Garur puran 13th chapter

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                        सारोद्धार   तेरहवाँ अध्याय


 अशौचकालका निर्णय , अशौचमें निषिद्ध कर्म , सपिण्डीकरणश्राद्ध , पिण्डमेलनकी प्रक्रिया , शय्यादान , पददान तथा गया श्राद्धकी महिमा

 गरुड उवाच 

सपिण्डनविधिं ब्रूहि सूतकस्य च निर्णयम् । शय्यापदानां सामग्री तेषां च महिमां प्रभो ॥ १ ॥

 गरुडजीने कहा - हे प्रभो । सपिण्डनकी विधि , सूतकका निर्णय और शय्यादान तथा पददानकी सामग्री एवं उनकी महिमाके विषयमें कहिये ॥ १ ॥ 

श्रीभगवानुवाच 

शृणु तार्क्ष्य प्रवक्ष्यामि सापिण्ड्याद्यखिलां क्रियाम् प्रेतनाम परित्यज्य यया पितृगणे विशेत् ॥ २ ॥

 न पिण्डो मिलितो होषां पितामहशिवादिषु । नोपतिष्ठन्ति दानानि पुत्रैर्दत्तान्यनेकधा ॥ ३ ॥ 

श्रीभगवान्ने कहा- हे तार्क्ष्य सपिण्डीकरण आदि सम्पूर्ण क्रियाओंके विषय में बतलाता हूँ , जिसके मृत प्राणी प्रेत नामको छोड़कर पितृगणमें प्रवेश करता है , उसे सुनो ॥ २ ॥

 जिनका पिण्ड रुद्रस्वरूप पितामह आदिके पिण्डोंमें नहीं मिला दिया जाता , उनको पुत्रोंके द्वारा दिये गये अनेक प्रकारके दान प्राप्त नहीं होते ॥ ३ ॥

 अष्टमे अशुद्धः स्यात्सदा पुत्रो न शुद्धयति कदाचन सूतकं न निवर्तेत सपिण्डीकरणं विना ॥ ४ ॥ 

तस्मात्पुत्रेण कर्तव्यं सूतकान्ते सपिण्डनम् । सूतकान्तं प्रवक्ष्यामि सर्वेषां च यथोचितम् ॥ ५ ॥ 

ब्राह्मणस्तु दशाहन क्षत्रियो द्वादशेऽहनि । वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति ॥ ६ ॥ 

दशाहेन सपिण्डास्तु शुद्धयन्ति प्रेतसूतके । त्रिरात्रेण सकुल्यास्तु स्नात्वा शुद्धयन्ति गोत्रजाः ॥ ७ ॥ 

चतुर्थे दशरात्रं स्यात्यग्निशाः पुंसि पञ्चमे षष्ठे चतुरहः प्रोक्तं सप्तमे च दिनत्रयम् ॥ ८ ॥

 दिनमेकं तु नवमे प्रहरद्वयम् । दशमे स्नानमात्रं हि मृतकं जन्मसूतकम् ॥ ९ ॥

 उनका पुत्र भी सदा अशुद्ध रहता है कभी शुद्ध नहीं होता , क्योंकि सपिण्डीकरणके बिना सूतककी निवृत्ति ( समाप्ति ) नहीं होती ॥ ४॥ 

इसलिये पुत्रके द्वारा सूतकके अन्त में सपिण्डन किया जाना चाहिये । मैं सभीके लिये सूतकान्त ( सूतक - समाप्ति ) का यथोचित काल कहूँगा ॥ ५ ॥

 ब्राह्मण दस दिनमें क्षत्रिय बारह दिनमें , वैश्य पंद्रह दिन और शूद्र एक मासमें शुद्ध होता है ॥ ६ ॥

 प्रेतसम्बन्धी सूतक ( मृताशौच ) में सपिण्डी दस दिनमें शुद्ध होते हैं । सकुल्पा ( कुलके लोग ) तीन रातमें शुद्ध होते हैं और गोत्रज स्नानमात्रसे शुद्ध हो जाते हैं ॥ ७॥ 

