Garur puran part 9

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                       सारोद्धार गरुड पुराण 

                        नवां अध्याय 

                


मरणासन्न व्यक्ति के निमित्त किए जाने वाले कृत्य 

सामोद दामोदरम्


मेघैः मेदुरम् अंबरम् वन भुवः श्यामाः तमाल द्रुमैः

नक्तम् भीरुः अयम् त्वम् एव तत् इमम् राधे गृहम् प्रापय |

इत्थम् नन्द निदेशितः चलितयोः प्रति अध्व   कुंज द्रुमम्

राधा माधवयोः जयन्ति यमुना कूले रहः केलयः ||१-१||


हे राधे! समस्त दिशाएँ घनघोर घटाओंसे आच्छादित हो गई हैं। वन वसुन्धरा श्यामल तमाल विटपावलीकी प्रतिच्छायासे तिमिरयुक्ता हो गई है। भीरु स्वभाववाले कृष्ण इस निशीथमें एकाकी नहीं जा सकेंगे – अतः तुम इन्हें अपने साथ ही लेकर सदनमें पहुँचो। श्रीराधाजी, सखी द्वारा उच्चरित इस वचनका समादर करती हुईं आनन्दातिशयतासे विमुग्ध हो, पथके पाश्र्वमें स्थित कुञ्ज-तरुवरोंकी ओर अभिमुख हुई और कालिन्दीके किनारे उपस्थित होकर एकान्तमें केलि करने लगीं। श्रीयुगल माधुरीकी यह रहस्यमयी लीला भक्तोंके हृदयमें स्फुरित होकर विजयी हो। ||१-१||



वाक् देवता चरित चित्रित चित्त सद्मा पद्मावती चरण – चारण चक्रवर्ती |

श्री वासुदेव रति केलि कथा समेतम् एतम् करोति जयदेव कविः प्रबन्धम् ||१-२||

जिनके चित्त-सदनमें समस्त वाणियोंके नियन्ता श्रीकृष्णकी चरितावली सुचारु रूपसे चित्रित हो रही है, जो श्रीराधाजीके चरणयुगल प्राप्तिकी लालसामें निरन्तर नृत्यविधिके अनुसार निमग्न हो रहे हैं, ऐसे महाकवि जयदेव गोस्वामी श्रीकृष्णकी कुञ्ज-विहारादि सुरत लीला समन्वित इस गीतगोविन्द नामके ग्रन्थका प्रणयन कर भावग्राही भक्तजनोंके उज्ज्वल भक्तिरसको उच्छलित कर रहे हैं ||१-२||


 व्यक्तिके निमित्त किये जानेवाले कृत्य

 गरुड उवाच 

कथितं भवता सम्यग्दानमातुरकालिकम् । म्रियमाणस्य यत्कृत्यं तदिदानीं वद प्रभो ॥ १ ॥

 गरुडजी बोले- हे प्रभो ! आपने आतुरकालिक दानके संदर्भ में भलीभाँति कहा । अब म्रियमाण ( मरणासन्न ) व्यक्तिके लिये जो कुछ करना चाहिये , उसे बताइये ॥ १ ॥ 

भगवानुव उवाच 

 शृणु तार्क्ष्य प्रवक्ष्यामि देहत्यागस्य तद्विधिम् । मृता येन विधानेन सद्गतिं यान्ति मानवाः ॥ २ ॥ 

कर्मयोगाद्यदा देही मुञ्चत्यत्र निजं वपुः । तुलसीसंनिधौ कुर्यान्मण्डलं गोमयेन तु ॥ ३ ॥

 श्रीभगवान्ने कहा- हे तार्क्ष्य । जिस विधानसे मनुष्य मरनेपर सद्गति प्राप्त करते हैं , शरीर त्याग करनेकी उस विधिको मैं कहता हूँ , सुनो ॥ २॥ 

कर्मके सम्बन्धसे जब प्राणी अपना शरीर छोड़ने लगता है तो उस समय तुलसीके समीप गोबरसे एक मण्डलको रचना करनी चाहिये ॥ ३ ॥ 

तिलांश्चैव विकीर्याथ दर्भाश्चैव विनिक्षिपेत् । स्थापयेदासने शुभे शालग्रामशिलो तदा ॥ ४ ॥ 

