बारहवाँ अध्याय
एकादशाहकृत्य - निरूपण , मृत शय्यादान , गोदान , घटदान , अष्टमहादान , वृपोत्सर्ग , मध्यमषोडशी , उत्तमपोडशी एवं नारायणबलि
गरुड उवाच
एकादशदिनस्यापि विधि ब्रूहि सुरेश्वर । वृपोत्सर्गविधानं च यद मे जगदीश्वर ।। १ ।।
गरुडजीने कहा - हे सुरेश्वर ग्यारहवें दिनके कृत्य - विधानको भी बताइये और हे जगदीश्वर वृपोत्सर्गकी विधि भी बताइये ॥ १ ॥
श्रीभगवानुवाच
एकादशेऽह्नि गन्तव्यं प्रातरेव जलाशये । और्ध्वदेहिक्रिया सर्वा करणीया प्रयत्नतः ॥ २ ॥
निमन्त्रयेद् ब्राह्मणांच वेदशास्त्रपरायणान् । प्रार्थयेत् प्रेतमुक्तिं च नमस्कृत्य कृताञ्जलिः ॥ ३ ॥
श्रीभगवान्ने कहा- ग्यारहवें दिन प्रातःकाल ही जलाशयपर जाकर प्रयत्नपूर्वक सभी और्ध्यदैहिक क्रिया करनी चाहिये ॥ २ ॥
वेद और शास्त्रोंका अभ्यास करनेवाले ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे और हाथ जोड़कर नमस्कार करके उनसे प्रेतको मुक्तिके लिये प्रार्थना करे ॥ ३ ॥
उत्तरस्यां रुद्रकुम्भं दक्षिणस्यां स्नानसंध्यादिकं कृत्वा ह्याचार्योऽपि शुचिर्भवेत् । विधानं विधिवत् कुर्यादेकादशदिनोचितम् ॥ ४ ॥
अमन्त्रं कारयेचशद्धं दशाहं नाम गोत्रतः । एकादशेऽह्नि प्रेतस्य दद्यात् पिण्डं समन्त्रकम् ॥ ५ ॥
सौवर्ण कारयेद् विष्णुं ब्रह्माणं रौप्यकं तथा ।रुद्रस्ताग्रमयः कार्यो यमो लोहमयः खगः ॥ ६ ॥
पश्चिमे विष्णुकलशं गङ्गोदकसमन्वितम् । तस्योपरि न्यसेद्विष्णुं पीतवस्त्रेण वेष्टितम् ॥ ७ ॥
पूर्वे तु ब्रह्मकलशं क्षीरोदकसमन्वितम् । ब्रह्माणं स्थापयेत् तत्र श्वेतवस्त्रेण वेष्टितम् ॥ ८ ॥
पूरितं मधुसर्पिषा । श्रीरुद्रं स्थापयेत् तत्र रक्तवस्त्रेण वेष्टितम् ॥ ९ ॥
दक्षिणस्यां यमघटमिन्द्रोदकसमन्वितम् । कृष्णवस्त्रेण संवेष्ट्य तस्योपरि यमं न्यसेत् ॥ १० ॥
आचार्य भी स्नान - संध्या आदि करके पवित्र हो जायें और ग्यारहवें दिनके लिये उचित कृत्योंका विधिवत् विधान आरम्भ करें ॥४ ॥
दस दिनतक मृतकके नाम - गोत्रका उच्चारण मन्त्रोच्चारण के बिना करना चाहिये । ग्यारहवें दिन प्रेतका पिण्डदान समन्त्रक ( मन्त्रोंसहित ) करना चाहिये ॥५ ॥
हे गरुड । सुवर्णसे विष्णुकी , रजत ( चाँदी ) से ब्रह्माकी , ताम्रसे रुद्रकी और लौहसे यमकी प्रतिमा बनवानी चाहिये ॥ ६ ॥
पश्चिमभागमें गङ्गाजल परिपूर्ण विष्णुकलश स्थापित करके उसके ऊपर पीतवस्त्रसे वेष्टित विष्णुकी प्रतिमा स्थापित करे ॥ ७ ॥
पूर्व - दिशामें दूध और जलसे भरा ब्रह्मकलश स्थापित करके उसपर श्वेत वस्त्रसे वेष्टित ब्रह्माकी स्थापना करे ॥ ८ ॥
उत्तरकी दिशामें मधु और घृतसे परिपूर्ण रुद्रकुम्भकी स्थापना करके रक्त - वस्त्रवेष्टित श्रीरुद्रकी प्रतिमाको उसपर स्थापितकरे ॥ ९ ॥
