सारोद्धार गरुडपुराण
आठवाँ अध्याय
आतुरकालिक ( मरणकालिक ) दान एवं मरणकालमें भगवन्नाम - स्मरणका माहात्म्य , अष्टमहादानोंका फल तथा धर्माचरणकी महिमा
गरुड उवाच
आमुष्मिक क्रिया सर्वां वद सुकृतिनां मम । कर्तव्या सा यथा पुत्रैस्तथा च कथय प्रभो ॥ १ ॥
गरुडजीने कहा- हे प्रभो पुण्यात्माओंकी सारी पारलौकिक क्रियाअंकि सम्बन्धमें मुझे बताइये । पुत्रंको जिस प्रकार यह क्रिया करनी चाहिये , उसे उसी प्रकार कहिये ॥ १ ॥
श्रीभगवानुवाच
साधु पृष्टं त्वया तार्क्ष्य मानुषाणां हिताय वै । धार्मिकार्ह च यत्कृत्वं तत्सर्वं कथयामि ते ॥ २ ॥
सुकृती वार्धके दृष्ट्वा शरीरं व्याधिसंयुतम् प्रतिकूलान् । ग्रहांश्चैव प्राणघोषस्य चाश्रुतिम् ॥ ३ ॥
तदा स्वमरणं ज्ञात्वा निर्भयः स्यादतन्द्रितः । अज्ञातज्ञातपापानां प्रायश्चित्तं समाचरेत् ॥ ४ ॥
श्रीभगवान्ने कहा- हे तार्क्ष्य ! मनुष्योंके हितकी दृष्टिसे आपने बड़ी उत्तम बात पूछी है । धार्मिक मनुष्य के लिये करनेयोग्य जो कृत्य हैं , वह सब मैं तुम्हें कहता हूँ ॥ २॥
पुण्यात्मा व्यक्ति वृद्धावस्था के प्राप्त होनेपर अपने शरीरको व्याधिग्रस्त आठवाँ अध्याय तथा ग्रहों की प्रतिकूलताको देखकर और प्राणवायुके नाद न सुनायी पड़नेपर अपने मरणका समय जानकर निर्भय हो जाय और आलस्यका परित्याग कर जाने - अनजाने किये गये पापोंके विनाशके लिये प्रायश्चित्तका आचरण करे ॥ ३-४ ॥
यदा स्यादातुरः कालस्तदा स्नानं समारभेत् । पूजनं कारयेद्विष्णोः शालग्रामस्वरूपिणः ॥ ५ ॥
अर्चयेद्रन्धपुष्पैश्च कुंकुमैस्तुलसीदलैः । धूपैदीपश्च नैवेद्यैर्बहुभिर्मोदकादिभिः ॥ ६ ॥
दत्त्वा च दक्षिणां विप्रात्रैवेद्यादेव भोजयेत् । अष्टाक्षरं जपेन्मन्त्रं द्वादशाक्षरमेव च ॥ ७ ॥
जब आतुरकाल उपस्थित हो जाय तो स्नान करके शालग्रामस्वरूप भगवान् विष्णुको पूजा कराये ॥५ ॥
गन्ध पुष्प , कुंकुम , तुलसीदल , धूप , दीप तथा बहुत - से मोदक आदि नैवेद्योंको समर्पित करके भगवान्की अर्चा करे ॥ ६॥
और विप्रोंको दक्षिणा देकर नैवेद्यका ही भोजन कराये तथा अष्टाक्षर ' अथवा द्वादशाक्षर - मन्त्रका जप करे ॥ ७ ॥
संस्मरेच्छृणुयाच्चैव विष्णोनाम शिवस्य च हरेर्नाम हरेत् पापं नृर्णा श्रवणगोचरम् ॥ ८ ॥
रोगिणोऽन्तिकमासाद्य शोचनीयं न बान्धवैः स्मरणीयं पवित्रं मे नामधेयं मुहुर्मुहुः ॥ १ ॥
भगवान् विष्णु और शिवके नामका स्मरण करे और सुने , भगवान्का नाम कानोंसे सुनाई पड़नेपर वह मनुष्यके १. ॐ नमो नारायणाय पापको नष्ट करता है ॥ ८ ॥
रोगीके समीप आकर बान्धवाँको शोक नहीं करना चाहिये । प्रत्युत मेरे पवित्र नामका ॐ नमो भगवते वासुदेवाय बार - बार स्मरण - कीर्तन करना चाहिये ॥ ९ ॥
मत्स्य : कूर्मो वराहश्च नारसिंहश्च वामनः । रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्की तथैव च ॥ १० ॥
एतानि दश नामानि स्मर्तव्यानि सदा बुधैः समीपे रोगिणो ब्रूयुर्बान्धवास्ते प्रकीर्तिताः ॥ ११ ॥
कृष्णेति मङ्गलं नाम यस्य वाचि प्रवर्तते । तस्य भस्मीभवन्त्याशु महापातककोटयः ॥ १२ ॥
विद्वान् व्यक्तिको मत्स्य , कूर्म , वराह , नारसिंह , वामन , परशुराम , राम , कृष्ण , बुद्ध और कल्कि - इन दस नामोंका सदा स्मरण - कीर्तन करना चाहिये । जो व्यक्ति रोगीके समीप उपर्युक्त नामोंका कीर्तन करते हैं , वे ही उसके सच्चे बान्धव कहे गये हैं ॥ १०-११ ॥
कृष्ण ' यह मङ्गलमय नाम जिसकी वाणीसे उच्चरित होता है , उसके करोड़ों महापातक तत्काल भस्म हो जाते हैं ॥ १२ ॥
म्रियमाणो हरेर्नाम गुणन् पुत्रोपचारितम् । अजामिलोऽप्यगाद्धाम किं पुनः श्रद्धया गुणन् । १३ ।।
हरिहरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृतः । अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः ॥ १४ ॥
हरेर्नानि च या शक्तिः पापनिर्हरणे द्विज। तावत्कर्तुं समर्थो न पातकं पातकी जनः ॥ १५ ॥
मरणासन्न अवस्थामें अपने पुत्रके बहानेसे ' नारायण ' नाम लेकर अजामिल भी भगवद्धामको प्राप्त हो गया तो फिर जो श्रद्धापूर्वक भगवान्के नामका उच्चारण करनेवाले हैं , उनके विषयमें क्या कहना ! ॥ १३ ॥
दूषित चित्तवृतिवाले व्यक्तिके द्वारा भी स्मरण किये जानेपर भगवान् उसके समस्त पापोंको नष्ट कर देते हैं , जैसे अनिच्छापूर्वक भी स्पर्श करनेपर अग्रि जलाता ही है ॥ १४ ॥
