सारोद्धार गरुड पुराण
सातवाॅ अध्याय
पुत्रकी महिमा , दूसरेके द्वारा दिये गये पिण्डदानादिसे प्रेतत्वसे मुक्ति- इसके प्रतिपादनमें राजा बभ्रुवाहन तथा प्रेतकी कथा
सूत उवाच
इति श्रुत्वा तु गरुडः कम्पितोऽश्वत्थपत्रवत् । जनानामुपकारार्थ पुनः पप्रच्छ केशवम् ॥ १ ॥
सूतजीने कहा- ऐसा सुनकर पीपलके पत्तेकी भाँति काँपते हुए गरुडजीने प्राणियोंके उपकारके लिये पुनः भगवान् विष्णुसे पूछा- ॥ १ ॥
गरुड उवाच :
नराणां कृत्वा पापानि मनुजाः प्रमादाद् बुद्धितोऽपि वा । न यान्ति यातना याम्याः केनोपायेन कथ्यताम् ॥ २ ॥
संसारार्णवमग्नानां दीनचेतसाम् । पापोपहतबुद्धीनां विषयोपहतात्मनाम् ॥ ३ ॥
उद्धारार्थं वद स्वामिन् पुराणार्थं विनिश्चयम् । उपायं येन मनुजाः सद्गतिं यान्ति माधव ॥ ४ ॥
गरुडजीने कहा- हे स्वामिन् किस उपायसे मनुष्य प्रमादवश अथवा जानकर पापकर्मोको करके भी यमकी यातनाको न प्राप्त हो , उसे कहिये ॥ २॥
संसाररूपी सागरमें डूबे हुए , दीन चित्तवाले , पापसे नष्ट बुद्धिवाले तथा विषयोंके कारण दूषित आत्मावाले मनुष्योंके उद्धारके लिये हे माधव ! पुराणोंमें सुनिश्चित किये गये उपायको बताइये , जिससे मनुष्य सद्गति प्राप्त कर सकें ॥ ३-४ ॥
श्रीभगवानुवाच
श्रुत्वा साधु पृष्टं त्वया तार्क्ष्य मानुषाणां हिताय वै । शृणुष्वावहितो भूत्वा सर्वं ते कथयाम्यहम् ॥ ५ ॥
दुर्गतिः कथिता पूर्वमपुत्राणां च पापिनाम् । पुत्रिणां धार्मिकाणां तु न कदाचित्खगेश्वर ॥ ६ ॥
पुत्रजन्मनिरोधः स्याद्यदि केनापि कर्मणा । तदा कश्चिदुपायेन पुत्रोत्पत्तिं प्रसाधयेत् ॥ ७ ॥
हरिवंशकथां श्रुत्वा तचण्डीविधानतः । भक्त्या श्रीशिवमाराध्य पुत्रमुत्पादयेत्सुधीः ॥ ८ ॥
हरिवंशकथां श्रीभगवान् बोले- हे तार्क्ष्य ! मनुष्योंके हितकी कामनासे तुमने अच्छी बात पूछी है । सावधान होकर सुनो , मैं तुम्हें सब कुछ बताता हूँ ॥५ ॥
हे खगेश्वर ! मैंने इसके पहले पुत्ररहित और पापी मनुष्योंकी यातनाका वर्णन किया है । पुत्रवान् तथा धार्मिक मनुष्योंकी पूर्वोक्त दुर्गति कभी नहीं होती ॥ ६॥
यदि अपने पूर्वार्जित कर्मोके कारण पुत्रोत्पत्तिमें विघ्र हो तो किसी उपायसे पुत्रकी उत्पत्ति सम्पन्न करे । हरिवंशपुराणकी कथा सुनकर , विधानपूर्वक शतचण्डी यज्ञ करके भक्तिपूर्वक शिवकी आराधना करके तथा विद्वान्को पुत्र उत्पन्न करना चाहिये ॥ ७-८ ॥
पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मात्पितरं सुतः । तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा ॥ ९ ॥