 शालग्रामशिला यत्र  पापदोषभयापहा तत्संनिधानमरणान्मुक्तिर्जन्तोः सुनिश्चिता ॥ ५ ॥ 

तुलसीविटपच्छाया यत्रास्ति भवतापहा । तत्रैव मरणान्मुक्तिः सर्वदा दानदुर्लभा ॥ ६ ॥ 

वहाँ ( उस मण्डलके ऊपर ) तिल बिखेरकर कुशोंको बिछाये , तदनन्तर उनके ऊपर श्वेत वस्त्रके आसनपर शालग्राम - शिलाको स्थापित करे ॥४ ॥ 

जहाँ पाप , दोष और भयको हरण करनेवाली शालग्राम • शिला विद्यमान है , उसके संनिधानमें मरनेसे प्राणीकी मुक्ति सुनिश्चित है ॥ ५ ॥ 

जहाँ जगत्के तापका हरण करनेवाली तुलसीवृक्षकी छाया है , वहाँ मरनेसे  सदैव मुक्ति ही होती है , जो मुक्ति दानादि कर्मोंसे दुर्लभ है ॥६ ॥ 

तुलसीविटपस्थानं गृहे यस्यावतिष्ठते । तद्गृहं तीर्थरूपं हि न यान्ति यमकिङ्कराः ॥ ७ ॥ 

  तुलसीमञ्जरीयुक्तो यस्तु प्राणान्विमुञ्चति । यमस्तं नेक्षितुं शक्तो युक्तं पापशतैरपि ॥ ८ ॥ 

तस्या दलं मुखे कृत्वा तिलदर्भासने मृतः । नरो विष्णुपुरं याति पुत्रहीनोऽप्यसंशयः ॥ ९ ॥

 जिसके घरमें तुलसीवृक्षके लिये स्थान बना हुआ है , वह घर तीर्थस्वरूप ही है , वहाँ यमके दूत प्रवेश नहीं करते ॥ ७ ॥

 तुलसीकी मञ्जरीसे युक्त होकर जो प्राणी अपने प्राणोंका परित्याग करता है , वह सैकड़ों पापोंसे युक्त हो तो भी यमराज उसे देख नहीं सकते ॥ ८ ॥

 तुलसीके दलको मुखमें रखकर तिल और कुशके आसनपर मरनेवाला व्यक्ति पुत्रहीन हो तो भी निःसंदेह विष्णुपुरको जाता है ॥ ९ ॥ 

तिलाः पवित्रास्त्रिविधा दर्भाश्च तुलसीरपि । नरं निवारयन्त्येते दुर्गतिं यान्तमातुरम् ॥ १० ॥ 

मम स्वेदसमुद्भूता यतस्ते पावनास्तिलाः । असुरा दानवा दैत्या विद्रयन्ति तिलैस्ततः ॥ ११ ॥ 

दर्भा विभूतिमें तार्क्ष्य मम रोमसमुद्भवाः । अतस्तस्पर्शनादेव स्वर्गं गच्छन्ति मानवाः ॥ १२ ॥ 

तीनों प्रकार ( काले , सफेद और भूरे ) के तिल , कुश और तुलसी- ये सब ब्रियमाण प्राणीको दुर्गतिसे बचा लेते हैं ॥ १० ॥

 यतः मेरे पसीनेसे तिल पैदा हुए हैं , अतः वे पवित्र हैं । असुर , दानव और दैत्य तिलको देखकर भाग जाते हैं ॥ १ ९ ॥

 हे तार्क्ष्य । मेरे रोमसे पैदा हुए दर्भ ( कुश ) मेरी विभूति हैं । इसलिये उनके स्पर्शसे ही मनुष्यको स्वर्गकी प्राप्ति होती है ॥ १२ ॥

  कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये जनार्दनः । कुशाग्रे शङ्करो देवस्त्रयो देवाः कुशे स्थिताः ॥ १३ ॥

अतः कुशा वह्निमन्त्रतुलसीविप्रधेनवः । नैते निर्माल्यतां यान्ति क्रियमाणाः पुनः पुनः ॥ १४ ॥