हे द्विज ( वासनाके सहित ) पापोंका समूल विनाश करनेकी जितनी शक्ति भगवान्के नाममें है , पातकी मनुष्य उतना पाप करनेमें समर्थ ही नहीं है ॥ १५ ॥
किङ्करेभ्यो यमः प्राह नयध्वं नास्तिकं जनम् । नैवानयत भो दूता हरिनामस्मरं नरम् ॥ १६ ॥
अच्युत केशवं रामनारायणं कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम । श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं । जानकीनायकं रामचन्द्रं भजे ॥ १७ ॥
कमलनयन वासुदेव विष्णो धरणिधराच्युत शङ्खचक्रपाणे । भव शरणमितीरयन्ति ये वै त्यज भट दूरतरेण तानपापान् ॥ १८ ॥
तानानयध्वमसतो विमुखान्मुकुन्दपादारविन्दमकरन्दरसादजस्त्रम् । निष्किञ्चनैः परमहंसकुलै रसज्ञैर्जुष्टादगृहे निरयवर्त्मनि वद्धतृष्णान् ॥ १ ९ ॥
यमदेव अपने किङ्करोंसे कहते हैं - हे दूतो हमारे पास नास्तिकजनोंको ले आया करो । भगवान्के नामका स्मरण करनेवाले मनुष्योंको मेरे पास मत लाया करो ॥ १६ ॥
क्योंकि मैं ( स्वयं ) अच्युत , केशव , राम , नारायण , कृष्ण , दामोदर , वासुदेव , हरि , श्रीधर , माधव , गोपिकावल्लभ , जानकीनायक रामचन्द्रका भजन करता हूँ ॥ १७ ॥
हे दूतो ! जो व्यक्ति हे कमलनयन , हे वासुदेव , हे विष्णु , हे धरणिधर , हे अच्युत , हे शङ्खचक्रपाणि ! आप मेरे शरणदाता हो - ऐसा कहते हैं , उन निष्पाप व्यक्तियोंको तुम दूरसे हो छोड़ देना ॥ १८ ॥
( हे दूतो । ) जो निष्किञ्चन और रसज्ञ परमहंसों के द्वारा निरन्तर आस्यादित भगवान् मुकुन्दके पादारविन्द मकरन्द - रससे विमुख हैं ( अर्थात् भगवद्भकिसे विमुख हैं ) और नरकके मूल गृहस्थीके प्रपक्ष में तृष्णासे बद्ध हैं , ऐसे असत्पुरुषोंको मेरे पास लाया करो ॥ १ ९ ॥
जिह्या न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम् । कृष्णाय नो नमति पच्छिर एकदापि तानानयध्वमसतोऽकृतविष्णुकृत्यान् ॥ २० ॥
तस्मात संकीर्तन विष्णोर्जगन्मङ्गलमंहसाम् । महतामपि पक्षीन्द्र विद्ध्यैकान्तिकनिष्कृतिम् ॥
जिनकी जिह्वा भगवान्के गुण और नामका कीर्तन नहीं करती , चित्त भगवान्के चरणारविन्द्रका स्मरण नहीं करता , सिर एक बार भी भगवान्को प्रणाम नहीं करता , ऐसे विष्णुके ( आराधना - उपासना आदि ) कृत्योंसे रहित असत्पुरुषोंको ( मेरे पास ) ले आओ ॥ २०॥
इसलिये हे पक्षीन्द्र जगत्में मङ्गल स्वरूप भगवान् विष्णुका कीर्तन हो एकमात्र महान् पापोंके आत्यन्तिक और ऐकान्तिक निवृत्तिका प्रायश्चित है- ऐसा जानो ॥ २१ ॥
प्रायश्चितानि चीर्णानि नारायणपराङ्मुखम् । न निष्पुनन्ति दुर्बुद्धिं सुराकुम्भमिवापगाः ॥ २२ ॥
कृष्णनाम्ना न नरकं पश्यन्ति गतकिल्बिषाः । यमं च तद्भांश्चैव स्वप्नेऽपि न कदाचन ॥ २३ ॥
नारायणसे पराङ्मुख रहनेवाले व्यक्तियोंके द्वारा किये गये प्रायश्चित्ताचरण भी दुर्बुद्धि प्राणीको उसी प्रकार पवित्र नहीं कर सकते , जैसे मदिरासे भरे घटको गङ्गाजी - सदृश नदियाँ पवित्र नहीं कर सकती ॥ २२ ॥
भगवान् कृष्णके नामस्मरणसे पाप नष्ट हो जानेके कारण जीव नरकको नहीं देखते और स्वप्नमें भी कभी यम तथा यमदूतोंको नहीं देखते ॥ २३ ॥
मांसास्थिरक्तवत्काये ततः वैतरण्यां पतेत्र सः । योऽन्ते दद्याद् द्विजेभ्यश्च ' नन्दनन्दनगामिति ॥ २४ ॥
अतः स्मरेन्महाविष्णोर्नाम पापौघनाशनम् । गीतासहस्त्रनामानि पठेद्वा शृणुयादपि ॥ २५ ॥
एकादशीव्रतं गीता गङ्गाम्बु तुलसीदलम् । विष्णोः पादाम्बुनामानि मरणे मुक्तिदानि च ॥ २६ ॥
ततः संकल्पयेदन्नं सघृतं च सकाञ्चनम् । सवत्सा धेनवो देयाः श्रोत्रियाय द्विजातये ॥ २७ ॥
अन्ते जनो यद्ददाति स्वल्पं वा यदि वा बहु । तदक्षयं भवेत् तार्क्ष्य यत्पुत्रश्चानुमोदते ॥ २८ ॥
जो व्यक्ति अन्तकालमें नन्दनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण जिसके पीछे चलते हैं , ऐसी गायको ब्राह्मणोंको दान देता है , वह मांस , हड्डी और रक्तसे परिपूर्ण वैतरणी नदीमें नहीं गिरता अथवा जो मृत्युके समयमें ' नन्दनन्दन ' इस प्रकारकी वाणी ( भगवन्नाम ) का उच्चारण करता है , वह पुनः मांस , अस्थि तथा रक्तसे पूर्ण वैतरणीरूपी शरीरको प्राप्त नहीं करता , शरीर धारण नहीं करता अर्थात् मुक्त हो जाता है ॥ २४ ॥
अतः पापोंके समूहको नष्ट करनेवाले महाविष्णुके नामका स्मरण करना चाहिये अथवा गोता या विष्णुसहस्रनामका पठन अथवा श्रवण करना चाहिये ॥ २५ ॥