दक्षिण दिशामें इन्द्रोदक ( वर्षोंके जल ) से परिपूर्ण यमघटको स्थापना करे और काले करके उसपर यमको प्रतिमा स्थापित करे ॥ १० ॥
मध्ये तु मण्डलं कृत्वा स्थापयेत् कौशिकं सुतः । दक्षिणाभिमुखो भूत्वाऽपसव्येन च तर्पयेत् ॥ १ ९ ॥
विष्णुं विधिं शिवं धर्म वेदमन्त्रैश तर्पयेत् । होमं कृत्वा चरेत् पश्चाद्धं दशघटादिकम् ॥ १२ ॥
गोदानं च ततो दद्यात् पितॄणां तारणाय वै गरिषा हि मया दत्ता प्रीतये तेऽस्तु माधव ॥ १३ ॥
उपभुक्त तु तस्यासीद्वस्वभूषणवाहनम् । घृतपूर्ण कांस्यपात्रं सप्तधान्यं तदीप्सितम् ॥ १४ ॥
तिलाद्यष्टमहादानमन्तकाले न चेत् कृतम् । शय्यासमीपे धृत्वैतदानं तस्याः प्रदापयेत् ॥ १५ ॥
प्रक्षाल्य विप्रचरणौ पूजयेदम्बरादिभिः । सिद्धानं तस्य दातव्यं मोदकाऽपूपकाः पयः ॥ १६ ॥
स्थापयेत् पुरुषं हैमे शय्योपरि तदा सुतः । पूजयित्वा प्रदातव्या मृतशय्या यथोदिता ॥ १७ ॥
उनके मध्यमें एक मण्डल बनाकर उसपर पुत्र कुशसे निर्मित कुशमयी प्रेतकी प्रतिमा स्थापित करे और दक्षिणाभिमुख एवं अपसव्य होकर तर्पण करे ॥ ११ ॥
विष्णु , ब्रह्मा , शिव और धर्मराज ( यम ) का वेदमन्त्रोंसे तर्पण करे । तब होम करनेके अनन्तर श्राद्ध और दस घट आदिका दान करे ॥ १२ ॥
तदनन्तर पितरोंको तारनेके लिये गोदान करे । गोदानके समय ' हे माधव । यह गौ मेरेद्वारा आपकी प्रसन्नताके लिये दी जा रही है , इस गोदानसे आप प्रसन्न होवें - ऐसा कहे ॥ १३ ॥
प्रेतके द्वारा उपयुक्त आभूषण , वस्त्र , वाहन तथा घृतपूर्ण कांस्यपात्र , सप्तधान्य और प्रेतको प्रिय लगनेवाली वस्तुएँ एवं तिलादि अष्टमहादान जो अन्तकालमें न किये जा सके हों , शय्याके समीप रखकर शय्याके साथ इन सबका भी दान करे ॥ १४-१५ ॥
ब्राह्मणके चरणोंको धोकर वस्त्र आदिसे उनकी पूजा करे और मोदक , पूआ , दूध आदि पक्वान्न उन्हें प्रदान करे ॥ १६॥
तब पुत्र शय्याके ऊपर ( प्रेतकी ) स्वर्णमयी प्रतिमा ( काञ्चन पुरुषको ) स्थापित करे और उसकी पूजा करके यथाविधि मृतशय्याका दान करे ॥ १७ ॥
प्रेतस्य प्रतिमायुक्ता सर्वोपकरणैर्वृता । प्रेतशय्या मया होषा तुभ्यं विप्र निवेदिता ॥ १८ ॥
इत्याचार्याय दातव्या ब्राह्मणाय कुटुम्बिने । ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रणिपत्य विसर्जयेत् ॥ १ ९ ॥
एवं शय्याप्रदानेन श्राद्धेन नवकादिना । वृषोत्सर्गविधानेन प्रेतो याति परां गतिम् ॥ २० ॥
शय्यादान के समय इस मन्त्रको पढ़े - ' हे विप्र । प्रेतकी प्रतिमासे युक्त और सभी प्रकारके उपकरणोंसे समन्वित यह प्रेतशय्या ( मृतशय्या ) मैंने आपको निवेदित की है - इस प्रकार पढ़कर कुटुम्बी ब्राह्मण आचार्यको वह शय्या प्रदान करनी चाहिये ।
इसके बाद प्रदक्षिणा और प्रणाम करके विसर्जन करना चाहिये ॥ १८-१९ ।
इस प्रकार शय्यादान , नवक आदि श्राद्ध और वृषोत्सर्गका विधान करनेसे प्रेत परम गतिको प्राप्त होता है ।॥ २० ॥