 दर्भाः पिण्डेषु निर्माल्या ब्राह्मणाः प्रेतभोजने मन्त्रा गौस्तुलसी नीचे चितायां च हुताशनः ॥ १५ ।। 

कुशके मूलमें ब्रह्मा , कुशके मध्यमें जनार्दन और कुशके अग्रभागमें शङ्कर - इस प्रकार तीनों देवता कुशमें स्थित रहते हैं ॥ १३ ॥

 इसलिये कुश , अग्नि , मन्त्र , तुलसी , ब्राह्मण और गौ - ये बार - बार उपयोग किये जानेपर भी निर्माल्य नहीं होते ॥ १४॥ 

पिण्डदानमें उपयोग किये गये दर्भ ( कुश ) , प्रेतके निमित्त भोजन करनेवाले ब्राह्मण , नीचके मुखसे उच्चरित मन्त्र , नीचसम्बन्धी गौ और तुलसी तथा चिताकी आग - ये सब निर्माल्य अर्थात् अपवित्र ( अतएव अग्राह्म ) होते हैं ॥ १५ ॥

  गोमयेनोपलिप्ते हेतु दर्भास्तरणसंस्कृते । भूतले ह्यातुरं कुर्यादन्तरिक्षं विवर्जयेत् ॥ १६ ॥ 

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च सर्वे देवा हुताशनः । मण्डलोपरि तिष्ठन्ति तस्मात्कुर्वीत मण्डलम् ॥ १७ ॥ 

सर्वत्र वसुधा पूता लेपो यत्र न विद्यते । यत्र लेपः कृतस्तत्र पुनर्लेपेन शुद्धयति ॥ १८ ॥

 गोबरसे लोपो हुई और कुश बिछाकर संस्कार की हुई पृथ्वीपर आतुर ( मरणासन्न व्यक्ति ) को स्थापित करना चाहिये । अन्तरिक्षका परिहार करना चाहिये अर्थात् चौकी आदिपर नहीं रखना चाहिये ॥ १६ ॥

 ब्रह्मा , विष्णु , रुद्र तथा अन्य सभी देवता और हुताशन ( अग्रि ) - ये सभी मण्डलपर विराजमान रहते हैं , इसलिये मण्डलकी रचना करनी चाहिये ॥ १७ ॥ 

जो भूमि लेपरहित होती है अर्थात् मल - मूत्र आदिसे रहित होती है , वह सर्वत्र पवित्र होती है , किंतु जो भूमिभाग कभी लीपा जा चुका है ( या मल - मूत्र आदिसे दूषित है ) वहाँ पुनः लीपनेपर उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ १८ ॥ 

राक्षसाश्च पिशाचाश्च भूताः प्रेता यमानुगाः । अलिप्तदेशे खट्वायामन्तरिक्षे विशन्ति च ॥ १ ९ ॥ 

अतोऽग्निहोत्रं श्राद्धं च ब्रह्मभोज्यं सुरार्चनम् । मण्डलेन विना भूम्यामातुरं नैव कारयेत् ॥ २० ॥ 

लिप्तभूम्यामतः कृत्वा स्वर्णरत्रं मुखे क्षिपेत् । विष्णोः पादोदकं दद्याच्छालग्रामस्वरूपिणः ॥ २१ ॥

 चारपाई आदिपर या आकाशमें ( भूमिकी सतहसे ऊपर ) राक्षस , पिशाच , भूत , प्रेत बिना लीपी हुई भूमिपर और यमदूत प्रविष्ट हो जाते हैं ॥ १ ९ ॥

 इसलिये भूमिपर मण्डल बनाये बिना अग्निहोत्र श्राद्ध , ब्राह्मण भोजन , देव पूजन और आतुर व्यक्तिका स्थापन नहीं करना चाहिये ॥ २० ॥ 

इसलिये लीपी हुई भूमिपर आतुर व्यक्तिको लिटाकर उसके मुखमें स्वर्ण और रत्नका प्रक्षेप करके शालग्रामस्वरूपी भगवान् विष्णुका पादोदक देना चाहिये ॥ २१ ॥

 शालग्रामशिलातोयं यः पिबेद् बिन्दुमात्रकम् । स सर्वपापनिर्मुक्तो वैकुण्ठभुवनं व्रजेत् ॥ २२ ॥ 