एकादशीका व्रत , गीता , गङ्गाजल , तुलसीदल , भगवान् विष्णुका चरणामृत और नाम- ये मरणकालमें मुक्ति देनेवाले हैं ॥ २६ ॥
इसके बाद घृत और सुवर्णसहित अन्नदानका संकल्प करे श्रोत्रिय द्विज ( वेदपाठी ब्राह्मण ) को सवत्सा गौका दान करे ॥ २७ ॥
हे तार्क्ष्य जो मनुष्य अन्तकालमें थोड़ा या बहुत दान देता है और पुत्र उसका अनुमोदन करता है , वह दान अक्षय होता है ॥ २८ ॥
अन्तकाले तु सत्पुत्रः सर्वदानानि दापयेत् । एतदर्थं सुतो लोके प्रार्थ्यते धर्मकोविदैः ॥ २ ९ ॥
भूमिष्ठं पितरं दृष्ट्वा अर्धोन्मीलितलोचनम् । पुत्रैस्तृष्णा न कर्तव्या तद्धने पूर्वसंचिते ।। ३० ।।
स तद्ददाति सत्पुत्रो यावज्जीवत्यसौ चिरम् । अतिवाहस्तु तन्मार्गे दुःखं न लभते यतः ।। ३१ ।।
सत्पुत्रको चाहिये कि अन्तकालमें सभी प्रकारका दान दिलाये , लोकमें धर्मज्ञ पुरुष इसीलिये पुत्रके लिये प्रार्थना करते हैं ॥ २ ९ ॥
भूमिपर स्थित आधी आँख मूंदे हुए पिताको देखकर पुत्रोंको उनके द्वारा पूर्व संचित धनके विषय में तृष्णा नहीं करनी चाहिये ॥ ३० ॥
सत्पुत्रके द्वारा दिये गये दानसे जबतक उसका पिता जीवित हो तबतक और ( फिर मृत्युके अनन्तर ) आतिवाहिक शरीरसे भी परलोकके मार्गमें वह दुःख नहीं प्राप्त करता ॥ ३१ ॥
आतुरे चोपरागे च द्वयं दानं विशिष्यते । अतोऽवश्यं प्रदातव्यमष्टदानं तिलादिकम् ॥ ३२ ॥
तिला लोहं हिरण्यं च कार्पासो लवणं तथा सप्तधान्यं क्षितिगांवो ह्येकैकं पावनं स्मृतम् ॥ ३३ ॥
आतुरकाल और ग्रहणकाल - इन दोनों कालोंमें दिये गये दानका विशेष महत्त्व है , इसलिये तिल आदि अष्ट दान अवश्य देने चाहिये ॥ ३२ ॥
तिल , लोहा , सोना , कपास , नमक , सप्तधान्य , भूमि और गौ - इनमेंसे एक एकका दान भी पवित्र करनेवाला है ॥ ३३ ॥
एतदष्टमहादानं मम महापातकनाशनम् । अन्तकाले प्रदातव्यं शृणु तस्य च सत्फलम् ॥ ३४ ॥
मम स्वेदसमुद्भूताः पवित्रास्त्रिविधास्तिलाः । असुरा दानवा दैत्यास्तृप्यन्ति तिलदानतः ॥ ३५ ॥
तिला : श्वेतास्तथा कृष्णा दानेन कपिलास्तिला । संहरन्ति त्रिधा पापं वाड्मनः कायसंचितम् ॥ ३६ ॥
यह अष्ट महादान महापातकोंका नाश करनेवाला है । अतः अन्तकालमें इसे देना चाहिये । इन दानोंका जो उत्तम फल है उसे सुनो ॥ ३४॥
तीनों प्रकारके पवित्र तिल मेरे पसीनेसे उत्पन्न हुए हैं । असुर , दानव और दैत्य तिलदानसे तृप्त होते हैं ॥ ३५ ॥
श्वेत , कृष्ण तथा कपिल ( भूरे ) वर्णके तिलका दान वाणी , मन और शरीरके द्वारा किये गये त्रिविध पापको नष्ट कर देता है ॥ ३६ ॥
लौहदानं च दातव्यं भूमियुक्तेन पाणिना । यमसीमां न चाप्नोति न इच्छेत् तस्य वर्त्मनि ॥ ३७ ॥
कुठारो मुसलो दण्डः खड्गच छुरिका तथा शस्त्राणि यमहस्ते च निग्रहे पापकर्मणाम् ॥ ३८ ॥
यमायुधानो संतुष्टयै दानमेतदुदाहृतम् । तस्माद्याल्लोहदानं यमलोके सुखावहम् ॥ ३ ९ ॥
लोहेका दान भूमिमें हाथ रखकर देना चाहिये । ऐसा करनेसे वह जीव यमसीमाको नहीं प्राप्त होता और यममार्गमें नहीं जाता ॥ ३७॥
पाप - कर्म करनेवाले व्यक्तियोंका निग्रह करनेके लिये यमके हाथमें कुल्हाड़ी , मूसल , दण्ड , तलवार तथा छुरी - शस्त्रके रूपमें रहते हैं ॥ ३८ ॥
यमराजके आयुधोंको संतुष्ट करनेके लिये यह ( लोहेका ) दान कहा गया है । इसलिये यमलोकमें सुख देनेवाले लोहदानको करना चाहिये ॥ ३ ९ ॥
उरणः श्यामसूत्रश्च शण्डामकोंऽप्यदुम्बरः । शेषम्बलो महादूता लोहदानात् सुखप्रदाः ॥ ४० ॥
शृणु तार्क्ष्य परे गुह्यं दानानां दानमुत्तमम् । दत्तेन तेन तुष्यन्ति भूर्भुवः स्वर्गवासिनः ॥ ४१ ॥
ब्रह्माद्या ऋषयो देवा धर्मराजसभासदाः । स्वर्णदानेन संतुष्टा भवन्ति वरदायकाः ॥ ४२ ॥
तस्माद देयं स्वर्णदानं प्रेतोद्धरणहेतवे । न याति यमलोकं स स्वर्गतिं तात गच्छति ॥ ४३ ॥
उरण , श्यामसूत्र , शण्डामर्क , उदुम्बर , शेषम्बल नामक ( यमके ) महादूत लोहदानसे सुख प्रदान करनेवाले होते हैं ॥ ४० ॥
हे तार्क्ष्य ! परम गोपनीय और दानोंमें उत्तम दानको सुनो , जिसके देनेसे भूलोक ( पृथ्वी ) , भुवर्लोक ( अन्तरिक्ष ) और स्वर्गलोकके निवासी ( अर्थात् मनुष्य , भूत - प्रेत तथा देवगण ) संतुष्ट होते हैं ॥ ४१ ॥
ब्रह्मा आदि देवता , ऋषिगण तथा धर्मराजके सभासद - स्वर्णदानसे संतुष्ट होकर वर प्रदान करनेवाले होते हैं ॥ ४२ ॥
