके यम उन्हें बुलाकर अपना अत्यन्त भयंकर रूप दिखाते हैं ॥ १८ 

 पापिष्ठास्ते प्रपश्यन्ति यमरूपं भयङ्करम् । दण्डहस्तं महाकायं महिषोपरिसंस्थितम् ॥ १ ९ 

 प्रलयाम्बुदनिर्घोषकज्जलाचलसन्निभम् । विद्युत्प्रभायुधैर्धीमं द्वात्रिंशद्भुजसंयुतम् ॥ २० 

 योजनत्रयविस्तारं वापीतुल्यविलोचनम् । दंष्ट्राकरालवदनं रक्ताक्षं दीर्घनासिकम् ॥ २१ 

 वे पापी यमके ऐसे भयंकर रूपको देखते हैं- जो हाथमें दण्ड लिये हुए , बहुत बड़ी कायावाले , भैंसेके ऊपर संस्थित , प्रलयकालीन मेघके समान आवाजवाले , काजलके पर्वतके समान , बिजलीकी प्रभावाले , आयुधोंके कारण भयंकर , बत्तीस भुजाओंवाले , तीन योजनके लम्बे - चौड़े विस्तारवाले , बावलीके समान गोल नेत्रवाले , बड़ी - बड़ी दाढ़ोंके कारण भयंकर मुखवाले , लाल - लाल आँखोंवाले और लम्बी नाकवाले हैं ॥ १ ९ -२१ 

 मृत्युज्वरादिभिर्युक्तश्चित्रगुप्तोऽपि भीषणः । सर्वे दूताश्च गर्जन्ति यमतुल्यास्तदन्तिके ॥ २२ 

 तं दृष्ट्वा भयभीतस्तु हा हेति वदते खलः । अदत्तदानः पापात्मा कम्पते क्रन्दते पुनः ॥ २३ 

 ततो वदति तान्सर्वान् क्रन्दमानांश्च पापिनः । शोचन्तः स्वानि कर्माणि चित्रगुप्तो यमाज्ञया ॥ २४ 

मृत्यु और ज्वर आदिसे संयुक्त होनेके कारण चित्रगुप्त भी भयावह हैं । यमके समान भयानक सभी दूत उनके समीप ( पापियोंको डरानेके लिये ) गरजते रहते हैं ॥ २२ 

 उन ( चित्रगुप्त ) को देखकर भयभीत होकर पापी हाहाकार करने लगता है । दान न करनेवाला वह पापात्मा काँपता है और बार - बार विलाप करता है ॥ २३ 

तब चित्रगुप्त भो भोः यमकी आज्ञासे क्रन्दन करते हुए और अपने पापकर्मोके विषय में सोचते हुए उन सभी प्राणियोंसे कहते हैं ॥ २४ 

पापा दुराचारा अहङ्कारप्रदूषिताः । किमर्थमर्जितं पापं युष्माभिरविवेकिभिः ॥ २५ 

 कामक्रोधाद्युत्पन्नं कृतवन्तः पापिनाम् । तत्पापं दुःखदं मूढाः किमर्थ चरितं जनाः ॥ २६ 

पापान्यत्यन्तहर्षिताः । तथैव यातना भोग्याः किमिदानीं पराङ्मुखाः ॥ २७ ॥ अरे पापियो । दुराचारियो । अहंकारसे दूषितो ! तुम अविवेकियोंने क्यों पाप कमाया है ? ॥ २५ 

 कामसे ,ण क्रोधसे तथा पापियोंकी संगतिसे जो पाप तुमने किया है , वह दुःख देनेवाला है , फिर हे मूर्खजनो । तुमने वह ( पापकर्म ) क्यों किया ? ॥ २६ 

 पूर्वजन्ममें तुम लोगोंने जिस प्रकार अत्यन्त हर्षपूर्वक पापकर्मोको किया है , उसी प्रकार यातना भी भोगनी चाहिये । इस समय ( यातना भोगनेसे ) क्यों पराङ्मुख हो रहे हो ? ॥ २७ 