एकोऽपि पुत्रो धर्मात्मा सर्व तारयते कुलम् । पुत्रेण लोकाञ्जयति श्रुतिरेषा सनातनी ॥ १० ॥
यतः पुत्र पितरोंकी पुम् नामक नरकसे रक्षा करता है , अतः स्वयं भगवान् ब्रह्माने ही उसे पुत्र नामसे कहा है ॥ ९ ॥
एक धर्मात्मा पुत्र सम्पूर्ण कुलको तार देता है । पुत्रके द्वारा व्यक्ति लोकोंको जीत लेता है , ऐसी सनातनी श्रुति है ॥ १० ॥
इति वेदैरपि प्रोक्तं पुत्रमाहात्म्यमुत्तमम् । तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा मुच्यते पैतृकादृणात् ।। ११ ।।
पौत्रस्य स्पर्शनान्मर्त्यो मुच्यते च ऋणत्रयात् । लोकानत्येद्दिवः प्राप्तिः पुत्रपौत्रप्रपौत्रकैः ॥ १२ ॥
ब्राह्मोढापुत्रोन्नयति संगृहीतस्त्वधो नयेत् । एवं ज्ञात्वा खगश्रेष्ठ हीनजातिसुतांस्त्यजेत् ॥ १३ ॥
इस प्रकार वेदोंने भी पुत्रके उत्तम माहात्म्यको कहा है । इसलिये पुत्रका मुख देख करके मनुष्य पितृ ऋणसे मुक्त हो जाता है ॥ ११ ॥
पौत्रका स्पर्श करके मनुष्य तीनों ( देव , ऋषि , पितृ ) ऋणोंसे मुक्त हो जाता है , ( इस प्रकार ) पुत्र - पौत्र और प्रपौत्रसे यमलोकोंका अतिक्रमण करके स्वर्ग आदिको प्राप्त करता है ॥ १२ ॥
ब्राह्मविवाह की विधिसे व्याही गयी पत्नीसे उत्पन्न औरस पुत्र ऊर्ध्वगति प्राप्त कराता है और संगृहीत पुत्र अधोगतिकी ओर ले जाता है । हे खगश्रेष्ठ ! ऐसा जान करके व्यक्ति होनजातिकी स्त्रीसे उत्पन्न पुत्रोंको त्याग दे ॥ १३ ॥
सवर्णेभ्यः सवर्णासु ये पुत्रा औरसाः खग । त एव श्राद्धदानेन पितॄणां स्वर्गहेतवः ॥ १४ ॥
श्राद्धेन पुत्रदत्तेन स्वर्यातीति किमुच्यते । प्रेतोऽपि परदत्तेन गतः स्वर्गमथो शृणु ।। १५ ।।
राक्षस तथा पैशाच - मे आठ प्रकार के विवाह गये है • ब्राह्म , दव , आर्थ , प्राजापत्य , आसुर , गान्धर्व , सातवाँ अध्याय अत्रैवोदाहरिष्ये ऽहमितिहासं पुरातनम् । और्ध्वदैहिकदानस्य परं माहात्म्यसूचकम् ॥ १६ ॥
हे खग ! सवर्ण पुरुषोंसे सवर्णा स्त्रियोंमें जो पुत्र उत्पन्न होते हैं , वे औरस पुत्र कहे जाते हैं और वे ही श्राद्ध प्रदान करके पितरोंको स्वर्ग प्राप्त क्रानेके कारण होते हैं ॥ १४॥
औरस पुत्रके द्वारा किये गये श्राद्धसे पिताको स्वर्ग प्राप्त होता है , इस विषयमें क्या कहना ? दूसरेके द्वारा दिये गये श्राद्धसे भी प्रेत स्वर्गको चला जाता है , इस विषयमें सुनो ॥ १५ ॥
यहाँ मैं एक प्राचीन इतिहास कहूँगा , जो और्ध्वदैहिक दानके श्रेष्ठ माहात्म्यको सूचित करता है ॥ १६ ॥
पुरा त्रेतायुगे तार्क्ष्य राजाऽऽसीद् बभ्रुवाहनः । महोदये पुरे रम्ये धर्मनिष्ठो महाबलः ॥ १७ ॥