इसलिये प्रेतके उद्धार के लिये स्वर्णदान करना चाहिये । हे तात ! स्वर्णका दान देनेसे जीव यमलोक नहीं जाता , उसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है ॥ ४३ ॥
चिरं वसेत् सत्यलोके ततो राजा भवेदिह । रूपवान् धार्मिको वाग्मी श्रीमानतुलविक्रमः ॥ ४४ ॥
कार्यासस्य च दानेन दूतेभ्यो न भयं भवेत् । लवणं दीयते यच्च तेन नैव भयं यमात् ॥ ४५ ॥
अयोलवणकापांसतिलकाञ्चनदानतः । चित्रगुप्तादयस्तुष्टा यमस्य पुरवासिनः ॥ ४६ ॥
बहुत कालतक वह जीव सत्यलोकमें निवास करता है , तदनन्तर इस लोकमें रूपवान् , धार्मिक , वाक्पटु , श्रीमान् और अतुल पराक्रमी राजा होता है ॥ ४४॥
कपासका दान देनेसे यमदूतोंसे भय नहीं होता , लवणका दान देनेसे यमसे भय नहीं होता । लोहा , नमक , कपास , तिल और स्वर्णके दानसे यमपुरके निवासी चित्रगुप्त आदि संतुष्ट होते हैं ॥ ४५-४६ ॥
सप्तधान्यप्रदानेन प्रीतो धर्मध्वजो भवेत ।तुष्टा भवन्ति येऽन्येऽपि त्रिषु द्वारेष्वधिष्ठिताः ।।४७।।
व्रोहयो यवगोधूमा मुद्गा माषा :प्रियङ्गवः । चणकाः सप्तमा ज्ञेयाः सप्तधान्यमुदाहृतम् ।।४८।।
गोचर्ममात्रं वसुधा दत्ता पात्रे विधानतः । पुनाति ब्रह्महत्याया दृष्टमेतन्मुनीश्वरैः ॥ ४ ९ ॥
न व्रतेभ्यो न तीर्थेभ्यो नान्यदानाद् विनश्यति । राज्ये कृतं महापापं भूमिदानाद्विलीयते ॥ ५० ॥
पृथिवीं सस्यसम्पूर्णा यो ददाति द्विजातये । स प्रयातीन्द्रभुवने पूज्यमानः सुरासुरैः ॥ ५१ ॥
सप्तधान्य प्रदान करनेसे धर्मराज और यमपुरके तोनों द्वारोंपर रहनेवाले अन्य द्वारपाल भी प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४७ ॥
धान , जौ , गेहूँ , मूंग , उड़द , काकुन या कँगुनी और सातवाँ चना- ये सप्तधान्य कहे गये हैं ॥ ४८ ॥
जो व्यक्ति गोचर्ममात्र भूमि विधानपूर्वक सत्पात्रको देता है , वह ब्रह्महत्याके पापसे मुक्त होकर पवित्र हो जाता है , ऐसा मुनीश्वरोंने देखा है ॥ ४ ९ ॥
राज्यमें किया हुआ अर्थात् राज्यसंचालनमें राजासे होनेवाला महापाप न व्रतोंसे , न तीर्थसेवनसे और न अन्य किसी दानसे नष्ट होता है , अपितु वह तो केवल भूमिदानसे ही विलीन होता है ॥५० ॥
जो व्यक्ति ब्राह्मणको धान्यपूर्ण पृथिवीका दान करता है , वह देवताओं और असुरोंसे पूजित होकर इन्द्रलोकमें जाता है ॥ ५१ ॥
अत्यल्पफलदानि स्युरन्यदानानि काश्यप । पृथिवीदानजं पुण्यमहन्यहनि वर्धते ॥ ५२ ॥
यो भूत्वा भूमिपो भूमिं नो ददाति द्विजातये । स नाप्नोति कुटीं ग्रामे दरिद्री स्याद्भवे भवे ॥ ५३ ॥
अदानाद्भूमिदानस्य भूपतित्वाभिमानतः । निवसेन्नरके यावच्छेषो धारयते धराम् ॥ ५४ ॥
तस्माद्भूमीश्वरो भूमिदानमेव प्रदापयेत् । अन्येषां भूमिदानार्थं गोदानं कथितं मया ॥ ५५ ॥
ततोऽन्तधेनुर्दातव्या दद्याद्वैतरणीं रुद्रधेनुं प्रदापयेत। ऋणधेनुं ततो दत्त्वा मोक्षधेनुं प्रदापयेत् ॥ ५६ ॥
दध्याद्वैतरणी धेनुं विशेषविधिना खग । तारयन्ति नरं गावस्त्रिविधाच्चैव पातकात् ॥ ५७ ॥
( गर्वा शर्त वृषवैको पत्र तिष्ठत्ययन्त्रितः । तद् गोचर्मेति विख्यातं दत्तं सर्वाधनाशनम् ॥ ( भविष्य ० २।३।२।२५ ) सी गायें और एक बैल जितनी भूमिपर स्वतन्त्ररूपसे रह सकें , विचरण कर सकें , उतनी विस्तारवालो भूमि गोचर्म कहलाती है । इसका दान समस्त पापोंका नाश करनेवाला है । )
हे गरुड ! अन्य दानोंका फल अत्यल्प होता है , किंतु पृथ्वीदानका पुण्य दिन - प्रतिदिन बढ़ता जाता है ।। ५२ ॥
भूमिका स्वामी होकर भी जो ब्राह्मणको भूमि नहीं देता , वह ( जन्मान्तरमें ) किसी ग्राममें एक कुटियातक भी नहीं प्राप्त करता और जन्म - जन्मान्तरमें अर्थात् प्रत्येक जन्ममें दरिद्र होता है ॥ ५३॥
भूमिका स्वामी होनेके अभिमानमें जो भूमिका दान नहीं करता , वह तबतक नरकमें निवास करता है , जबतक शेषनाग पृथ्वीको धारण करते हैं ॥ ५४॥
इसलिये भूमिके स्वामीको भूमिदान करना ही चाहिये । अन्य व्यक्तियोंके लिये भूमिदानके स्थानपर मैंने गोदानका विधान किया है ॥ ५५ ॥
इसके बाद अनन्तधेनुका दान करना चाहिये और रुद्रधेनु देनी चाहिये । तदनन्तर ऋणधेनु देकर मोक्षधेनुका दान करना चाहिये ॥५६ ॥
हे खग विशेष विधानपूर्वक वैतरणीधेनुका दान करना चाहिये । ( दानमें दी गयो ) गौएँ मनुष्यको त्रिविध ( आधिभौतिक , आधिदैविक , आध्यात्मिक तापों तथा कायिक , वाचिक एवं मानसिक ) पापोंसे मुक्त करती हैं ॥ ५७ ॥
बालत्वे यच्च कौमारे यत्पापं यौवने कृतम् । वयःपरिणतौ यच्च यच्च जन्मान्तरेष्वपि ॥ ५८ ॥