एकादशेऽह्नि विधिना वृषोत्सर्ग समाचरेत् । हीनाङ्गरोगिणं वाले त्यक्त्वा कुर्यात्सलक्षणम् ॥ २१ ॥
रक्ताक्षः पिङ्गलो यस्तु रक्तः शृङ्गे गले खुरे श्वेतोदरः कृष्णपृष्ठो ब्राह्मणस्य विधीयते ॥ २२ ॥
सुस्निग्धवर्णो यो रक्तः क्षत्रियस्य विधीयते । पीतवर्णश्च वैश्यस्य कृष्णः शूद्रस्य शस्यते ॥ २३ ॥
ग्यारहवें दिन विधिपूर्वक हीन अङ्गवाले , रोगी , अत्यन्त छोटे बछड़ेको छोड़कर सभी शुभ लक्षणों से युक्त वृषका विधिपूर्वक उत्सर्ग करना चाहिये ॥ २१॥
ब्राह्मणके उद्देश्यसे लाल आँख वाले, पिंगल वर्ण वाले , लाल सींग ,लाल गला और लाल खुरबाले , सफेद पेट तथा काली पीठवाले वृषभका उत्सर्जन करना चाहिये ॥ २२ ॥
क्षत्रिय के लिये चिकना और रक्तवर्णवाला वैश्यके लिये पीतवर्णवाला और शुदके लिये कृष्णवर्णका वृषभ प्रशस्त माना जाता है ।
यस्तु सर्वाः स्वःपुच्छे पदेषु च । सपिङ्गो वृष इत्याहुः पितॄणां प्रीतिवर्धनः ॥ २४ ॥
चरणास्तु मुखं पुच्छे यस्य श्वेतानि गोपतेः । लाक्षारससवर्णो यः स नील इति कीर्तितः ॥ २५ ॥
लोहितो यस्तु वर्णेन मुखपुच्छे च पांण्डुरः। पिङ्गः खुरविषाणाभ्यां रक्तनीलो निगद्यते ॥ २६ ॥
सर्वागङेष्वेक वर्णो यः पिङ्गः पुच्छे खुरेषु यः । तं नीलपङ्गमित्याहुः पूर्वजोद्धारकारकम् ॥ २७ ॥
जिस वृषभका सर्वाग्ङ पिङ्गल वर्ण का और पैर सफेद हो , वह पिङ्गल वर्णका वृषभ - पितरोंकी प्रसन्नता बढाने वाला होता है , ऐसा कहा गया है ॥ २४॥
जिस वृषभके पैर , मुख और पूंछ श्रेत हो तथा शेष शरीर लाख के समान वर्ण का हो ,वह नीलवृष कहा जाता है । २५ ॥
जो वृषभ रक्तवर्ण का हो तथा जिसका मुख और पूंछ पाणडुर वर्ण का हो तथा खुर और सींग पिङ्गल वर्णके हो उसे रक्तनील वृप कहते हैं ॥ २६॥
जिस साँडके समस्त अंङ्ग एक रंग के हो और पूंछ तथा खुर पिङ्गल वर्णका हो उसे नीलपिंङ्ग कहा गया है , यह पूर्वजोंका उद्धार करने वाला होता है ।
पारावतसवर्णस्तु ललाटे तिलकान्वितः तं भुनीलमित्याहुः पूर्ण सर्वाङ्गशोभनम् ॥ २८ ॥
नीलः सर्वशरिरेषु रक्तक्ष नयनद्वये । तंमप्याहुर्महानीलं नीलः पञ्चविधः स्मृतः ॥ २ ९ ॥
जो कबूतरके समान रंग हो , जिसके लटपर तिलक - सी आकृति हो और सर्वाङ्ग सुन्दर हो , वह बभ्रुनील वृषभ कहा जाता है । जिसका शरीर नीलवर्णका हो और दोनों नेत्र रक्तवर्णक हो , उसे महानील वृषभ कहते है । इस प्रकार नील वृषभ पाँच प्रकार के होते हैं ॥२ ९ ॥
अवश्यमेव मोक्तव्यो न स धार्यो गृहे भवेत् । तदर्थमेषा चरति लोके गाथा पुरातनी ॥ ३० ॥
एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां ब्रजेत । गौरी विवाहयेत् कन्यां नीले वा वृषमुत्सृजेत् ॥ ३ ९ ॥
स एव पुत्रो मन्तव्यो वृषोत्सर्ग तु यश्चरेत् । गयायां श्रद्धदाता च योऽन्यो समः किल ॥ ३२ ॥