यज्वा दानपतिः श्रीमान् ब्रह्मण्यः साधुवत्सलः । शीलाचारगुणोपेतो दयादाक्षिण्यसंयुतः ॥ १८ ॥
पालयामास धर्मेण प्रजा : पुत्रानिवौरसान् । क्षत्रधर्मरतो नित्यं स दण्ड्यान् दण्डयन्नृपः ॥ १ ९ ॥
हे तार्क्ष्य ! पूर्वकालमें त्रेतायुगमें महोदय नामके रमणीय नगरमें महाबलशाली और धर्मपरायण बभ्रुवाहन नामक एक राजा रहता था ॥ १७॥
वह यज्ञानुष्ठानपरायण , दानियों में श्रेष्ठ , लक्ष्मीसे सम्पन्न , ब्राह्मणभक्त तथा साधु पुरुषोंके प्रति अनुराग रखनेवाला , शील एवं आचार आदि गुणोंसे युक्त , स्वजनोंके प्रति अपनत्व और इतरजनोंके प्रति दया भावसे सम्पन्न था ॥
क्षात्रधर्मपरायण वह ( राजा बभ्रुवाहन ) औरस पुत्रकी भाँति धर्मपूर्वक अपनी प्रजाका पालन करता था और दण्ड देनेयोग्य अपराधियोंको दण्ड देता था ॥ १ ९ ॥
स कदाचिन्महाबाहुः ससैन्यो मृगयां गतः । वनं विवेश गहनं नानावृक्षसमन्वितम् ॥ २० ॥
नानामृगगणाकीर्ण नानापक्षिनिनादितम् । वनमध्ये तदा राजा मृगं दूरादपश्यत ॥ २१ ॥
तेन विद्धो मृगोऽतीव बाणेन सुदृढेन च । बाणमादाय स तस्य वनेऽदर्शनमेयिवान् ॥ २२ ॥
वह महाबाहु किसी समय सेनाके साथ मृगयाके लिये नाना वृक्षोंसे युक्त एक घनघोर वनमें प्रविष्ट हुआ ॥ २० ॥
वह वन नाना मृगगणों ( पशुओं ) से व्याप्त और अनेक पक्षियोंसे निनादित था । उस समय राजाने वनके मध्यमें दूरसे एक मृगको देखा ॥ २१ ॥
राजाके द्वारा सुदृढ़ बाणसे विद्ध वह मृग बाणसहित जंगलमें अदृश्य हो गया ॥ २२ ॥
कक्षेण रुधिराद्रेण स राजाऽनुजगाम तम् । ततो मृगप्रसंगेन वनमन्यद्विवेश सः ।।
क्षुत्क्षामकण्ठो नृपतिः श्रमसन्तापमूच्छितः । जलाशयं समासाद्य साश्व एव व्यगाहत ॥ २४ ॥
पपौ तदुदकं शीतं पद्मगन्धादिवासितम् । ततोऽवतीर्य सलिलाद्विश्रमो बभ्रुवाहनः ॥ २५ ॥
ददर्श न्यग्रोधतरुं शीतच्छायं मनोहरम् । महाविटपविस्तीर्ण पक्षिसंघनिनादितम् ॥ २६ ॥
रुधिरसे गीली हुई घासपर अंकित चिह्नसे राजाने उसका पीछा किया । तब मृगके प्रसंगसे वह राजा दूसरे वनमें जा पहुँचा ॥ २३ ॥
भूख - प्याससे सूखे हुए कण्ठवाला तथा परिश्रमके संतापसे पीडित उस राजाने एक जलाशयके समीप पहुँचकर घोड़ेके साथ उसमें स्नान किया ॥ २४ ॥
तथा कमलको गन्धादिसे सुगन्धित शीतल जलका पान किया । इसके बाद उस जलाशयसे बाहर निकलकर श्रमरहित राजा बभ्रुवाहनने वृक्षरूपी विशाल शाखाओंके कारण फैले हुए , मनोहर और शीतल छायावाले तथा पक्षिसमूहोंसे कूजित एक वटवृक्षको देखा ॥ २५-२६ ॥