यत्रिशायां तथा प्रातर्यन्मध्याह्नापराह्वयोः । सन्ध्ययोर्यत्कृतं पापं कायेन मनसा गिरा ॥ ५ ९ ॥
दत्त्वा धेनुं सकृद्वापि कपिलां क्षीरसंयुताम् । सोपस्करां सवत्सां च तपोवृत्तसमन्विते ॥ ६० ॥
ब्राह्मणे वेदविदुषे सर्वपापैः प्रमुच्यते । उद्धरेदन्तकाले सा दातार पापसंचयात् ॥ ६१ ॥
बाल्यावस्था में कुमारावस्थामें युवावस्था में वृद्धावस्था में अथवा दूसरे जन्ममें , रातमें , प्रातःकाल , मध्याह , अपराह और दोनों संध्याकालोंमें शरीर , मन और वाणीसे जो - जो पाप किये गये हैं , वे सभी पाप तपस्या और सदाचारसे युक्त वेदविद ब्राह्मणको उपस्करयुक्त ( दानसामग्रीसहित ) सवत्सा और दूध देनेवाली कपिला गौके एक बार दान देनेसे नष्ट हो जाते हैं । दानमें दी गयी वह गौ अन्तकालमें गोदान करनेवाले व्यक्तिका संचित पापोंसे उद्धार कर देती है ॥ ५८- ६१ ॥
एका गौः स्वस्थचित्तस्य ह्यातुरस्य च गोः शतम् । सहस्त्र प्रियमाणस्य दर्श चित्तविवर्जितम् ॥ ६२ ॥
मृतस्यैतत् पुनर्लक्षं विधिपूतं च तत्समम् तीर्थपात्रसमोपेतं दानमेकं च लक्षथा ॥ ६३॥
स्वस्थचित्तावस्थामें दी गयी एक गौ आतुरावस्थामें दी गयी सौ गौ और मृत्युकालमें चित्तविवर्जित व्यक्तिके द्वारा दी गयी एक हजार गौ तथा मरणोत्तरकालमें दी गयी विधिपूर्वक एक लाख गौके दानका फल बराबर ही होता है । ( यहाँ स्वस्थावस्थामें गोदान करनेका विशेष महत्त्व बतलाया गया है । ) तीर्थमें सत्पात्रको दी गयी एक गौका दान एक लक्ष गोदानके तुल्य होता है । [ ६२-६३ ।।
पात्रे दत्तं च यद्दानं तलक्षगुणितं भवेत् । दातुः फलमनन्तं स्यात्र पात्रस्य प्रतिग्रहः ॥ ६४ ॥
स्वाध्यायहोमसंयुक्तः परपाकविवर्जितः । रत्नपूर्णामपि महाँ प्रतिगृहान लिप्यते ॥ ६ ॥
विषशीतापही मन्त्रवह्नी किं दोषभागिनौ । अपात्रे सा च गौर्दता दातारं नरकं नयेत् ॥ ६६ ॥
कुलैकशतसंयुक्तं गृहीतारं तु पातयेत् । नापात्रे विदुषा देया ह्यात्मनः श्रेय इच्छता ॥ ६७ ॥
एका होकस्य दातव्या बहूनां न कदाचन । सा विक्रीता विभक्ता वा दहत्यासप्तमं कुलम् ॥ ६८ ॥
कथिता या मया पूर्व तव वैतरणी नदी । तस्या युद्धरणोपायं गोदानं कथयामि ते ॥ ६ ९ ॥
सत्पात्र में दिया गया दान लक्षगुना होता है । ( उस द्रानसे ) दाताको अनन्त फल प्राप्त होता है और ( दान लेनेवाले ) पात्रको प्रतिग्रह ( दान लेने ) का दोष नहीं लगता ॥ ६४॥ स्वाध्याय और होम करनेवाला तथा दूसरेके द्वारा पकाये गये अन्नको न खानेवाला अर्थात् स्वयंपाकी ब्राह्मण रत्नपूर्ण पृथ्वीका दान लेकर भी प्रतिग्रहदोषसे लिप्त नहीं होता ॥ ६५ ॥
विष और शीतको नष्ट करनेवाले मन्त्र और आग भी क्या दोषके भागी होते हैं ? अपात्रको दी गयी वह गौ दाताको नरक ले जाती है और अपात्र प्रतिग्रहीताको एक - सौ - एक पीढ़ीके पुरुषोंके सहित नरकमें गिराती है , इसलिये अपने कल्याणकी इच्छा करनेवाले विद्वान् व्यक्तिको अपात्रको दान नहीं देना चाहिये ॥ ६६-६७ ॥
एक गौ एक ही ब्राह्मणको देनी चाहिये । बहुत ब्राह्मणोंको एक गौ कदापि नहीं देनी चाहिये । वह गौ यदि बेची गयी अथवा बाँटी गयी तो सात पीढ़ीतकके पुरुषोंको जला देती है ॥ ६८ ॥
( हे खगेश्वर ! ) मैंने तुमसे पहले वैतरणी नदीके विषयमें कहा था , उसे पार करनेके उपायभूत ( वैतरणी ) गोदानके विषयों मैं तुमसे कहता हूँ ॥ ६ ९ ॥
कृष्णां वा पाटलां वाऽपि धेनुं कुर्यादलंकृताम् । स्वर्णशृङ्ग रौप्यखुरीं कांस्यपात्रोपदोहिनीम् ॥ ७० ॥
कृष्णवस्त्रयुगच्छन्त्रां कण्ठघण्टासमन्विताम् । कार्पासोपरि संस्थाप्य ताम्रपात्रं सचैलकम् ॥ ७१ ॥
यमं हैमं न्यसेत् तत्र लौहदण्डसमन्वितम् । कांस्यपात्रे घृतं कृत्वा सर्व तस्योपरि न्यसेत् ॥ ७२ ॥
नावमिक्षुमय कृत्वा पट्टसूत्रेण वेष्टयेत् । गर्तं विधाय सजलं कृत्वा तस्मिन् क्षिपेत्तरीम् ॥ ७३ ॥
काले अथवा लाल रंगकी गौको सोनेकी सींग , चाँदीके खुर और काँसेके पात्रकी दोहनीके सहित दो काले रंगके वस्त्रोंसे आच्छादित करे उसके कण्ठमें घण्टा बाँधे तब कपासके ऊपर वस्त्रसहित ताम्रपात्रको स्थापित करके वहाँ लोहदण्डसहित सोनेकी यममूर्ति भी स्थापित करें और काँसेके पात्रमें घृत रखकर यह सब ताम्रपात्रके ऊपर रखे । ईखकी नाव बनाकर और रेशमी - सूत्रसे उसे बाँधकर , भूमिपर गड्ढा खोदे एवं उसमें जल भरकर वह ईखकी नाव उसमें डाले ॥ ७०-७३ ॥