ततो गङ्गाजलं दद्यान्महापातकनाशनम् । सर्वतीर्थकृतस्नानदानपुण्यफलप्रदम् ।। 

चान्द्रायणं चरेद्यस्तु सहस्स्रं कायशोधनम् । पिबेद्यश्चैव गङ्गाम्भः समौ स्यातामुभावपि ॥ २४ ॥ 

अग्निं प्राप्य यथा तार्क्ष्य तूलराशिर्विनश्यति । तथा गङ्गाम्बुपानेन यातकं भस्मसाद्भवेत् ॥ २५ ॥

 यस्तु सूर्याशुसन्तप्तं गङ्गायाः सलिलं पिबेत् । स सर्वयोनिनिर्मुक्तः प्रयाति सदनं हरेः ।। २६ ।। 

नद्दो जलावगाहेन पावयन्तीतराञ्जनान् । दर्शनात्स्यर्शनात्यानात्तथा गङ्गेति कीर्तनात् ॥ २७ ॥

 पुनात्यपुण्यान्पुरुषान् शतशोऽथ सहस्रशः । गङ्गा तस्मात् पिबेत्तस्य जलं संसारतारकम् ॥ २८ ॥  

जो शालग्राम - शिलाके जलको बिन्दुमात्र भी पीता है , वह सभी पापोंसे मुक्त हो वैकुण्ठलोकमें जाता है ॥ २२ ॥

 इसलिये ( आतुर व्यक्तिको ) महापातकको नष्ट करनेवाले गङ्गाजलको देना चाहिये । गङ्गाजलका पान सभी तीर्थोंमें किये जानेवाले स्नान - दानादिके पुण्यरूपी फलको प्रदान करनेवाला है ॥ २३॥

 जो शरीरको शुद्ध करनेवाले चान्द्रायणव्रतको एक हजार बार करता है और जो ( एक बार ) गङ्गाजलका पान करता है , वे दोनों समान ( फलवाले ) हैं ॥ २४ ॥ 

हे तार्क्ष्य अग्निके सम्बन्धसे जैसे रूईकी राशि नष्ट हो जाती है , उसी प्रकार गङ्गाजलसे पातक भस्मसात् हो जाते हैं ॥ २५ ॥

 जो सूर्यकी किरणोंसे संतप्त गङ्गाके जलका पान करता है , वह सभी योनियोंसे  छूटकर हरिके धामको प्राप्त होता है ॥ २६ ॥

 अन्य नदियाँ मनुष्योंको जलावगाहन ( स्नान ) करनेपर पवित्र करती हैं , किंतु गङ्गाजी तो दर्शन , स्पर्श , पान अथवा गङ्गा ' इस नामका कीर्तन करनेमात्रसे सैकड़ों , हजारों पुण्यरहित पुरुषोंको भी पवित्र कर देती हैं । इसलिये संसारसे पार लगा देनेवाले गङ्गाजलको पीना चाहिये ॥ २७-२८ ॥

 गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयात्प्राणैः कण्ठगतैरपि । मृतो विष्णुपुरं याति न पुनर्जायते भुवि ॥ २ ९ ॥ 

उत्क्रामद्भिश्च यः प्राणैः पुरुषः श्रद्धयाऽन्वितः । चिन्तयेन्मनसा गङ्गां सोऽपि याति परां गतिम् ॥ ३० ॥ 

अतो ध्यायेन्निमेद् गङ्गां संस्मरेतज्जलं पिबेत् । ततो भागवतं किञ्चिच्छृणुयान्मोक्षदायकम् ॥ ३१ ॥ 

श्लोकं श्लोकार्धपादं वा योऽन्ते भागवतं पठेत् । न तस्य पुनरावृत्तिर्ब्रह्मलोकात्कदाचन ॥ ३२ ॥

 जो व्यक्ति प्राणोंके कण्ठगत होनेपर ' गङ्गा - गङ्गा ' ऐसा कहता है , वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है और पुनः भूलोकमें जन्म नहीं लेता ॥ २ ९ ॥

 प्राणोत्क्रमण ( प्राणोंके निकलने ) के समय जो पुरुष श्रद्धायुक्त होकर मनसे गङ्गाका चिन्तन करता है , वह भी परम गतिको प्राप्त होता है ॥ ३० ॥ 

