Sri Durga kshamapan strotam श्री दुर्गा अपराध क्षमापन स्त्रोतम

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             अथ  देव्यराधक्षमापनस्त्रोत्रम 

                


न मन्त्रं न यन्त्र तदपि च न जाने स्तुतिमहो न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः । न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम । 

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् । तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ २ ॥ 

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः । मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे कि कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ ३ ॥

 माँ ! मैं न मन्त्र जानता हूँ , न यन्त्र ; अहो ! मुझे स्तुतिका भी ज्ञान नहीं है । न आवाहनका पता है , न ध्यानका । स्तोत्र और कथाकी भी जानकारी नहीं है । न तो तुम्हारी मुद्राएँ जानता हूँ और न मुझे व्याकुल होकर विलाप करना ही आता है ; परंतु एक बात जानता हूँ , केवल तुम्हारा अनुसरण - तुम्हारे पीछे चलना । जो सब क्लेशोंको- समस्त दुःख - विपत्तियोंको हर लेनेवाला है ॥ १ ॥

 सबका उद्धार करनेवाली कल्याणमयी माता ! मैं पूजाकी विधि नहीं जानता , मेरे पास धनका भी अभाव है , मैं स्वभावसे भी आलसी हूँ तथा मुझसे ठीक ठीक पूजाका सम्पादन हो भी नहीं सकता ; इन सब कारणोंसे तुम्हारे चरणोंकी सेवामें जो त्रुटि हो गयी है , उसे क्षमा करना ; क्योंकि कुपुत्रका होना सम्भव है , किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥ २ ॥ 

माँ ! इस पृथ्वीपर तुम्हारे सीधे - सादे पुत्र तो बहुत - से हैं , किंतु उन सबमें मैं ही अत्यन्त चपल तुम्हारा बालक हूँ , मेरे - जैसा चंचल कोई विरला ही होगा । शिवे ! मेरा जो यह त्याग हुआ है , यह तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है , क्योंकि संसारमें कुपुत्रका होना सम्भव है , किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥ ३ ॥ 

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया । तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ ४ ॥

 परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ॥ ५ ॥

 श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः । तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं तु वयसि । जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥ ६ ॥ 

जगदम्ब ! मातः ! मैंने तुम्हारे चरणोंकी सेवा कभी नहीं की , देवि ! तुम्हें अधिक धन भी समर्पित नहीं किया ; तथापि मुझ जैसे अधमपर जो तुम अनुपम स्नेह करती हो , इसका कारण यही है कि संसारमें कुपुत्र पैदा हो सकता है , किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥ ४ ॥

 गणेशजीको जन्म देनेवाली माता पार्वती ! [ अन्य देवताओंकी आराधना करते समय ] मुझे नाना प्रकारकी सेवाओंमें व्यग्र रहना पड़ता था , इसलिये पचासी वर्षसे अधिक अवस्था बीत जानेपर मैंने देवताओंको छोड़ दिया है , अब उनकी सेवा - पूजा मुझसे नहीं हो पाती ; अतएव उनसे कुछ भी सहायता मिलनेकी आशा नहीं है । इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैं अवलम्बरहित होकर किसकी शरणमें जाऊँगा ॥ ५ ॥ 

माता अपर्णा ! तुम्हारे मन्त्रका एक अक्षर भी कानमें पड़ जाय तो उसका ‘ फल यह होता है कि मूर्ख चाण्डाल भी मधुपाकके समान मधुर वाणीका उच्चारण करनेवाला उत्तम वक्ता हो जाता है , दीन मनुष्य भी करोड़ों स्वर्ण मुद्राओंसे सम्पन्न हो चिरकालतक निर्भय विहार करता रहता है । जब मन्त्रके एक अक्षरके श्रवणका ऐसा फल है तो जो लोग विधिपूर्वक जपमें लगे रहते हैं , उनके जपसे प्राप्त होनेवाला उत्तम फल कैसा होगा ? इसको कौन मनुष्य जान सकता है ॥ ६ ॥

  गरलमशनं दिक्पटधरो चिताभस्मालेपो जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः । कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ॥ ७ ॥

 न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाव्यापि च न मे न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः । अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥ ८ ॥

 नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः । श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे धत्सं परं २२८ कृपामुचितमम्ब तवैव ॥ ९ ॥

 भवानी ! जो अपने अंगोंमें चिताकी राख - भभूत लपेटे रहते हैं , जिनका विष ही भोजन है , जो दिगम्बरधारी ( नग्न रहनेवाले ) हैं , मस्तकपर जटा और कष्टमें नागराज वासुकिको हारके रूपमें धारण करते हैं तथा जिनके हाथमें कपाल ( भिक्षापात्र ) शोभा पाता है , ऐसे भूतनाथ पशुपति भी जो एकमात्र ' जगदीश ' की पदवी धारण करते हैं , इसका क्या कारण है ? यह महत्त्व उन्हें कैसे मिला ; यह केवल तुम्हारे पाणिग्रहणकी परिपाटीका फल है ; तुम्हारे साथ विवाह होनेसे ही उनका महत्त्व बढ़ गया ॥ ७ ॥ 

मुखमें चन्द्रमाकी शोभा धारण करनेवाली माँ ! मुझे मोक्षकी इच्छा नहीं है , संसारके वैभवकी भी अभिलाषा नहीं है ; न विज्ञानकी अपेक्षा है , न सुखको आकांक्षा ; अतः तुमसे मेरी यही याचना है कि मेरा जन्म ' मृडानी , रुद्राणी , शिव , शिव , भवानी ' – इन नामका जप करते हुए बीते ॥ ८ ॥ 

माँ श्यामा ! नाना प्रकारकी पूजन - सामग्रियोंसे कभी विधिपूर्वक तुम्हारी आराधना मुझसे न हो सकी । सदा कठोर भावका चिन्तन करनेवाली मेरी वाणीने कौन - सा अपराध नहीं किया है । फिर भी तुम स्वयं ही प्रयत्न करके मुझ अनाथपर जो किंचित् कृपादृष्टि रखती हो , माँ ! यह तुम्हारे ही योग्य है । तुम्हारी - जैसी दयामयी माता ही मेरे - जैसे कुपुत्रको भी आश्रय दे सकती है ॥ ९ ॥

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे  करुणार्णवेशि । नेतच्छठत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ता  जननीं स्मरन्ति ।।१०।।

जगदम्ब  विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि । अपराधपरम्परापर न हि माता समुपेक्षते सुतम्ग ।। ११।

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि । एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ॥ १२ ॥ 

इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् । 

माता दुर्गे ! करुणासिन्धु महेश्वरी ! मैं विपत्तियोंमें फँसकर आज जो तुम्हारा स्मरण करता हूँ [ पहले कभी नहीं करता रहा ] इसे मेरी शठता न मान लेना , क्योंकि भूख - प्याससे पीड़ित बालक माताका ही स्मरण करते हैं ॥ १० ॥ 

जगदम्ब ! मुझपर जो तुम्हारी पूर्ण कृपा बनी हुई है , इसमें आश्चर्यकी कौन सी बात है , पुत्र अपराध - पर - अपराध क्यों न करता जाता हो , फिर भी माता उसकी उपेक्षा नहीं करती ॥ ११ ॥ 

महादेवि ! मेरे समान कोई पातकी नहीं है और तुम्हारे समान दूसरी कोई पापहारिणी नहीं है ; ऐसा जानकर जो उचित जान पड़े , वह करो ॥ १२ ॥


हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

Bhupalmishra35620@gmail.com 

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