वनस्य तस्य सर्वस्य महाकेतुमिव स्थितम् । मूलं तस्य समासाद्य निषसाद महीपतिः ॥ २७ ॥
अथ प्रेतं ददर्शासौ क्षुत्तृभ्यां व्याकुलेन्द्रियम् । उत्कचं मलिनं कुब्जं निर्मासं भीमदर्शनम् ॥ २८ ॥
वह वृक्ष सम्पूर्ण वनकी महती पताकाकी भाँति स्थित था । उसकी जड़के पास जाकर राजा बैठ गया ॥ २७ ॥
उसके बाद राजाने भूख और प्याससे व्याकुल इन्द्रियोंवाले , ऊपरकी ओर उठे हुए बालोंवाले , अत्यन्त मलिन , कुबड़े और मांसरहित एक भयावह प्रेतको देखा ॥ २८ ॥
तं दृष्ट्वा विकृतं घोरं विस्मितो बभ्रुवाहनः । प्रेतोऽपि दृष्ट्वा तं घोरामटवीमागतं नृपम् ॥ २ ९ ॥
समुत्सुकमना भूत्वा तस्यान्तिकमुपागतः । अब्रवीत् स तदा तार्क्ष्य प्रेतराजो नृपं वचः ॥ ३० ॥
प्रेतभावो मया त्यक्तः प्राप्तोऽस्मि परमां गतिम् । त्वत्संयोगान्महाबाहो जातो धन्यतरोऽस्म्यहम् ॥ ३१ ॥
उस विकृत आकृतिवाले भयावह प्रेतको देखकर बभ्रुवाहन विस्मित हो गया । प्रेत भी घने जंगलमें आये हुए राजाको देखकर चकित हो गया और समुत्सुक मनवाला होकर वह प्रतराज उसके पास आया । हे तार्क्ष्य । तब उस प्रेतराजने राजासे कहा- ॥ २ ९ -३० ॥
हे महाबाहो आपके सम्बन्धसे मैंने प्रेतभावका त्याग कर दिया है अर्थात् मेरा प्रेतभाव छूट गया है और मैं परम शान्तिको प्राप्त हो गया हूँ तथा धन्यतर हो गया हूँ ॥ ३१ ॥
राजोवाच
कृष्णवर्ण करालस्य प्रेतत्वं घोरदर्शनम् । केन कर्मविपाकेन प्राप्तं ते बहमङ्गलम् ॥ ३२ ॥
प्रेतत्वकारणं तात ब्रूहि सर्वमशेषतः । कोऽसि त्वं केन दानेन प्रेतत्वं ते विनश्यति ॥ ३३ ॥
राजाने कहा- हे कृष्णवर्णवाले तथा भयावह रूपवाले प्रेत किस कर्मके प्रभावसे देखने में डरावने लगनेवाले और बहुत ही अमङ्गलकारी इस प्रेतत्व - स्वरूपको तुमने प्राप्त किया है । हे तात ! अपने प्रेतत्वकी प्राप्तिका सारा कारण बतलाओ तुम कौन हो और किस दानसे तुम्हारा प्रेतत्व नष्ट होगा ? ३२-३३ ।।
प्रेत उवाच
कथयामि नृपश्रेष्ठ सर्वमेवादितस्तव प्रेतत्वकारणं श्रुत्वा दयां कर्तुं त्वमर्हसि ॥ ३४ ॥
वैदिशं नाम नगरं सर्वसम्पत्समन्वितम् । नानाजनपदाकीर्ण नानारत्नसमाकुलम् ॥ ३५ ॥
हर्म्यप्रासादशोभाढ्यं नानाधर्मसमन्वितम् । तत्राऽहं न्यवसं तात देवार्चनरतः सदा ॥ ३६ ॥
प्रेतने कहा- हे श्रेष्ठ राजन् ! मैं आरम्भसे आपको सब कुछ बताता हूँ । प्रेतत्वका कारण सुनकर आप कृपया उसे दूर करनेकी दया कीजिये ॥ ३४ ॥