अतः गङ्गाका ध्यान , गङ्गाको नमन , गङ्गाका संस्मरण करना चाहिये और गङ्गाजलका पान करना चाहिये । इसके बाद मोक्ष प्रदान करनेवाली श्रीमद्भागवतकी कथाको ( जितना सम्भव हो उतना ) श्रवण करना चाहिये ॥ ३१ ॥

 जो व्यक्ति अन्त समयमें श्रीमद्भागवतके एक श्लोक , आधे श्लोक अथवा एक पादका भी पाठ करता है , वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पुनः संसारमें कभी नहीं आता ॥ ३२ ॥ 

वेदोपनिषदां पाठाच्छिवविष्णुस्तवादपि ।  ब्राह्मणक्षत्रियविशां मरणं मुक्तिदायकम् ॥ ३३ ॥ 

प्राणप्रयाणसमये कुर्यादनशनं  खग । दद्यादातुरसंन्यासं विरक्तस्य द्विजन्मनः ॥ ३४ ॥

ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्यको मरणकालमें वेद और उपनिषदोंका पाठ तथा शिव और विष्णु स्तुति मुक्ति प्राप्त होती है ॥ ३३ ॥ 

हे खग प्राणत्याग के समय मनुष्यको अनशन ( जल और अलका याग करना चाहिये और वह विरक द्विजन्मा हो तो उसे आतुरसंन्यास लेना चाहिये ।। ३४ ।। 

 संन्यस्तमिति यो बूयात्प्राणैः कण्ठगतैरपि । मृतो विष्णुपुर याति न पुनर्जायते भुवि ।। ६५ ।। 

 एवं जातविधानस्य धार्मिकस्य तदा खम ।  ऊघ्वच्छिद्रेण गच्छन्ति प्राणास्तस्य सुखेन हि ॥३६।।

 मुखच चक्षुषी नासे कर्णी द्वाराणि सप्त च । एभ्यः  सुकृतिनो यान्ति योगिनस्तालुसरनध्रतः ॥ १७ ॥ 

अपानामिलितप्राणी यदा हि भवतः पृथक् । सूक्ष्मीभूत्वा तदा वायुद्धनिष्कामति पुजलात् ॥ ३८ ॥

  प्राणोंके कण्ठमें आने पर जो प्राणी ' मैंने संन्यास ले लिया है - ऐसा कहता है , वह मरनेपर विष्णुको प्राप्त होता है । पुन : पृथ्वीपर उसका जन्म नहीं होता ।। ३५ ।।

 इस प्रकार है खग । जिस धार्मिक पुरुषके आतुरकालिक पूर्वोक कार्य सम्पादित किये जाते हैं , उसके प्राण ऊपरके छिद्रोंसे सुखपूर्वक निकलते हैं ॥ ३६॥ 

मुख , दोनों नेत्र , दोनों नासिकारन्ध तथा दोनों कान - ये सात ( ऊपरके ) द्वार ( छिद्र ) हैं , इनसे किसी द्वारसे सुकृती ( पुण्यात्मा ) के प्राण निकलते हैं और योगियों के प्राण तालुरन्ध्र से निकलते हैं ॥ ३७॥ 

अपानसे मिले हुए प्राण जब पृथक हो जाते हैं , तब प्राणवायु सूक्ष्म होकर शरीरसे निकलता है ।। ३८ ।।

 शरीर पतते पश्चान्निर्गते  मरुतीश्वरे । कालाहत पतत्येवं निराधारो यथा द्रुमः।। ३ ९ ।।

   निर्विचेष्टं शरीरं तु प्राणैर्मुक्त जुगुप्तिम् । अस्पृश्यं जायते सद्यो दुर्गन्धं सर्वनिन्दितम् ॥ ४० ॥ 

 प्राणवायुरूपी ईश्वरके निकल जानेपर कालसे आहत शरीर निराधार वृक्षकी भाँति गिर पड़ता है ।। ३ ९ ।।

 प्राणसे मुक्त होने के बाद शरीर तुरंत चेष्टाशून्य , घृणित , दुर्गन्धयुक्त , अस्पृश्य और सभी के लिये निन्दित हो जाता है ॥ ४० ॥ 