 कृतानि यानि पापानि युष्माभिः सुबहून्यपि तानि पापानि दुःखस्य कारणं न वयं जनाः ॥ २८ 

 मूर्खेऽपि पण्डिते वापि दरिद्रे वा श्रियान्विते । सबले निर्बले वापि समवर्ती यमः स्मृतः ॥ २ ९ 

 चित्रगुप्तस्येति वाक्यं श्रुत्वा ते पापिनस्तदा । शोचन्तः स्वानि कर्माणि तूष्णीं तिष्ठन्ति निश्चलाः ॥ ३० 

तुम लोगोंने जो बहुत - से पाप किये हैं , वे पाप ही तुम्हारे दुःखके कारण हैं । इसमें हमलोग कारण नहीं हैं ॥ २८ 

 मूर्ख हो या पण्डित , दरिद्र हो या धनवान् और सवल हो या निर्बल- यमराज सभीसे समान व्यवहार करनेवाले कहे गये हैं ॥ २ ९ 

 चित्रगुप्तके इस प्रकारके वचनोंको सुनकर वे पापी अपने कर्मोंके विषय में सोचते हुए निधेष्ट होकर चुपचाप बैठ जाते हैं ॥ ३० 

 धर्मराजोऽपि तान् दृष्ट्वा चोरवन्निश्चलान् स्थितान् । आज्ञापयति पापानां शास्ति चैव यथोचितम् ॥ ३१ 

 ततस्ते निर्दया दूतास्ताडयित्वा वदन्ति च । गच्छ पापिन् महाघोरान् नरकानतिभीषणान् ॥ ३२ 

 यमाज्ञाकारिणो प्रचण्डचण्डकादयः । एकपाशेन तान् बद्ध्वा नयन्ति नरकान् प्रति ॥ ३३ 

 धर्मराज भी चोरकी भाँति निश्चल बैठे हुए उन पापियोंको देखकर उनके पापोंका मार्जन करनेके लिये यथोचित दण्ड देनेकी आज्ञा करते हैं ॥ ३१ 

 इसके बाद ये निर्दयी दूत ( उन्हें ) पीटते हुए कहते हैं- पापी महान् घोर और अत्यन्त भयानक नरकोंमें चलो ॥ ३२ 

 यमके आज्ञाकारी प्रचण्ड और चण्डक आदि नामवाले दूत एक पाशंसे उन्हें बाँधकर नरककी ओर ले जाते हैं ॥ ३३ 

 तत्र वृक्षो महानेको क्षमध्वं ज्यलदग्निसमप्रभः । पञ्चयोजनविस्तीर्णः एकयोजनमुतिः ॥ ३४ 

 तदवृक्षे शृङ्खलैर्यद्ध्याऽधोमुखं ताडयन्ति ते रुदन्ति ज्वलितास्तत्र तेषां त्राता न विद्यते ॥ ३५ 

 तस्मिन्नेव शाल्मलीवृक्षे लम्यन्तेऽनेकपापिनः । क्षुत्पिपासापरिश्रान्ता यमदूतैश ताडिताः ॥ ३६ 

 भोऽपरार्ध मे कृताञ्जलिपुटा इति विज्ञापयन्ति तान् दूतान् पापिष्ठास्ते निराश्रयाः ।। ३७ 

 वहाँ जलती हुई अग्निके समान प्रभावाला एक विशाल वृक्ष है , जो पाँच योजनमें फैला हुआ है तथा एक योजन ऊँचा है ॥ ३४ 

उस वृक्षमें नीचे मुख करके उसे साँकलोंसे बाँधकर वे दूत पीटते हैं । यहाँ जलते हुए वे रोते हैं , ( पर वहाँ ) उनका कोई रक्षक नहीं होता ॥ ३५ 

उसी शाल्मली - वृक्षमें भूख और प्याससे पीडित तथा यमदूतद्वारा पीटे जाते हुए अनेक पापी लटकते रहते हैं ॥ 