वृषभका संस्कार करके उसे अवश्य मुक्त कर देना चाहिये , घरमें नहीं रखना चाहिये । इसी विषयमें लोकमें , एक पुरानी गधा प्रचलित है । बहुत से पुत्रोंकी कामना करनी चाहिये ताकि उनमें से कोई एक गया जाय अथवा गौरी कन्यादान करे या नील वृषका उत्सर्ग करे ॥ ३१॥
जो पुत्र वृषोत्सर्ग करता है और गया मे श्राद्ध करता है वही पुत्र है , अन्य पुत्र विष्ठा के समान है ॥३२ ॥
रौरवादिषु ये केचित् पच्यन्ते यस्य पूर्वजाः । वृषोत्सर्गेण तान् सर्वांस्तारयेदेकविंशतिम् ॥ ३३ ॥
वृषोत्सर्ग किलेच्छन्ति पितरः स्वर्गता अपि । अस्मद्वंशे सुतः कोऽपि वृषोत्सर्ग करिष्यति ॥ ३४ ॥
तदुत्सर्गाद्वयं सर्वे यास्यामः परमां गतिम् । सर्वयज्ञेषु चास्माकं वृषयज्ञो हि मुक्तिदः ॥ ३५ ॥
जिसके जो कोई पूर्वज रौरव आदि नरकोंमें यातना पा रहे हों , इक्कीस पीढ़ीके पुरुषोंके सहित वृषोत्सर्ग करनेवाला पुत्र उनको तार देता है ॥ ३३ ॥
स्वर्गमें गये हुए पितर भी इस प्रकार वृषोत्सर्गकी कामना करते हैं हमारे वंशमें कोई पुत्र होगा , जो वृषोत्सर्ग करेगा । उसके द्वारा किये गये वृषोत्सर्गसे हम सब परम गतिको प्राप्त होंगे । हम लोगोंको सभी यज्ञोंमें श्रेष्ठ वृष - यज्ञ ( वृपोत्सर्ग ) मोक्ष देनेवाला हैं ॥ ३४-३५ ॥
तस्मात् पितृविमुक्त्यर्थं वृषयज्ञं समाचरेत् । यथोक्तेन विधानेन कुर्यात् सर्व प्रयत्नतः ॥ ३६ ॥
ग्रहाणां स्थापनं कृत्वा तत्तन्मन्त्रैश पूजनम् । होमं कुर्याद् यथाशास्त्रं पूजयेद्वषमातरः ॥ ३७ ॥
वत्सं वत्स समानाय्य बक्षीयात् कंकणं तयोः । वैवाह्येन विधानेन स्तम्भमारोपयेत् तदा ॥ ३८ ॥
इसलिये पितरोंकी मुक्ति के लिये यथोक्त विधानसे सभी प्रयत्नपूर्वक वृषयज्ञ ( वृषोत्सर्ग ) करना चाहिये ॥ ३६ ॥
( वृषोत्सर्ग करनेवाला ) ग्रहोंकी तत्तद् मन्त्रोंसे स्थापना और पूजा करके होम करे तथा शास्त्रानुसार वृषभकी माता गौओंकी पूजा करे ॥ ३७॥ बछड़ा और बछड़ीको ले जाकर उन्हें कङ्कण बाँधे और वैवाहिक विधानकी विधिके अनुसार स्तम्भमें उन्हें बाँध दे ॥ ३८ ॥
स्नापयेच्च वृषं वत्सीं रुद्रकुम्भोदकेन च गन्धमाल्यैश्च सम्पूज्य कारयेच्च प्रदक्षिणाम् ॥ ३ ९ ॥
त्रिशूलं दक्षिणे पार्श्वे वामे चक्रं प्रदापयेत् । तं विमुच्याञ्जलिं बद्ध्वा पठेन्मन्त्रमिमं सुतः ॥ ४० ॥
धर्मस्त्वं वृषरूपेण ब्रह्मणा निर्मितः पुरा । तवोत्सर्गप्रदानेन तारयस्व भवार्णवात् ॥ ४ ९ ॥
फिर बछड़ा और बछड़ीको रुद्रकुम्भके जलसे स्नान कराये , गन्ध और माल्यसे सम्यक् पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करे ॥ ३ ९ ॥
तदनन्तर वृषके दक्षिणभागमें त्रिशूल और वामपार्श्वमें चक्र चिह्नित करे तब उसे छोड़ते हुए हाथ जोड़कर पुत्र इस मन्त्रको पढ़े- ॥ ४० ॥
पूर्वकालमें ब्रह्माके द्वारा निर्मित तुम वृषरूपी धर्म हो , तुम्हारे उत्सर्ग करनेसे तुम भवार्णवसे पार लगाओ ॥ ४ ९ ॥