त्रिधावस्था शरीरस्य कृमिविङ्भस्मरूपतः । किं गर्वः क्रियते देहे क्षणविध्वंसिभिर्नरैः ॥ ४१ ।।

 पृथिव्यां लीयते पृथ्वी आपश्चैव तथा जले । तेजस्तेजसि लीयेत समीरस्तु समीरणे ॥ ४२ ॥ 

आकाशच तथाऽऽकाशे सर्वव्यापी च शङ्करः । नित्यमुक्तो जगत्साक्षी आत्मा देहेष्वजोऽमरः ॥ ४३ ।। 

इस शरीरकी कीड़ा , विष्ठा तथा भस्मरूप - ये तीन अवस्थाएँ होती है , इसमें कीड़े पड़ते हैं , यह विष्ठाके समान दुर्गन्धयुक्त हो जाता है अथवा अन्ततः चितामें भस्म हो जाता है । इसलिये क्षणमात्र में नष्ट हो जानेवाले इस देहके लिये मनुष्योंके द्वारा गर्व क्यों किया जाय ॥४१ ॥ (

 पञ्चभूतोंसे निर्मित इस शरीरका ) पृथ्वीतत्त्व पृथ्वीमें लीन हो जाता है , जलतत्त्व जलमें , तेजस्तत्व तेजमें और वायुतत्त्व वायुमें लीन हो जाता है , इसी प्रकार आकाशतत्व भी आकाशमें लीन हो जाता है । सभी प्राणियोंके देहमें स्थित रहनेवाला सर्वव्यापी शिवस्वरूप , नित्य मुक्त और जगत्साक्षी आत्मा अजर - अमर है ।। ४२-४३ ॥

 सर्वेन्द्रियपुतो जीव :  शब्दादिविषयैर्वृतः । कामरागादिभिर्युक्तः कर्मकोशसमन्वितः ॥ ४४ ॥

 पुण्यवासनया युक्तो निर्मिते स्वेन कर्मणा । प्रविशेत्स नये देहे गृहे दग्धे यथा गृही ॥ ४५ ॥

सभी इन्द्रियोंसे युक्त और शब्द आदि विषयोंसे युक्त ( मृत व्यक्तिके देहसे निकला ) जीव कर्म - कोशसे समन्वित तथा काम और रागादिके सहित पुण्यकी वासनासे युक्त होकर अपने कर्मोंके द्वारा निर्मित नवीन शरीरमें उसी प्रकार प्रवेश करता है , जैसे घरके जल जानेपर गृहस्थ दूसरे नवीन घरमें प्रवेश करता है ॥ ४४-४५ ॥ 

तदा विमानमादाय किंकिणीजालमालि यत् । आयान्ति देवदूताश्च लसच्चामरशोभिताः ॥ ४६ ॥

 धर्मतत्त्वविदः प्राज्ञाः सदा धार्मिकवल्लभाः । तदैनं कृतकृत्यं स्वर्विमानेन नयन्ति ते ॥ ४७ ॥

 सुदिव्यदेहो विरजाम्बरस्त्रक्  सुवर्णरत्नाभरणैरुपेतः । दानप्रभावात्स महानुभावः प्राप्नोति नाकं सुरपूज्यमानः ॥ ४८ ॥

 इति गरुडपुराणे सारोद्धारे प्रियमाणकृत्यनिरूपणं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ 

 तब किंकिणीजालकी मालाओंसे युक्त विमान लेकर सुन्दर चामरोंसे सुशोभित देवदूत आते हैं । धर्मके तत्त्वको जाननेवाले , बुद्धिमान , धार्मिक जनोंके प्रिय वे देवदूत कृतकृत्य इस जीवको विमानसे स्वर्ग ले जाते हैं ॥ ४६-४७ ॥

 सुन्दर , दिव्य देह धारण करके निर्मल वस्त्र और माल्य धारण करके , सुवर्ण और रत्नादिके आभरणोंसे युक्त होकर वह महानुभाव जीव दानके प्रभावसे देवताओंसे पूजित होकर स्वर्गको प्राप्त करता है ॥ ४८ ॥ 

इस प्रकार गरुडपुराण के अन्तर्गत निरूपण ' नामक पर्वा अध्याय पूरा हुआ ॥



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