वे आश्रयविहीन पापी अञ्जलि बाँधकर - ' हे यमदूतो मेरे अपराधको क्षमा कर दो , ऐसा उन दूतोंसे निवेदन करते हैं ॥ ३७ 

 पुनः पुनश्च ते दूतैर्हन्यन्ते ताडनाच्चैव निश्चेष्टा मूर्च्छिताश्च लौहयष्टिभिः । मुद्गरैस्तोमरैः कुन्तैर्गदाभिर्मुसलैर्भृशम् ॥ ३८ 

 भवन्ति ते तथा निश्चेष्टितान् दृष्ट्वा किङ्करास्ते वदन्ति हि ॥ ३ ९ 

 भो भोः पापा दुराचाराः किमर्थं दुष्टचेष्टितम् । सुलभानि न दत्तानि जलान्यन्नान्यपि कचित् ॥ ४० 

 बार - बार लोहेकी लाठियों , मुद्गरों , भालों , बर्डियों , गदाओं और मूसलोंसे उन दूतोंके द्वारा वे अत्यधिक मारे जाते हैं ॥ ३८ 

 मारनेसे ( जब ) वे चेष्टारहित और मूर्च्छित हो जाते हैं , तब उन निश्चेष्ट पापियोंको देखकर यमके दूत कहते हैं ॥ ३ ९ ॥ अरे दुराचारियो ! पापियो । तुमलोगोंने दुराचरण क्यों किया ? सुलभ होनेवाले भी जल और अन्नका दान कभी क्यों नहीं दिया ? ॥ ४० 

 ग्रासार्द्धमपि नो दत्तं न श्ववायसयोर्बलिम् । नमस्कृता नातिथयो न कृतं पितृतर्पणम् ॥ ४१ 

 यमस्य चित्रगुप्तस्य न कृतं ध्यानमुत्तमम् । न जप्तश्च तयोर्मन्त्रो न भवेद्येन यातना ॥ ४२ 

 नापि किञ्चित्कृतं तीर्थं पूजिता नैव देवताः । गृहाश्रमस्थितेनापि हन्तकारोऽपि नोद्धृतः ॥ ४३ 

 तुमलोगोने आधा ग्रास भी कभी किसीको नहीं दिया और न ही कुत्ते तथा कौएके लिये बलि ही दी । अतिथियोंको नमस्कार नहीं किया और पितरोंका तर्पण नहीं किया ॥ ४१

  यमराज तथा चित्रगुप्तका उत्तम ध्यान भी नहीं किया और उनके मन्त्रोंका जप नहीं किया , जिससे तुम्हें यह यातना नहीं होती ॥ ४२ 

 कभी कोई तीर्थ यात्रा नहीं की , देवताओंकी पूजा भी नहीं की गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी तुमने हन्तकार नहीं निकाला ॥ ४३ 

1. इन्तकार- भोजन के पूर्व चौके जलिये देव तथा पञ्चवत्तिकी विधि है । पञ्चबलिमें गाय , कुत्ते , कौए , कौट ( कीड़े - मकोड़े ) तथा अतिथिदेव - इन पौगोंकि निमित्त भोजनका कुछ अंश निकालनेका विधान है । इसे हन्तकार कहा जाता है । जहाँ बलियै धंदेव सम्भव नहीं होता , यहाँ माताएँ अनि अन्नकी आहुति देकर गौ आदिके लिये कुछ भोजनसामग्री निकाल देती हैं । 

शुश्रुषिताच्श्र नो सन्तो भुइक्ष्व पापफलं स्वयम् । यतस्त्वं धर्महीनोऽसि ततः संताड्यसे भृशम् ॥ ४४ 

क्षमापराधं भगवान् हरिरीश्वरः । वयं तु सापराधानां दण्डदा हि तदाज्ञया ॥ ४५ 

 एवमुक्त्वा च ते दूता निर्दयं ताडयन्ति तान् । ज्वलदङ्गारसदृशाः पतितास्ताडनादधः ॥ ४६ 