इति मन्त्रान्नमस्कृत्य वत्सं वत्स समुत्सृजेत् । वरदोऽहं सदा तस्य प्रेतमोक्षं ददामि च ॥ ४२ ॥
तस्मादेष प्रकर्तव्यस्तत्फलं जीवतो भवेत् । अपुत्रस्तु स्वयं कृत्वा सुखं याति परां गतिम् ॥ ४३ ॥
ग्रहणद्वितये कार्तिकादौ शुभे मासे चोत्तरायणगे रवौ । शुक्लपक्षेऽथवा कृष्णे द्वादश्यादि तिथौ तथा ॥ ४४ ॥
पुण्यतीर्थेऽयनद्वये विषुवद्वितये चापि वृषोत्सर्ग समाचरेत् ॥ ४५ ॥ चैव इस मन्त्रसे नमस्कार करके बछड़ा और बछड़ीको छोड़ दे । ( भगवान् विष्णुने कहा - इस प्रकार जो वृषोत्सर्ग करता है ) मैं सदा उसे वर प्रदान करता हूँ और प्रेतको मोक्ष प्रदान करता हूँ ॥ ४२ ॥
अतः वृषोत्सर्गकर्म अवश्य करना चाहिये । ( अपनी ) जीवितावस्थामें भी वृषोत्सर्ग करनेपर वही फल प्राप्त होता है । पुत्रहीन मनुष्य तो स्वयं
वृषोत्सर्ग करके सुखपूर्वक परम गतिको प्राप्त करता है ॥ ४५ ॥
कार्तिक आदि शुभ महीनों में , सूर्यके उत्तरायण होनेपर , शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्षकी द्वादशी आदि तिथियोंमें , सूर्य - चन्द्र ग्रहण कालमें , पवित्र तीर्थमें दोनों अवन - संक्रान्तियों ( मकर - कर्क ) में और विषुषत् संक्रान्तियों ( मेष - तुला ) में वृपोत्सर्ग करना चाहिये ॥ ४४-४५ ॥
दानैः शुभे लग्ने मुहूर्ते च शुचौ देशे समाहितः ब्राह्मणं तु समाहूय विधिज्ञ शुभलक्षणम् ॥ ४६ ॥
प्रकुयदिहशोधनम् पूर्ववत् सकलं कृत्यं कुर्यान्द्रोमादिलक्षणम् ॥ ४७ ।।
जोमैस्तथा शुभ लग्न और मुहूर्तमें पवित्र स्थानमें समाहितचित्त होकर विधि जाननेवाले शुभ लक्षणों से युक्त ब्राह्मणको बुलाकर जप - होम तथा दानसे अपनी देहको पवित्र करके पूर्वोक्त रीतिसे सभी होमादि कृत्योंका सम्पादन करना चाहिये ॥ ४६-४७ ॥
शालग्रामं च संस्थाप्य वैष्णवं श्राद्धमाचरेत् । आत्मश्राद्धं ततः कुर्याद्दद्यादानं द्विजन्मने ॥ ४८ ॥
एवं यः कुरुते पक्षिन्नपुत्रस्यापि पुत्रवान् । सर्वकामफलं तस्य वृषोत्सर्गात प्रजायते ॥ ४ ९ ॥
अग्निहोत्रादिभिर्यज्ञैदर्दानैश्च विविधैरपि । न तां गतिमवाप्नोति वृषोत्सर्गेण यां लभेत् ॥ ५० ॥
शालग्रामकी स्थापना करके वैष्णवश्राद्ध करना चाहिये । तदनन्तर अपना श्राद्ध करे और ब्राह्मणोंको दान दे ॥४८ ॥
हे पक्षिन् । अपुत्रवान् अथवा पुत्रवान् जो भी इस प्रकार वृषोत्सर्ग करता है , ( उस वृषोत्सर्गस ) उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं ॥ ४ ९ ॥
अग्निहोत्रादि यज्ञोंसे और विविध दानोंसे भी वह गति नहीं होती जो वृषोत्सर्गसे प्राप्त होती है ॥ ५० ॥
बाल्ये कौमारे पौगण्डे यौवने वार्धके कृतम् । यत्पापं तद्विनश्येत वृषोत्सर्गान्न संशयः ॥ ५१ ॥
मित्रद्रोही कृतघ्नक्ष सर्वप्रयत्नेन तस्मात् गुरुतल्पगः । ब्रह्मा हेमहारी च वृषोत्सर्गात् प्रमुच्यते ॥ ५२ ।।