वैदिश नामका एक नगर था , जो सभी प्रकारकी सम्पत्तियोंसे समृद्ध , नाना जनपदोंसे व्याप्त , अनेक प्रकारके रत्नोंसे परिपूर्ण , धनिकोंके भवनों तथा देव एवं राजप्रासादोंसे सुशोभित और अनेक प्रकारके धर्मानुष्ठानोंसे युक्त था । हे तात । मैं वहाँ रहता हुआ निरन्तर देवपूजा किया करता था ॥ ३५-३६ ।।
वैश्यो जात्या सुदेवोऽहं नाम्ना विदितमस्तु ते । हव्येन तर्पिता देवाः कव्येन पितरस्तथा ॥ ३७ ॥
विविधैर्दानयोगैश्च सन्तर्पिता मया । दीनान्धकृपणेभ्यश्च दत्तमन्नमनेकधा ॥ ३८ ॥
विप्राः आपको विदित होना चाहिये कि मैं वैश्यजातिमें उत्पन्न हुआ और मेरा नाम सुदेव था । मैंने हव्य प्रदान करके देवताओंका तथा कव्य प्रदान करके पितरोंका तर्पण किया ॥ ३७॥
अनेक प्रकारके दानोंसे मैंने ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट किया था और अनेक बार दीन , अंधे एवं कृपण ( जरूरतमन्द ) मनुष्योंको अन्न दिया था ॥ ३८ ॥
तत्सर्वं निष्फलं राजन् मम दैवादुपागतम् । यथा मे निष्फलं जातं सुकृतं तद् वदामि ते ॥ ३ ९ ॥
ममैव सन्ततिर्नास्ति न सुहन्न च बान्धवः । न च मित्रं हि मे तादृग् यः कुर्यादौर्ध्वदैहिकम् ॥ ४० ॥
यस्य न स्यान्महाराज श्राद्धं मासिकषोडशम् । प्रेतत्वं सुस्थिरं तस्य दत्तैः श्राद्धशतैरपि ॥ ४१ ॥
( किंतु ) हे राजन् । मेरा यह सारा सत्कर्म मेरे दुर्दैवसे निष्फल हो गया । जिस कारण मेरा सुकृत निष्फल हुआ वह मैं आपको बताता हूँ ॥ ३ ९ ॥
मुझे कोई सन्तान नहीं है , मेरा कोई सुहद् नहीं है , कोई बान्धव नहीं है और न ऐसा कोई मित्र ही है जो मेरी और्ध्वदैहिक क्रिया करता ॥ ४० ॥
हे महाराज ( मृत्युके अनन्तर ) जिस व्यक्तिके उद्देश्यसे घोडश मासिक श्राद्ध नहीं दिये जाते , सैकड़ों श्राद्ध करनेपर भी उसका प्रेतत्व सुस्थिर ही रहता है अर्थात् दूर नहीं होता ॥ ४१ ॥
त्वमौर्ध्वदैहिकं कृत्वा मामुद्धर महीपते । वर्णानां चैव सर्वेषां राजा बन्धुरिहोच्यते ॥ ४२ ॥
तन्मां तारय राजेन्द्र मणिरत्नं ददामि ते । यथा मे सद्गतिर्भूयात् प्रेतयोनिश्च गच्छति ॥ ४३ ॥
यथा कार्य त्वया वीर मम चेदिच्छसि प्रियम् । क्षुधातृषादिभिर्दुःखैः प्रेतत्वं दुःसहं मम ॥ ४४ ॥
हे महाराज ! आप मेरा औवदैहिक कृत्य करके मेरा उद्धार कीजिये । ( क्योंकि ) इस लोकमें राजा सभी वर्णोंका बन्धु कहा जाता है ॥ ४२ ॥
इसलिये हे राजेन्द्र ! आप मेरा उद्धार कीजिये , मैं आपको मणिरत्न देता हूँ । हे वीर ! यदि आप मेरा हित चाहते हैं तो जैसे मेरी सद्गति हो सके और मेरी प्रेतयोनिसे जैसे मुक्ति हो सके , वैसा आप करें । भूख - प्यास आदि दुःखोंके कारण यह प्रेतयोनि मेरे लिये दुःसह हो गयी है ॥ ४३-४४ ॥