 संतोंकी सेवा की नहीं , इसलिये ( अब ) स्वयं किये गये पापका फल भोगो । चूँकि तुम धर्महीन हो , इसलिये तुम्हें बहुत अधिक पीटा जा रहा है ॥ ४४

 भगवान् हरि ही ईश्वर हैं , वे ही अपराधोंको क्षमा करने में समर्थ हैं , हम तो उन्हींकी आज्ञासे अपराधियोंको दण्ड देनेवाले हैं ॥ ४५ 

 ऐसा कहकर वे दूत निर्दयतापूर्वक उन्हें पीटते हैं और उनसे पीटे जानेके कारण वे जलते हुए अंगारके समान नीचे गिर जाते हैं ॥ ४६ 

 पत्रैश्च गात्रच्छेदो पतनात्तस्य रुदन्तस्ते ततो दूतैर्मुखमापूर्य भवेत्ततः । तानधः पतिताञ्वानो भक्षयन्ति रुदन्ति ते ॥ ४७ 

 रेणुभिः । निबद्ध्य विविधैः पाशैर्हन्यन्ते केऽपि मुद्गरैः ॥ ४८ 

पापिन : केऽपि भिद्यन्ते क्रकचैः काष्ठवद्विधा । क्षिप्त्वा चाऽन्ये धरापृष्ठे कुठारैः खण्डशः कृताः ॥ ४ ९ 

 गिरनेसे उस ( शाल्मली ) वृक्षके पत्तोंसे उनका शरीर कट जाता है । नीचे गिरे हुए उन प्राणियोंको कुत्ते खाते हैं और वे रोते हैं ॥ ४७ 

 रोते हुए उन पापियोंके मुखमें यमदूत धूल भर देते हैं तथा कुछ पापियोंको विविध पाशोंसे बाँधकर मुद्गरोंसे पीटते हैं ॥ ४८ 

 कुछ पापी आरेसे काष्ठकी भाँति दो टुकड़ोंमें किये जाते हैं और कुछ भूमिपर गिराकर कुल्हाड़ीसे खण्ड - खण्ड किये जाते हैं ॥ ४ ९ 

 पथि बद्ध्वा हस्तौ च अर्थ खात्वाऽवटे केचिद्भिद्यन्ते मूर्ध्नि सायकैः । अपरे यन्त्रमध्यस्थाः पीड्यन्ते चेक्षुदण्डवत् ॥ ५० 

 केचित् प्रज्वलमानैस्तु साङ्गारैः परितो भृशम् । उल्मुकैर्वेष्टयित्वा च ध्मायन्ते लौपिण्डवत् ॥ ५१ 

 तथाऽपरे । कटाहे क्षिप्तवटवत्प्रक्षिप्यन्ते यतस्ततः ॥ ५२ 

 केचिद्धृतमये पाके तैलपाके कुछको गड्ढेमें आधा गाड़कर सिरमें बाणोंसे भेदन किया जाता है । कुछ दूसरे , पेरनेवाले यन्त्रमें डालकर इक्षुदण्ड ( गन्ने ) की भाँति पेरे जाते हैं ॥ ५० 

 कुछको चारों ओरसे जलते हुए अंगारोंसे युक्त उल्मुक ( जलती हुई लकड़ी ) से ढक करके लौहपिण्डकी भाँति धधकाया जाता है ॥५१ 

कुछको घीके खौलते हुए कड़ाहेमें , कुछको तेलके कड़ाहेमें तले जाते हुए बड़ेकी भाँति इधर - उधर चलाया जाता है ॥ ५२ 

 केचिन्मत्तगजेन्द्राणां क्षिप्यन्ते पुरतः च क्रियन्ते के ऽप्यधोमुखाः ॥ ५३ 

 क्षिप्यन्ते केऽपि कूपेषु पात्यन्ते केऽपि पर्वतात् । निमग्नाः कृमिकुण्डेषु तुद्यन्ते कृमिभिः परे ॥ ५४ 