समाचरेत् । वृषोत्सर्गसमं पुण्यं नास्ति तार्क्ष्य जगत्त्रये ॥ ५३ ॥
बाल्यावस्था , कौमार , पौगण्ड , यौवन और वृद्धावस्थामें किया गया जो पाप है , वह सब वृपोत्सर्गसे नष्ट हो जाता है , इसमें संशय नहीं है ॥५१
॥ मित्रद्रोही , कृतघ्र , सुरापान करनेवाला , गुरुपत्नीगामी , ब्रह्महत्यारा और स्वर्णकी चोरी करनेवाला भी वृपोत्सर्गसे पापमुक्त हो जाता है ( ये लोग महापापी कहे गये हैं ) ॥ ५२ ॥
इसलिये हे तार्क्ष्य । सभी प्रयत्न करके वृपोत्सर्ग करना चाहिये । तीनों लोकमें वृषोत्सर्गक समान कोई पुण्यकार्य नहीं है ॥ ५३ ॥
पतिपुत्रवती नारी द्वयोरग्रे मृता यदि । वृषोत्सर्ग नैव कुर्याद्दद्याद् गां च पयस्विनीम् ॥ ५४ ॥
वृषभं वाहयेद्यस्तु स्कन्धे पृष्ठे च खेचर स पतेन्नरके घोरे यावदाभूतसम्प्लवम् ॥ ५५ ॥
मुष्टियष्टिभिः । स नरः कल्पपर्यन्तं भुनक्ति यमयातनाम् ॥ ५६ ॥
वृषभं ताडयेद्यस्तु निर्दयो पति और पुत्रवाली स्त्री यदि उन दोनोंके सामने मर जाय तो उसके उद्देश्यसे वृषोत्सर्ग नहीं करना चाहिये , सुरापी वृषयज्ञं
अपितु दूध देनेवाली गायका दान करना चाहिये ॥ ५४॥ हे गरुड ! जो व्यक्ति ( वृपोत्सर्गवाले ) वृषभको कन्धे अथवा पीठपर भार ढोनेके काममें प्रयोग करता है , वह प्रलयपर्यन्त घोर नरकमें निवास करता है ॥ ५५ ॥
जो निर्दयी व्यक्ति मुट्ठी ( मुक्के ) अथवा लकड़ीसे वृषभको मारता है , वह एक कल्पतक यमयातनाको भोगता है ॥५६ ॥
एवं कृत्वा वृषोत्सर्ग कुर्याच्छ्राद्धानि षोडश । सपिण्डीकरणादर्वाक् तदहं कथयामि ते ॥ ५७ ॥
स्थाने द्वारेऽर्धमार्गे च चितायां शवहस्तके । अस्थिसंचयने षष्ठो दश पिण्डा दशाह्निकाः ॥ ५८ ॥
मलिनं षोडशं चैतत् प्रथमं परिकीर्तितम् । अन्यच्च षोडशं मध्ये द्वितीयं कथयामि ते ॥ ५ ९
॥ इस प्रकार वृषोत्सर्ग करके सपिण्डीकरणके पूर्व षोडश श्राद्धोंको करना चाहिये । वह मैं तुमसे कहता हूँ ॥ ५७ ॥
मृतस्थानमें , द्वारपर , अर्धमार्गमें , चितामें , शवके हाथमें और अस्थिसञ्चयमें इस प्रकार छः पिण्ड प्रदान करके दस दिनतक दशगात्रके ( दस ) पिण्डोंको देना चाहिये ॥ ५८ ॥
यह प्रथम मलिनषोडशी श्राद्ध कहा जाता है और दूसरा मध्यमें किया जानेवाला मध्यमषोडशी कहा जाता है उसके विषयमें तुमसे कहता हूँ ॥ ५ ९ ॥
प्रथमं विष्णवे दद्याद् द्वितीयं श्रीशिवाय च । याम्याय परिवाराय तृतीयं पिण्डमुत्सृजेत् ॥ ६० ॥
चतुर्थ सोमराजाय रुद्राय चाष्टमं दद्यान्नवमं पुरुषाय हव्यवाहाय पञ्चमम् । कव्यवाहाय षष्ठं च दद्यात् कालाय सप्तमम् ॥ ६१ ॥
च । प्रेताय दशमं चैवैकादशं विष्णवे नमः ॥ ६२ ॥
द्वादशं ब्रह्मणे दद्याद् विष्णवे च त्रयोदशम् । चतुर्दशं शिवायैव यमाय दशपञ्चकम् ॥ ६३ ॥ ह
दद्यात् तत्पुरुषायैव पिण्डं षोडशकं खग । मध्यं षोडशकं प्राहुरेतत् तत्त्वविदो जनाः ॥ ६४ ॥