तस्योपरि स्थितां कृत्वा सूर्यदेहसमुद्भवाम् । धेनुं संकल्पयेत् तत्र यथाशास्त्रविधानतः ॥ ७४ ॥
सालङ्काराणि वस्त्राणि ब्राह्मणाय प्रकल्पयेत् । पूजां कुर्याद्विधानेन गन्धपुष्पाक्षतादिभिः ॥ ७५ ॥
पुच्छे संगृह्य धेनोस्तु नावमाश्रित्य पादतः । पुरस्कृत्य ततो विप्रमिमं मन्त्रमुदीरयेत् ॥ ७६ ॥
उसके समीप सूर्यको देहसे उत्पन्न हुई धेनुको खड़ी करके शास्त्रीय विधिविधानके अनुसार उसके दानका संकल्प करे । ब्राह्मणोंको अलङ्कार और वस्त्रका दान दे तथा गन्ध , पुष्प , अक्षत आदिसे विधानपूर्वक ( गौकी ) पूजा करे ।गौकी पूँछको पकड़ करके ईखकी नावपर पैर रखकर ब्राह्मणको आगे करके इस मन्त्रको पढ़े ॥ ७४-७६ ॥
भवसागरमग्नानां शोकतापोर्मिदुःखिनाम् । त्राता त्वं हि जगन्नाथ शरणागतवत्सल ॥ ७७ ॥
विष्णुरूप द्विजश्रेष्ठ मामुद्धर महीसुर । सदक्षिणां मया दत्तां तुभ्यं वैतरणीं नमः ॥ ७८ ।।
यममार्गे महाघोरे तां नदीं शतयोजनाम् । तर्तुकामो ददाम्येतां तुभ्यं वैतरणीं नमः ॥ ७ ९ ॥
हे जगन्नाथ हे शरणागतवत्सल । भवसागरमें डूबे हुए शोक - संतापकी लहरोंसे दुःख प्राप्त करते हुए जनोंके आपही रक्षक हैं । हे ब्राह्मणश्रेष्ठ विष्णुरूप भूमिदेव आप मेरा उद्धार कीजिये । मैंने दक्षिणाके सहित यह वैतरणी - रूपिणी गौ आपको दिया है , आपको नमस्कार है । मैं महाभयावह यममार्गमें सौ योजन विस्तारवाली उस वैतरणी नदीको पार करनेकी इच्छासे आपको इस वैतरणीगौका दान देता हूँ । आपको नमस्कार है ।। ७७-७९ ।।
धेनुके मां प्रतीक्षस्व यमद्वारमहापथे । उत्तारणार्थं देवेशि वैतरण्यै नमोऽस्तु ते ॥ ८० ॥
गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठतः । गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥ ८१ ॥
या लक्ष्मीः सर्वभूतानां या च देवे प्रतिष्ठिता । धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु ॥ ८२ ।।
इति मन्त्रैश्च सम्प्रार्ध्य साञ्जलिर्धेनुकां यमम् । सर्व प्रदक्षिणीकृत्य ब्राह्मणाय निवेदयेत् ॥ ८३ ॥
हे वैतरणीधेनु हे देवेशि यमद्वारके महामार्गमें वैतरणी नदीको पार कराने के लिये आप मेरी प्रतीक्षा करता आपको नमस्कार है ॥ ८० ॥
मेरे आगे भी गौएँ हों , मेरे पीछे भी गौएँ हों , मेरे हृदयमें भी गौएँ हों और मैं गौओंके मध्यमें निवास करूँ ॥ ८१ ॥
जो लक्ष्मी सभी प्राणियों में प्रतिष्ठित हैं तथा जो देवतामें प्रतिष्ठित हैं वे ही धेनुरूपा लक्ष्मीदेवी मेरे पापको नष्ट करें ॥ ८२ ॥
इस प्रकार मन्त्रोंसे भलीभाँति प्रार्थना करके हाथ जोड़कर गौ और यमकी प्रदक्षिणा करके सब कुछ ब्राह्मणको प्रदान करे ॥ ८३ ॥
एवं दद्याद्विधानेन यो गां वैतरणीं खग । स याति धर्ममार्गेण धर्मराजसभान्तरे ॥ ८४ ॥
स्वस्थावस्थशरीरे तु वैतरण्यां व्रतं चरेत् । देया च विदुषा धेनुस्तां नदीं तर्तुमिच्छता ॥ ८५ ।।
सा नायाति महामार्गे गोदानेन नदी खग । तस्मादवश्यं दातव्यं पुण्यकालेषु सर्वदा ॥८६ ॥
गङ्गादिसर्वतीर्थेषु ब्राह्मणावसथेषु च । चन्द्रसूर्योपरागेषु संक्रान्तौ दर्शवासरे ॥८७ ॥
अयने विषुवे चैव व्यतीपाते युगादिषु । अन्येषु पुण्यकालेषु दद्याद्गोदानमुत्तमम् ॥ ८८ ॥
हे खग । इस विधानसे जो वैतरणी धेनुका दान करता है , वह धर्ममार्गसे धर्मराजकी सभामें जाता है ॥ ८४ ॥
शरीरकी स्वस्थावस्थामें ही वैतरणीविषयक व्रतका आचरण कर लेना चाहिये और वैतरणी पार करनेकी इच्छासे विद्वान्को वैतरणी गौका दान करना चाहिये ॥ ८५ ॥
हे खग वैतरणी गौका दान करनेसे महामार्गमें वह नदी नहीं आती , इसलिये सर्वदा पुण्यकालमें गोदान करना चाहिये ॥ ८६ ॥
गङ्गा आदि सभी तीर्थों में ब्राह्मणों के निवासस्थानोंमें , चन्द्र और सूर्यग्रहणके कालमें , संक्रान्तिमें , अमावास्या तिथिमें , उत्तरायण और दक्षिणायन ( कर्क और मकर संक्रान्तियों ) में , विषुव ( अर्थात् मेष और तुलाकी संक्रान्तिमें ) व्यतीपात योग में , युगादि तिथियोंमें ? तथा अन्यान्य पुण्यकालोंमें उत्तम गोदान देना चाहिये ॥ ८७-८८ ॥
यदैव जायते श्रद्धा पात्रं सम्प्राप्यते यदा । स एव पुण्यकालः स्याद्यतः सम्पत्तिरस्थिरा ॥ ८ ९ ॥
अस्थिराणि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंचयः ॥ ९ ० ॥
आत्मवित्तानुसारेण तत्र दानमनन्तकम् । देयं विप्राय विदुषे स्वात्मनः श्रेय इच्छता ॥ ११ ॥