स्वादूदकं फलं चास्ति वनेऽस्मिञ्छीतलं शिवम् न प्राप्नोमि क्षुधार्तोऽहं तृषार्तो न जलं क्वचित् ॥ ४५ ॥
यदि मे हि भवेद्राजन् विधिर्नारायणो महान् । तदग्रे वेदमन्त्रैश्च क्रिया सर्वोर्ध्वदैहिकी ॥ ४६ ॥
तदा नश्यति मे नूनं प्रेतत्वं नात्र संशयः । वेदमन्त्रास्तपोदानं दया सर्वत्र जन्तुषु ॥ ४७ ॥ सच्छास्त्रश्रवणं विष्णोः पूजा सज्जनसंगतिः । प्रेतयोनिविनाशाय भवन्तीति मया श्रुतम् ॥ ४८ ॥
इस वनमें सुन्दर स्वादवाले शीतल जल और फल विद्यमान हैं , फिर भी मैं भूख और प्याससे पीड़ित हूँ । मुझे जल और फलकी प्राप्ति नहीं हो पाती ॥ ४५ ॥
हे राजन् ! यदि मेरे उद्देश्यसे यथाविधि नारायणबलि की जाय , उसके बाद वेदमन्त्रों के द्वारा मेरी सभी और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न की जाय तो निश्चित ही मेरा प्रेतत्व नष्ट हो जायगा , इसमें संशय नहीं है । मैंने सुन रखा है कि वेदके मन्त्र , तप , दान और सभी प्राणियोंमें दया , सत् - शास्त्रोंका श्रवण , भगवान् विष्णुकी पूजा और सज्जनोंकी संगति ये सब प्रेतयोनिके विनाशके लिये होते हैं ॥ ४६-४८ ।।
अतो वक्ष्यामि ते विष्णुपूजां प्रेतत्वनाशिनीम् । सुवर्णद्वयमानीय सुवर्ण न्यायसंचितम् । तस्य नारायणस्यैकां प्रतिमां भूप कल्पयेत् ॥ ४ ९ ॥
पीतवस्त्रयुगच्छन्नां सर्वाभरणभूषिताम् । स्नापितां विविधैस्तोयैरधिवास्य यजेत्ततः ॥ ५० ॥
इसलिये मैं आपसे प्रेतत्वको नष्ट करनेवाली विष्णुपूजाको कहूँगा । हे राजन् ! न्यायोपार्जित दो सुवर्ण ( ३२ माशा ) भारका सोना लेकर उससे नारायणकी एक प्रतिमा बनवाये , जिसे विविध पवित्र जलोंसे स्नान कराकर दो पीले वस्त्रोंसे वेष्टित करके सभी अलङ्कारोंसे विभूषितकर अधिवासित करे , तदनन्तर उसका पूजन करे ॥ ४ ९ -५० ॥
पूर्वे तु श्रीधरं तस्य दक्षिणे मधुसूदनम् । पश्चिमे वामनं देवमुत्तरे च गदाधरम् ॥५१ ॥
मध्ये पितामहं चैव तथा देवं महेश्वरम् । पूजयेच्च विधानेन गन्धपुष्पादिभिः पृथक् ॥ ५२ ॥
ततः प्रदक्षिणीकृत्य वह्नौ सन्तर्प्य देवताः । घृतेन दध्ना क्षीरेण विश्वेदेवांश्च तर्पयेत् ॥ ५३ ॥
उस प्रतिमाके पूर्वभागमें श्रीधर , दक्षिण में मधुसूदन , पश्चिममें वामन और उत्तरमें गदाधर , मध्यमें पितामह ब्रह्मा तथा महादेव शिवकी स्थापना करके गन्ध - पुष्पादि द्रव्योंके द्वारा विधि - विधानसे पृथक् पृथक पूजन करे ॥ ५१-५२ ॥
उसके बाद प्रदक्षिणा करके अग्रिमें ( हवन करके ) देवताओंको तृप्त करके दधि तथा दूधसे विश्वेदेवोंको तृप्त करे ॥ ५३ ।।