द्वादश प्रतिमासेषु पाक्षिकं च त्रिपाक्षिकम् । न्यूनषाण्मासिकं पिण्डं दह्यान्यूनाब्दिकं तथा ॥ ६५ ॥
उत्तमं षोडशं चैतन्मया ते परिकीर्तितम् । श्रपयित्वा चरुं तार्क्ष्य कुर्यादेकादशेऽहनि ॥ ६६ ॥
मध्यषोडशीमें ( मलिनषोडशीकी भाँति ही सोलह पिण्ड होते हैं ) पहला पिण्ड भगवान् विष्णुको , दूसरा शिव तथा तीसरा सपरिवार यमको प्रदान करे । चौथा पिण्ड सोमराज , पाँचव हव्यवाह ( हव्यको वहन करनेवाले अग्नि ) , छठा कव्यवाह ( कव्य वहन करनेवाले अग्नि ) तथा सातवाँ पिण्ड कालको प्रदान करे । आठवाँ पिण्ड रुद्रको , नवाँ पुरुषको , दसवाँ प्रेतको ग्यारहवाँ पिण्ड विष्णुको प्रदान करे । बारहवाँ पिण्ड ब्रह्माको , तेरहवाँ विष्णुको , चौदहवाँ शिवको , पंद्रहवाँ यमको और सोलहवाँ पिण्ड तत्पुरुषके उद्देश्यसे देना चाहिये । हे खग तत्त्वविद् लोग इसे मध्यमषोडशी कहते हैं ॥ ६०-६४ ॥
तदनन्तर प्रतिमासके बारह , पाक्षिक , त्रिपाक्षिक , ऊनपाण्मासिक और ऊनाब्दिक - इन श्राद्धोंको उत्तमषोडशी कहा जाता है । इनके विषयमें मैंने तुम्हें बताया हे तार्क्ष्य इनको ग्यारहवें दिन चरु बनाकर करना चाहिये ॥ ६५-६६ ।।
चत्वारिंशत् तथैवाष्टी श्राद्धं प्रेतत्वनाशनम् । यस्य जातं विधानेन स भवेत् पितृपंक्तिभाक् ॥ ६७ ॥
पितृपंक्तिप्रवेशार्थ कारयेत् षोडशत्रयम् । एतच्छ्राद्धविहीनश्चेत् प्रेतो भवति सुस्थिरम् ॥ ६८ ॥
यावत्र दीयते श्राद्धं षोडशत्रयसंज्ञकम् । स्वदत्तं परदत्तं च तावन्त्रैवोपतिष्ठते ॥ ६ ९ ।।
ये अड़तालीसा प्रेतत्वको नष्ट करनेवाले हैं । जिस मृतकके उद्देश्यसे ये अड़तालीस श्राद्ध किये जाते हैं , वह पितरोंकी पंक्तिके योग्य हो जाता है ॥६७ ।
इसलिये पितरोंकी पंक्तिमें प्रवेश दिलाने के लिये पोडशत्रयी ( मलिन , मध्यम तथा उत्तमपोडशी ) करनी चाहिये इन श्राद्धोंसे विहीन मृतकका प्रेतत्व सुस्थिर हो जाता है और जबतक षोडराजयसंज्ञक श्राद्ध नहीं किये जाते , तबतक वह प्रेत अपने द्वारा अथवा दूसरेके द्वारा दी गयी कोई वस्तु प्राप्त नहीं करता ।। ६८-६९ ।।
तस्मात् पुत्रेण कर्तव्यं विधिना षोडशत्रयम् । भर्तुर्वा कुरुते पत्नी तस्याः श्रेयो हानन्तकम् ॥ ७० ॥
सम्परेतस्य या पत्युः कुरुते चौर्ध्वदैहिकम् । क्षयाहं पाक्षिकं श्राद्धं सा सतीत्युच्यते मया ॥ ७ ९ ॥
इसलिये पुत्रको विधानपूर्वक पोडशत्रयीका अनुष्ठान करना चाहिये । पत्नी यदि अपने पतिके उद्देश्यसे इन श्राद्धोंको करती है तो उसे अनन्त श्रेयकी प्राप्ति होती है ॥ ७० ॥
जो स्त्री अपने मृत पतिकी और्ध्वदैहिक क्रिया - क्षयाह श्राद्ध ( वार्षिक श्राद्ध ) तथा पाक्षिक श्राद्ध ( महालय श्राद्ध करती है , वह मेरे द्वारा सती कही गयी है ॥ ७१ ॥
उपकाराय पतिव्रता । जीवितं सफलं तस्या या मृतं स्वामिनं भजेत् ॥ ७२ ॥