चौथी पीढ़ीतकके बान्धव दस रातमें , पाँचवी पीढ़ीके लोग छः रातमें , छठी पीढ़ीके चार दिनमें और सातवीं पीढ़ीके तीन दिनमें , आठवीं पीढ़ीके एक दिनमें , नवीं पीढ़ीके दो प्रहरमें तथा दसवीं पीढ़ीके लोग स्नानमात्रसे मरणाशौच और जननाशौचसे शुद्ध हो जाते हैं ॥ ८ - ९ ।। 

 च आचौलात्रैशिकी देशान्तरगतः कश्चिच्छृणुयाद्यो ह्यनिर्दशम् । यच्छेषं दशरात्रस्य तावदेवाशुचिर्भवेत् ॥ १० ।।

 अतिक्रान्ते दशाहे तु त्रिरात्रमशुचिर्भवेत् । संवत्सरे व्यतीते तु स्नानमात्राद्विशुद्ध्यति ॥ ११ ॥

 देशान्तरमें गया हुआ कोई व्यक्ति अपने कुलके जननाशीच या मरणाशौचके विषयका समाचार दस दिनके अंदर सुनता है तो दस रात्रि बीतनेमें जितना समय शेष रहता है , उतने समयके लिये उसे अशौच होता है ॥ १० ॥ 

दस दिन बीत जानेके बाद ( और एक वर्षके पहलेतक ऐसा समाचार मिलनेपर ) तीन राततक अशौच रहता है । संवत्सर ( एक वर्ष ) बीत जानेपर ( समाचार मिले ) तो खानमात्रसे शुद्धि हो जाती है ॥ ११ ॥

 आद्यभागद्वयं यावन्मृतकस्य सूतके । द्वितीये पतिते चाद्यात्सूतकाच्छुद्धिरिष्यते ॥ १२ ॥

 आदन्तजननात्सद्य स्मृता । त्रिरात्रमावतादेशाद् दशरात्रमतः परम् ॥ १३ ॥ 

आजन्मनस्तु चौलान्तं यत्र कन्या विपद्यते सद्यः शौचं भवेत्तत्र सर्ववर्णेषु नित्यशः ॥ १४ ॥ 

मरणाशौचके आदिके दो भागोंके बीतने के पूर्व ( अर्थात् छः दिनतक ) यदि कोई दूसरा अशौच आ पड़े तो आद्य अशौचकी निवृत्तिके साथ ही दूसरे अशौचकी भी निवृत्ति ( शुद्धि ) हो जाती है ॥ १२ ॥

 ( किसी बालककी ) दाँत निकलनेतक ( दाँत निकलनेसे पूर्व ) मृत्यु होनेपर सद्यः ( अर्थात् उसके अन्तिम संस्कारके बाद स्नान करनेपर ) , चूडाकरण ( मुण्डन ) के हो जानेपर एक रात , व्रतबन्ध होनेपर तीन रात और व्रतबन्धके पश्चात् मृत्यु होनेपर दस रातका अशौच होता है ॥ १३ ॥ 

जब किसी भी वर्णकी कन्याकी मृत्यु जन्मसे लेकर सताईस मासकी ततो वाग्दानपर्यन्तं गर्भखायो अवस्थातक हो जाय तो सभी वर्णगि समानरूपसे सद्यः अशीचकी निवृत्ति हो जाती है ॥ १४ ॥

 ततो वाग्दानपर्यन्त यावदेकाहमेव हि । अतः परं प्रवृद्धानां त्रिरात्रमिति निश्चयः।। १५ ।। 

वाक्प्रदाने कृते त्वत्र ज्ञेयं चोभयतस्व्यहम् । पितुर्वरस्य च ततो दत्तानां भर्तुरेव हि ॥ १६ ॥ 

षण्मासाभ्यन्तरे यावद् भवेद्यदि तदा माससमैस्तासां दिवसैः शुद्धिरिष्यते ॥ १७ ॥

 इसके बाद वाग्दानपर्यन्त एक दिनका और इसके बाद अथवा बिना बारदानके भी सयानी कन्याओंकी मृत्यु होनेपर तीन रात्रिका अशौच होता है , यह निश्चित है । वाग्दानके अन्दर कन्याकी मृत्यु होनेपर पितृकुल और वरकुल दोनोंको तीन दिनका तथा कन्यादान हो जानेपर केवल पतिके ही कुल अशीच होता है॥१५-१६ ॥