 वज्रतुण्डैर्महाकाकैर्गृधैरामिषगृध्नुभिः । निष्कृष्यन्ते शिरोदेशे नेत्रे वास्ये च चञ्चभिः ॥ ५५ 

 किन्हींको मतवाले गजेन्द्रोंके सम्मुख रास्तेमें फेंक दिया जाता है , किन्हींको हाथ और पैर बाँधकर अधोमुख लटकाया जाता है ॥ ५३

किन्हींको कुँएमें फेंका जाता है , किन्हींको पर्वतोंसे गिराया जाता है , कुछ दूसरे कीड़ोंसे युक्त कुण्डोंमें डुबो दिये जाते हैं , जहाँ वे कीड़ोंके द्वारा व्यथित होते हैं ॥ ५४

 कुछ ( पापी ) वज्रके समान चोंचवाले बड़े बड़े कौओं , गीधों और मांसभोजी पक्षियोंद्वारा शिरोदेशमें , नेत्रमें और मुखमें चोचोंसे आघात करके नोंचे जाते हैं ॥ ५५

ऋणं वै प्रार्थयन्त्यन्ये एवं विवदमानानां देहि देहि धनं मम । यमलोके मया दृष्टो धन मे भक्षितं त्वया ॥ ५६ 

 पापिनां नरकालये छित्त्वा संदंशकैर्दूता मांसखण्डान् ददन्ति च ॥ ५७ ॥ एवं संताड्य तान् दूताः संकृष्य यमशासनात् । तामिस्त्रादिषु घोरेषु क्षिपन्ति नरकेषु च ॥ ५८ 

 कुछ दूसरे पापियोंसे ऋणको वापस करनेकी प्रार्थना करते हुए कहते हैं- ' मेरा धन दो , मेरा धन दो । यमलोकमें मैंने तुम्हें देख लिया है , मेरा धन तुम्हींने लिया है ॥५६ 

नरकमें इस प्रकार विवाद करते हुए पापियोंके अङ्गोंसे सड़सियोंद्वारा मांस नोंचकर ( यमदूत ) उन्हें देते हैं ॥ ५७ 

 इस प्रकार उन पापियोंको सम्यक् प्रताडित करके यमकी आज्ञासे यमदूत खींचकर तामिस्र आदि घोर नरकोंमें फेंक देते हैं ॥ ५८ 

नरका दुःखबहुलास्तत्र वृक्षसमीपतः । तेष्वस्ति यन्महदुःखं तद्वाचामप्यगोचरम् ॥ ५ ९ 

चतुरशीतिलक्षाणि नरका : सन्ति खेचर । तेषां मध्ये घोरतमा धौरेयास्त्वेकविंशतिः ॥ ६० 

 उस वृक्षके समीपमें ही बहुत दुःखोंसे परिपूर्ण नरक हैं , जिनमें प्राप्त होनेवाले महान् दुःखोंका वर्णन वाणीसे नहीं किया जा सकता ॥ ५ ९ 

हे आकाशचारिन् गरुड ! नरकोंकी संख्या चौरासी लाख है , उनमेंसे अत्यन्त भयंकर और प्रमुख नरकॉकी संख्या इक्कीस है ॥ ६० 

तामिस्त्रो लोहशंकुश्च महारौरवशाल्मली । रौरवः कुड्मलः कालसूत्रकः पूतिमृत्तिकः ॥ ६१ 

 संघातो लोहितोदश्च सविषः संप्रतापनः । महानिरयकाकोली सञ्जीवनमहापथौ ॥ ६२ ॥ 

 अवीचिरन्धतामिस्त्रः कुम्भीपाकस्तथैव सम्प्रतापननामैकस्तपनस्त्वेकविंशतिः ॥ ६३ ॥ 

 नानापीडामयाः सर्वे नानाभेदैः प्रकल्पिताः । नानापापविपाकाश्च किङ्करौघैरधिष्ठिताः ॥ ६४ 