ततः स्नातो विनीतात्मा यजमानः समाहितः । नारायणाग्रे विधिवत्स्वां क्रियामौर्ध्वदैहिकीम् ॥ ५४ ॥
आरभेत यथाशास्त्रं क्रोधलोभविवर्जितः । कुर्याच्छ्राद्धानि सर्वाणि वृषस्योत्सर्जनं तथा ॥ ५५ ॥
ततः पदानि विप्रेभ्यो दद्याच्चैव त्र्योदश । शय्यादानं प्रदत्त्वा च घटं प्रेतस्य निर्वपेत् ॥ ५६ ॥
तदनन्तर समाहित चित्तवाला यजमान स्नान करके नारायणके आगे विनीतात्मा होकर विधिपूर्वक मनमें ल्पित और्ध्वदैहिक क्रियाका आरम्भ करे ॥ ५४॥
इसके बाद क्रोध और लोभसे रहित होकर शास्त्र विधिसे श्राद्धोंको करे तथा वृषोत्सर्ग करे ॥ ५५ ॥
तदनन्तर ब्राह्मणोंको तेरह पददान करे , फिर शय्यादान देकर लिये घटका दान करे ॥ ५६ ॥
राजोवाच
कथं प्रेतघटं कुर्याद् दद्यात् केन विधानतः । ब्रूहि सर्वानुकम्पार्थं घटं प्रेतविमुक्तिदम् ॥ ५७ ॥
राजाने कहा- ( हे प्रेत ! ) किस विधानसे प्रेतघटका निर्माण करना चाहिये और किस विधानसे उसका दान ( छाता ) , उपानह ( जूता ) , वस्त्रमुद्रिका ( अंगूठी ) , कमण्डल , आसन , पञ्चपान- ये सात वस्तुएँ पद कही गयी हैं । दण्ड , ताम्रपात्र , अन्न ) भोजन करना चाहिये । सभी प्राणियोंके ऊपर अनुकम्पा करनेके हेतुसे प्रेतोंको मुक्ति दिलानेवाले प्रेतघट - दानके विषयमें बताइये ॥ ५७ ॥
प्रेत उवाच
दानं प्रेतघटं साधु पृष्टं महाराज कथयामि निबोध ते । प्रेतत्वं न भवेद्येन दानेन सुदृढेन च ॥ ५८ ॥
दानं प्रेतघटं नाम सर्वाऽशुभविनाशकम् । दुर्लभं सर्वलोकानां दुर्गतिक्षयकारकम् ॥ ५ ९ ॥
सन्तप्तहाटकमयं तु घटं विधाय ब्रह्मेशकेशवयुतं सह लोकपालैः । क्षीराज्यपूर्णविवरं प्रणिपत्य भक्त्या विप्राय देहि तव दानशतैः किमन्यैः ॥ ६० ॥
प्रेतने कहा- हे महाराज ! आपने ठीक पूछा है , जिस सुदृढ दानसे प्रेतत्व नहीं होता है , उसे मैं कहता हूँ , आप ध्यानसे सुनें ॥ ५८ ॥
प्रेतघटका दान , सभी प्रकारके अमङ्गलोंका विनाश करनेवाला , सभी लोकोंमें दुर्लभ और दुर्गतिको नष्ट करनेवाला है ॥ ५ ९ ॥
ब्रह्मा , शिव तथा विष्णुसहित लोकपालोंसे युक्त तपाये हुए सोनेका एक घट बनाकर उसे दूध , घी आदिसे पूरा भरकर , भक्तिपूर्वक प्रणाम करके ब्राह्मणको दान करे । ( इसके अतिरिक्त ) तुम्हें अन्य सैकड़ों दानोंको देनेकी क्या आवश्यकता ? ॥ ६० ॥
ब्रह्मा मध्ये तथा विष्णुः शङ्करः शङ्करोऽव्ययः । प्राच्यादिषु च तत्कण्ठे लोकपालान् क्रमेण तु ॥ ६१ ॥
सम्पूज्य विधिवद् राजन् धूपैः कुसुमचन्दनैः । ततो दुग्धाऽऽज्यसहितं घटं देयं हिरण्मयम् ॥ ६२ ॥
सर्वदानाधिकं चैतन्महापातकनाशनम् । कर्तव्यं श्रद्धया राजन् प्रेतत्वविनिवृत्तये ॥ ६३ ॥