 छः मासके अंदर गर्भस्राव हो जानेपर जितने माहका गर्भ होता है , उतने ही दिनों में शुद्धि होती है ॥ १७ ॥

 अत ऊर्ध्वं स्वजात्युक्तमाशीचं तासु विद्यते सद्यः शौच सपिण्डानां गर्भस्य पतने सति ।। १८ ।। 

सर्वेषामेव वर्णानां सूतके मृतकेऽपि वा दशाहाच्छुद्धिरित्येष कला शास्त्रस्य निश्चयः ॥ १ ९ ॥ 

आशीर्वाद देवपूजां प्रत्युत्थानाभिवन्दनम् । पर्यङ्के शयनं स्पर्श न कुर्यान्तसूतके ॥ २० ॥ 

इसके बाद अर्थात् छः माहके बाद गर्भस्राव हो तो उस स्त्रीको अपनी जातिके अनुरूप अशीच होता है । गर्भपात होनेपर सपिण्डकी सद्यः ( स्नानोत्तर ) शुद्धि हो जाती है ॥ १८॥ कलियुगमें जनताशौच और मरणाशीचसे सभी वर्णोंकी दिनमें शुद्धि हो जाती है , ऐसा शास्त्रका निर्णय है ॥ १ ९ ॥

 मरणाशौचमें आशीर्वाद , तेरहवाँ अध्याय देवपूजा , प्रत्युत्थान ( आगन्तुकके स्वागतार्थ उठना ) , अभिवादन , पलंगपर शयन अथवा किसी अन्यका स्पर्श नहीं करना चाहिये ॥ २० ॥

 सन्ध्यां दानं जपं होमं स्वाध्यायं पितृतर्पणम् ब्रह्मभोज्यं व्रतं नैव कर्तव्यं मृतसूतके ॥ २१ ॥ 

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं सूतके यः समाचरेत् । तस्य पूर्वकृतं नित्यादिकं कर्म विनश्यति ॥ २२ ॥

 व्रतिनो मन्त्रपूतस्य साग्निकस्य द्विजस्य च ब्रह्मनिष्ठस्य यतिनो न हि राज्ञां च सूतकम् ॥ २३ ॥

 ( इसी प्रकार ) मरणाशौचमें संध्या , दान , जप , होम , स्वाध्याय , पितृतर्पण , ब्राह्मणभोजन एवं व्रत नहीं करना चाहिये ॥ २१ ॥

 जो व्यक्ति मूतकमें नित्य - नैतिक अथवा काम्य कर्म करता है , उसके द्वारा पहले किये गये नित्य नैमित्तिक आदि कर्म विनष्ट हो जाते हैं ॥ २२ ॥ 

व्रती ( ब्रह्मचारी ) , मन्त्रपूत , अग्निहोत्री ब्राह्मण , ब्रह्मनिष्ठ सती और राजा इन्हें सूतक नहीं लगता ।। २३ ।।

 जाते च मृतसूतके । तस्य पूर्वकृतं चान्नं भोज्यं तन्मनुरब्रवीत् ॥ २४ ॥ 

विवाहोत्सवयज्ञेषु सूतके यस्तु गृह्णाति तदज्ञानाम्न दोषभाक् दाता दोषमवाप्नोति याचकाय ददन्नपि ॥ २५ ॥

 प्रच्छाद्य सूतकं यस्तु ददात्यन्त्रं द्विजाय च ज्ञात्वा गृह्णन्ति ये विप्रा दोषभाजस्तु एव हि ॥ २६ ॥

 विवाह , उत्सव अथवा यज्ञमें मरणाशौच हो जानेपर उस अशौचकी प्रवृत्तिके पूर्व बनाया हुआ अन्न भोजन करने योग्य होता है - ऐसा मनुने कहा है ॥ २४ ॥

 सूतक न जाननेके कारण जो व्यक्ति सूतकवाले घरसे अन्नादि कुछ ग्रहण करता है , वह दोषी नहीं होता , किंतु याचकको देनेवाला दाता दोषका भागी होता है ।॥ २५ ॥

 जो सूतकको छिपाकर ब्राह्मणको अन्न देता है , यह दाता तथा सूतकको जानकर भी जो ब्राह्मण सूतकालका भोजन करता है , वे दोनों ही दोषी होते हैं ॥ २६ ॥