तामिस्र , लोहशंकु , महारौरव , शाल्मली , रौरव , कुड्मल , कालसूत्रक , पूतिमृत्तिक , संघात , लोहितोद , सविष , संप्रतापन , महानिरय , काकोल , संजीवन , महापथ , अवीचि , अन्धतामिस्र , कुम्भीपाक , सम्प्रतापन तथा तपन- ये इक्कीस नरक हैं ॥ ६१-६३ 

 ये सभी अनेक प्रकारकी यातनाओंसे परिपूर्ण होनेके कारण अनेक भेदोंसे परिकल्पित हैं । अनेक प्रकारके पापोंका फल इनमें प्राप्त होता है और ये यमके दूतोंसे अधिष्ठित हैं ॥ ६४ 

 एतेषु पतिता मूढाः पापिष्ठा धर्मवर्जिताः । यत्र भुञ्जन्ति कल्पान्तः तास्ता नरकयातनाः ॥ ६५ 

 यातनाः । भुङ्गे नरो वा नारी वा मिथः सङ्गेन निर्मिताः ॥ ६६ 

एवं कुटुम्यं विधाण उदरम्भर एव वा विसृज्येहोभयं प्रेत्यभुङ्क्ते तत्फलमीदृशम् ॥ ६७ 

 इन नरकोंमें गिरे हुए मूर्ख , पापी , अधर्मी जीव कल्पपर्यन्त उन - उन नरक यातनाओंको भोगते हैं ॥ ६५ 

तामिल और अन्धतामित्र तथा रौरवादि नरकोंकी जो यातनाएँ हैं , उन्हें स्त्री और पुरुष पारस्परिक संगसे निर्मितकर भोगते हैं । ६६ 

इस प्रकार कुटुम्बका भरण - पोषण करनेवाला अथवा केवल अपना पेट भरनेवाला भी यहाँ कुटुम्ब और शरीर दोनों छोड़कर मृत्युके अनन्तर इस प्रकारका फल भोगता है ॥ ६७

एकः प्रपद्यते ध्वान्तं हित्वेदं स्वकलेवरम् । कुशलेतरपाथेयो भूतद्रोहण यद्भुतम् ॥ ६८ 

दैवेनासादितं तस्य शमले निरये पुमान् भुङ्क्ते कुटुम्बपोषस्य हृतद्रव्य इवातुरः । प्राणियों के साथ द्रोह करके भरण - पोषण किये गये अपने ( स्थूल ) शरीरको यहाँ छोड़कर पापकर्म रूपी पाथेय के साथ पापी अकेला ही अंधकारपूर्ण नरकमें जाता है ।६८

जिसका द्रव्य चोरी चला गया है ऐसे व्यक्ति की भांति पापी पुरुष दैव से प्राप्त ( अधर्मपूर्वक ) कुटुम्ब पोषण फलको आतुर होकर भोगता है ।केवलेन ह्मधरम्मेण कुटुम्बभरणोत्सुकः ।याति जीवोऽन्यता घरमं तमसः पदम् ॥ 

 अधस्तान्ररलोकस्य यावतीरयातनादयः । क्रमशः समनुक्रम्य पुनरत्रा व्रजेच्छुचिः ।।केवल अधर्मसे कुटुम्बके भरण पोषण के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति अंधकार की पराकाष्ठा अन्धतामिस्र नामक नरकमें जाता है ॥ ७० 

 मनुष्यलोकके नीचे नरकको जितनी यातनाएं है . क्रमश उनका भोग भोगते हुए चाफी ) शुद्ध होकर पुनः इस मर्त्य लोक में जन्म पाता है ॥

 इस प्रकार गरुडपुराण के अंतर्गत सारोद्धार मे यमयातना निरूपण नामक तीसरा अध्याय पुरा हुआ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

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