हे राजन् ! उस पटके मध्यमें ब्रह्मा , विष्णु तथा कल्याण करनेवाले अविनाशी शङ्करकी स्थापना करे एवं घटके कण्ठमें पूर्व आदि दिशाओंमें क्रमश : लोकपालोंका आवाहन करके उनकी धूप , पुष्प , चन्दन आदिसे विधिवत् पूजा करके दूध और घीके साथ उस हिरण्यमय घटका ( ब्राह्मणको ) दान करना चाहिये ॥ ६१-६२ ॥
हे राजन् ! प्रेतत्वकी निवृत्तिके लिये सभी दानोंमें श्रेष्ठ और महापातकोंका नाश करनेवाले इस दानको श्रद्धापूर्वक करना चाहिये ।। ६३ ।।
श्रीभगवानुवाच - सह काश्यप । सेनाऽऽजगामानुपदं हस्त्यश्वरथसंकुला ॥ ६४ ॥
एवं संजल्पतस्तस्य प्रेतेन ततो बले समायाते दत्त्वा राज्ञे महामणिम् । नमस्कृत्य पुनः प्रार्थ्य प्रेतोऽदर्शनमेयिवान् ॥ ६५ ॥
श्रीभगवान्ने कहा- हे कश्यपपुत्र गरुड प्रेतके साथ इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि उसी समय हाथी , घोड़े आदिसे व्याप्त राजाकी सेना पीछेसे वहाँ आ गयी ॥ ६४ ॥
सेनाके आनेके बाद राजाको महामणि देकर उन्हें प्रणाम करके पुनः ( अपने उद्धारके लिये और्ध्वदैहिक क्रिया करनेकी ) प्रार्थना करके वह प्रेत अदृश्य हो गया । ६५ ।।
तस्माद् वनाद् विनिष्क्रम्य राजापि स्वपुरं ययौ स्वपुरं च समासाद्य तत्सर्वं प्रेतभाषितम् ॥ ६६ ॥
चकार विधिवत् पक्षिन्नौर्ध्वदैहिकजं विधिम् । तस्य पुण्यप्रदानेन प्रेतो मुक्तो दिवं ययौ ॥ ६७ ॥
हे पक्षिन् । ( तदनन्तर ) उस वनसे निकलकर राजा भी अपने नगरको चला गया और अपने नगरमें पहुंचकर प्रेतके द्वारा बताये हुए वचनोंके अनुसार उसने विधि - विधानसे और्ध्वदैहिक क्रियाका अनुष्ठान किया । उसके पुण्यप्रदानसे मुक्त होकर प्रेत स्वर्गको चला गया ॥ ६६-६७ ॥
श्राद्धेन परदत्तेन गतः प्रेतोऽपि सद्गतिम् । किं पुनः पुत्रदत्तेन पिता यातीति चाद्भुतम् ॥ ६८ ॥
इतिहासमिमं पुण्यं शृणोति श्रावयेच्च यः । न तौ प्रेतत्वमायातः पापाचारयुतावपि ॥ ६ ९ ॥
इति गरुडपुराणे सारोद्धारे बभ्रुवाहनप्रेतसंस्कारो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
जब दूसरेके द्वारा दिये हुए श्राद्धसे प्रेतकी सद्गति हो गयी तो फिर पुत्रके द्वारा प्रदत्त श्राद्धसे पिताकी सद्गति हो जाय , इसमें क्या आश्चर्य ॥ ६८ ॥
इस पुण्यप्रद इतिहासको जो सुनता है और जो सुनाता है ये दोनों पापाचारोंसे युक्त होनेपर भी प्रेतत्वको प्राप्त नहीं होते ॥ ६ ९ ॥
इस प्रकार गरुडपुराण के अन्तर्गत सारोद्धार बभ्रुवाहनप्रेतसंस्कार नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥ ~~