सा भर्तुजवत्येषा अथ कश्चित् प्रमादेन म्रियते वह्निवारिभिः । संस्कारप्रमुखं कर्म सर्व कुर्याद्यथाविधि ॥ ७३ ॥
१. मलिनपोडशीके सोलह , मध्यमषोडशीके सोलह तथा उत्तमषोडशीके सोलह - इन्हें मिलाकर ४८ कहे जाते हैं । बारहवाँ अध्याय १७३ प्रमादादिच्छया वापि नागाद्वा म्रियते यदि पक्षयोरुभयोर्नाग पञ्चमीषु प्रपूजयेत् ॥ ७४ ॥
कुर्यात् पिष्टमयीं लेख्यां नागभोगाकृतिं भुवि । अर्चयेत् तां सितैः पुष्पैः सुगन्धैश्चन्दनेन च ॥ ७५ ॥
जो स्त्री पतिके उपकारार्थ पूर्वोक्त श्राद्धोंका अनुष्ठान करनेके लिये जीवन धारण करती है और मरे हुए अपने पतिकी श्राद्धादिरूपसे सेवा करती है , वह पतिव्रता है और उसका जीवन सफल है ॥ ७२ ॥
यदि कोई प्रमादसे , आगसे जलकर अथवा जलमें डूबकर मरता है , उसके सभी संस्कार यथाविधि करने चाहिये । यदि प्रमादसे , स्वेच्छासे अथवा सर्पके द्वारा मृत्यु हो जाय तो दोनों पक्षोंकी पञ्चमी तिथिको नागकी पूजा करनी चाहिये ॥ ७३-७४ ।
पृथ्वीपर पीठीसे फणकी आकृतिवाले नागकी रचना करके श्वेत पुष्पों तथा सुगन्धित चन्दनसे उसकी पूजा करनी चाहिये ॥ ७५ ॥
प्रदद्याद् धूपदीपौ च तण्डुलांश्च तिलान् क्षिपेत् । आमपिष्टं च नैवेद्यं क्षीरं च विनिवेदयेत् ॥ ७६ ॥
सौवर्ण शक्तितो नागं गां च दद्याद् द्विजन्मने । कृताञ्जलिस्ततो ब्रूयात् प्रीयतां नागराडिति ॥ ७७ ॥
धूप और दीप देना चाहिये तथा तण्डुल और तिल चढ़ाना चाहिये । कच्चे आटेका नैवेद्य और दूध अर्पित करना चाहिये ॥ ७६ ॥
शक्तिके अनुसार सुवर्णका नाग और गौ ब्राह्मणको दान करना चाहिये । तदनन्तर हाथ जोड़ करके ' नागराज प्रसन्न हों - इस प्रकार कहना चाहिये ॥ ७७ ॥
पुनस्तेषां प्रकुर्वीत नारायणबलिं क्रियाम् । तया लभन्ते स्वर्वासं मुच्यन्ते सर्वपातकैः ॥ ७८ ॥
एवं सर्वक्रियां कृत्वा घटं सान्नं जलान्वितम् दद्यादाब्दं यथासंख्यान् पिण्डान् वा सजलान् क्रमात् ॥ ७ ९ ॥
एवमेकादशे कृत्वा कुर्यात् सापिण्डनं ततः । शव्यापदानां दानं च कारयेत् सूतके गते ॥ ८० ॥
इति गरुडपुराणे सारोद्धारे एकादशाहविधिनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
पुनः उन जीवोंके उद्देश्यसे नारायणबलिकी क्रिया करनी चाहिये । ऐसा करनेसे मृत व्यक्ति सभी पातकोंसे मुक्त हो स्वर्गको प्राप्त होते हैं ॥ ७८ ॥
इस प्रकार सम्पूर्ण क्रिया करके एक वर्षतक अन्न और जलके सहित घटका दान करना चाहिये अथवा संख्यानुसार जलके सहित पिण्डदान करना चाहिये ॥ ७ ९ ॥
इस प्रकार ग्यारहवें दिन श्राद्ध करके सपिण्डीकरण करना चाहिये और सूतक बीत जानेपर शय्यादान और पददान करना चाहिये ॥ ८० ॥ ॥
इस प्रकार गरुडपुराण के अन्तर्गत सारोद्धारमें ' एकादशाहविधिनिरूपण ' नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
Incomplete क्रमश