जब कभी भी श्रद्धा उत्पन्न हो जाय और जब भी दानके लिये सुपात्र प्राप्त हो जाय , वही समय दानके लिये पुण्यकाल है क्योंकि सम्पत्ति अस्थिर है ॥ ८ ९ ॥
शरीर नश्वर है , सम्पत्ति सदा रहनेवाली है नहीं और मृत्यु प्रतिक्षण निकट आती जा रही है , इसलिये धर्मका संचय करना चाहिये ॥ ९ ० ॥
अपनी धन - सम्पत्तिके अनुसार किया गया दान अनन्त ( फलवाला ) होता है , इसलिये अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले व्यक्तिको विद्वान् ब्राह्मणको दान देना चाहिये ॥ ९ १ ॥
अल्पेनापि हि वित्तेन स्वहस्तेनात्मने कृतम् । तदक्षय्यं भवेद्दानं तत्कालं चोपतिष्ठति ॥ ९ २ ।।
गृहीतदानपाथेयः सुखं याति महाध्वनि । अन्यथा क्लिश्यते जन्तुः पाथेयरहितः पथि ॥ ९ ३ ॥
अपने हाथसे अपने कल्याणके लिये दिया गया अल्प वित्तवाला वह दान भी अक्षय होता है और उसका फल भी तत्काल प्राप्त होता है ॥ ९ २ ॥
दानरूपी पाथेयको लेकर जीव ( परलोकके ) महामार्ग में सुखपूर्वक जाता है अन्यथा ( दानरूपी ) पाथेयरहित प्राणीको यममार्गमें क्लेश प्राप्त होता है ।॥ ९ ३ ।।
यानि यानि च दानानि दत्तानि भुवि मानवैः । यमलोकपथे तानि ह्युपतिष्ठन्ति चाग्रतः ॥ १४ ॥
महापुण्यप्रभावेण मानुषं जन्म लभ्यते । यस्तत्प्राप्य चरेद्धर्म रु याति परमां गतिम् ॥ १५ ॥
अविज्ञाय नरो धर्म दुःखमायाति याति च । मनुष्यजन्मसाफल्यं केवलं धर्मसेवनम् ॥ १६ ॥
पृथ्वीपर मनुष्योंके द्वारा जो - जो दान दिये जाते हैं , यमलोकके मार्गमें वे सभी आगे - आगे उपस्थित हो जाते हैं ॥ ९ ४ ॥
महान् पुण्यके प्रभावसे मनुष्य जन्म प्राप्त होता है । उस मनुष्ययोनिको प्राप्तकर जो व्यक्ति धर्माचरण करता है , वह परमगतिको प्राप्त करता है ॥ ९ ५ ॥
धर्मको न जाननेके कारण व्यक्ति ( संसारमें ) दुःखपूर्वक जन्म लेता है और मरता है । केवल धर्मके सेवनमें ही मनुष्य जीवनकी सफलता है ॥ ९ ६ ॥
धनपुत्रकलत्रादि शरीरमपि बान्धवाः । अनित्यं सर्वमेवेदं तस्माद्धर्म समाचरेत् ॥ ९ ७ ॥
तावद्वन्धुः पिता तावद्यावजीवति मानवः । मृतानामन्तरं ज्ञात्वा क्षणात् स्नेहो निवर्तते ॥ ९ ८ ॥
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरिति विद्यान्मुहुर्मुहुः । जीवन्नपीति संचिन्त्य मृतानां कः प्रदास्यति ॥ ९९ ॥
धन , पुत्र , पत्नी आदि बान्धव और यह शरीर भी सब कुछ अनित्य है , इसलिये धर्माचरण करना चाहिये ॥ ९ ७ ॥
जबतक मनुष्य जीता है तभीतक बन्धु - बान्धव और पिता आदिका सम्बन्ध रहता है , मरनेके अनन्तर क्षणमात्रमें सम्पूर्ण स्रेहसम्बन्ध निवृत्त हो जाता है॥९ ८ ॥
जीवितावस्थामें अपना आत्मा ही अपना बन्धु है- ऐसा बार - बार विचार करना चाहिये । मरनेके अनन्तर कौन ( उसके उद्देश्यसे ) दान देगा ? ॥ ९९ ॥
एवं जानन्निदं सर्वं स्वहस्तेनैव दीयताम् । अनित्यं जीवितं यस्मात् पश्चात् कोऽपि न दास्यति ।। १०० ।।
मृतं शरीरमुत्सृज्यमृत काष्ठलोष्टसमं क्षितौ । विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ॥ १०१ ॥
गृहादर्था निवर्तन्ते श्मशानात्सर्वबान्धवाः । शुभाशुभं कृतं कर्म गच्छन्तमनुगच्छति ॥ १०२ ॥
ऐसा जानकर अपने हाथसे ही सब कुछ दान देना चाहिये ; क्योंकि जीवन अनित्य है , बादमें अर्थात् उसकी मृत्युके पश्चात् कोई भी उसके लिये दान नहीं देगा ॥ १०० ॥
मृत शरीरको काठ और ढेलेके समान पृथ्वीपर छोड़कर बन्धु - बान्धव विमुख होकर लौट जाते हैं , केवल धर्म ही उसका अनुगमन करता है ॥ १०१ ॥
धन - सम्पत्ति घरमें हो छूट जाती है , सभी बन्धु - बान्धव श्मशानमें छूट जाते हैं , किंतु प्राणीके द्वारा किया हुआ शुभाशुभ कर्म परलोकमें उसके पीछे - पीछे जाता है ॥ १०२ ॥
शरीरं वहिना दग्धं कृतं कर्म सहस्थितम् । पुण्यं वा यदि वा पापं भुङ्क्ते सर्वत्र मानवः ॥ १०३ ॥
न कोऽपि कस्यचिद्वन्धुः संसारे दुःखसागरे । आयाति कर्मसम्बन्धाद्याति कर्मक्षये पुनः ॥ १०४ ॥
शरीर आगसे जल जाता है किंतु किया हुआ कर्म साथमें रहता है । प्राणी जो कुछ पाप अथवा पुण्य करता है , उसका वह सर्वत्र भोग प्राप्त करता है ॥ १०३ ॥
इस दुःखपूर्ण संसारसागरमें कोई भी किसीका बन्धु नहीं है । प्राणी अपने कर्मसम्बन्धसे ( संसारमें ) आता है और फलभोगसे कर्मका क्षय होनेपर पुनः चला जाता है । ( मृत्युको प्राप्त हो जाता है । ) ॥ १०४ ॥
मातृपितृसुतभ्रातृबन्धुदारादिसङ्गमः । प्रपायामिव जन्तूनां नद्यां काष्ठौघवच्चलः ॥ १०५ ।।
कस्य पुत्राश्च पौत्राश्च कस्य भार्या धनं च वा । संसारे नास्तिकः कस्य स्वयं तस्मात् प्रदीयताम् ॥ १०६ ।
आत्मायत्तं धनं यावत् तावद्विप्रं समर्पयेत् । पराधीने धने जाते न किंचिद्वक्तुमुत्सहेत् ॥ १०७ ॥
माता - पिता , पुत्र , भाई , बन्धु और पत्नी आदिका परस्पर मिलन प्याऊपर एकत्र हुए जन्तुओंके समान अथवा नदीमें बहनेवाले काष्ठसमूहके समान नितान्त चञ्चल अर्थात् अस्थिर है ॥ १०५ ॥
किसके पुत्र , किसके पौत्र , किसकी भार्या और किसका धन ? संसारमें कोई किसीका नहीं है । इसलिये अपने हाथसे स्वयं दान देना चाहिये ॥ १०६ ।
जबतक धन अपने अधीन है , तबतक ब्राह्मणको दान कर दे , क्योंकि धन दूसरेके अधीन ( पराया ) हो जानेपर तो दान देनेके लिये कहनेका उत्साह ( साहस ) भी नहीं होगा ॥ १०७ ॥
पूर्वजन्मकृताद्दानादत्र लब्धं धनं बहु । तस्मादेवं परिज्ञाय धर्मार्थं दीयतां धनम् ॥ १०८ ॥
धर्मात् प्रजायतेऽर्थश्च धर्मात् कामोऽभिजायते । धर्म एवापवर्गाय तस्माद्धर्म समाचरेत् ॥ १० ९ ॥
श्रद्धया धार्यते धर्मो बहुभिर्नार्थराशिभिः । निष्किञ्चना हि मुनयः अद्भावन्तो दिवंगताः ॥ ११० ॥
पूर्वजन्ममें किये हुए दानके फलस्वरूप यहाँ बहुत सारा धन प्राप्त हुआ है , इसलिये ऐसा जानकर धर्मके लिये धन देना चाहिये ॥ १०८॥
धर्मसे अर्थकी प्राप्ति होती है , धर्मसे कामकी प्राप्ति होती है और धर्मसे ही मोक्षकी भी प्राप्ति होती है , इसलिये धर्माचरण करना चाहिये ॥ १० ९ ॥
धर्म श्रद्धासे धारण किया जाता है , बहुत - सी धनराशिसे नहीं । अकिंचन मुनिगण भी श्रद्धावान् होकर स्वर्गको प्राप्त हुए हैं ॥ ११० ॥
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रियमात्मनः ॥ १११ ॥
तस्मादवश्यं दातव्यं तदा दानं विधानतः । अल्पं वा बहु वेतीमां गणनां नैव कारयेत् ॥ ११२
धर्मात्मा च स पुत्रो वै दैवतैरपि पूज्यते । दापयेद्यस्तु दानानि पितरं ह्यातुरं भुवि ॥ ११३ ॥
पित्रोर्निमित्तं यद्वितं पुत्रैः पात्रे समर्पितम् । आत्मापि पावितस्तेन पुत्रपौत्रप्रपौत्रकैः ॥ ११४ ॥
पितुः शतगुणं पुण्यं सहस्त्रं मातुरेव च । भगिनीदशसाहस्त्रं सोदरे दत्तमक्षयम् ॥ ११५ ।।
जो मनुष्य पत्र , पुष्प , फल अथवा जल मुझे भक्तिभावसे समर्पित करता है , उस संयतात्माके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये पदार्थोंको मैं प्राप्त करता हूँ ॥ १११ ॥
इसलिये विधिविधानपूर्वक अवश्य ही दान देना चाहिये । थोड़ा हो या अधिक इसकी कोई गणना नहीं करनी चाहिये ॥ ११२ ॥
जो पुत्र पृथ्वीपर पड़े हुए आतुर पिताके द्वारा दान दिलाता है , वह धर्मात्मा पुत्र देवताओंके लिये भी पूजनीय होता है ॥ ११३ ॥
माता - पिताके निमित्त जो धन पुत्रके द्वारा सत्पात्रको समर्पित किया जाता है , उससे पुत्र , पौत्र और प्रपौत्र के साथ वह व्यक्ति स्वयं भी पवित्र हो जाता है ॥ ११४ ॥
पिताके उद्देश्य से किये गये दानसे सौ गुना , माताके उद्देश्यसे किये गये दानसे हजार गुना , बहनके उद्देश्यसे किये गये दानसे दस हजार गुना और सहोदर भाईके निमित्त किये गये दानसे अनन्त गुना पुण्य प्राप्त होता है ॥ ११५ ॥
न चैवोपद्रवा दातुन वा नरकयातनाः । मृत्युकाले न च भयं यमदूतसमुद्भवम् ॥ ११६ ॥
यदि लोभान्न यच्छन्ति काले ह्यातुरसंज्ञके । मृताः शोचन्ति ते सर्वे कदर्याः पापिनः खग ॥ ११७ ॥
पुत्राः पौत्राः सहभ्राता सगोत्राः सुहृदस्तु ये । यच्छन्ति नातुरे दानं ब्रह्मघ्नास्ते न संशयः ॥ १ ९ ८ ॥
इति गरुडपुराणे सारोद्धारे आतुरदाननिरूपणो नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
दान देनेवाला उपद्रवग्रस्त नहीं होता , उसे नरकयातना नहीं प्राप्त होती और मृत्युकालमें उसे यमदूतोंसे भी कोई भय नहीं होता ॥ ११६॥
हे खग ! यदि कोई व्यक्ति लोभसे आतुरकालमें दान नहीं देते , वे कंजूस पापी ( प्राणी ) मरनेके अनन्तर शोकमग्र होते हैं ॥ ११७ ॥
आतुरकालमें ( आतुरके उद्देश्यसे ) जो पुत्र , पौत्र , सहोदर भाई , सगोत्री और सुहज्जन दान नहीं देते , वे ब्रह्महत्यारे हैं , इसमें संशय नहीं है ॥ ११८ ॥
इस प्रकार गरुडपुराण के अन्तर्गत सारोद्धार आदाननिरूपण ' नामक आठवां अध्याय पूरा हुआ ।।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL MISHRA
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