 तस्मात् सूतकशुद्धयर्थं पितुः कुर्यात्सपिण्डनम् । ततः पितृगणैः सार्धं पितृलोकं स गच्छति ॥ २७ ॥ 

द्वादशाहे त्रिपक्षे वा षण्मासे वत्सरेऽपि वा । सपिण्डीकरणं प्रोक्तं मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ २८ ॥ 

मया तु प्रोच्यते तार्क्ष्य शास्त्रधर्मानुसारतः । चतुर्णामेव वर्णानां द्वादशाहे सपिण्डनम् ॥ २ ९ ॥ 

तेरहवाँ अध्याय इसलिये सूतकसे शुद्धि प्राप्त करनेके लिये पिताका सपिण्डन - श्राद्ध करना चाहिये । तभी वह मृतक पितृगणों के साथ पितृलोकमें जाता है ॥ २७ ॥

 तत्वदर्शी मुनियोंने बारहवें दिन , तीन पक्षमें , छ : मासमें अथवा एक वर्ष पूर्ण होनेपर सपिण्डीकरण कहा है ॥ २८ ॥

 हे तार्क्ष्य । मैं तो शास्त्रधर्मके अनुसार चारों वर्णोंके लिये बारहवें दिन ही सपिण्डीकरण करनेके लिये कहता हूँ ॥ २ ९ ॥

 अनित्यत्वात्कलिधर्माणां पुंसां चैवायुषः क्षयात् । अस्थिरत्वाच्छरीरस्य द्वादशाहे प्रशस्यते ॥ ३० ॥

 व्रतबन्योत्सवादीनि व्रतस्योद्यापनानि च । विवाहादि भवेन्नैव मृते च गृहमेथिनि ॥ ३१ ॥ 

भिक्षुभिक्षां न गृह्णाति हन्तकारो न गृह्यते । नित्यं नैमित्तिकं लुप्येद्यावत्पिण्डो न मेलितः ॥ ३२ ॥

 कलियुगमें धार्मिक भावनाके अनित्य होनेसे , पुरुषोंकी आयु क्षीण होनेसे और शरीरकी अस्थिरताके कारण बारहवें दिन ही सपिण्डीकरण कर लेना प्रशस्त है ॥ ३० ॥ 

गृहस्थके मरनेपर व्रतबन्ध , उत्सव आदि , व्रत , उद्यापन तथा विवाहादि कृत्य नहीं होते ॥ ३१ ॥

 जबतक पिण्डमेलन नहीं होता ( अर्थात् पितरोंमें पिण्ड मिला नहीं दिया जाता या सपिण्डीकरण श्राद्ध नहीं हो जाता ) तबतक उसके यहाँसे भिक्षु भिक्षा भी नहीं ग्रहण करता , अतिथि उसके यहाँ सत्कार नहीं ग्रहण करता और नित्य - नैमित्तिक कर्मोंका भी लोप रहता है ॥ ३२ ॥ 

कर्मलोपात् प्रत्यवायी भवेत्तस्मात्सपिण्डनम् । निरग्निकः साग्निको वा द्वादशाहे समाचरेत् ॥ ३३ ॥

 यत्फलं सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु यत्फलम् । तत्फलं समवाप्नोति द्वादशाहे सपिण्डनात् ॥ ३४ ॥

 अतः मृतस्थाने गोमयेनोपलेपिते । शास्त्रोक्तेन विधानेन सपिण्डी कारयेत् सुतः ।। ३५ ।। 

कर्मका लोप होनेसे दोषका भागी होता पड़ता है , इसलिये चाहे निरग्रिक हो या साग्रिक ( अग्रिहोत्री ) बारहवें दिन सपिण्डन कर देना चाहिये ॥ ३३॥ 

सभी तीर्थोंमें स्नान आदि करने और सभी यहाँका अनुष्ठान करनेसे जो फल प्राप्त होता है , वही फल बारहवें दिन सपिण्डन करनेसे प्राप्त होता है ॥ ३४॥ 

अतः स्नान करके मृतस्थानमें गोमयसे लेपन करके पुत्रको शास्त्रोकविधिसे सपिण्डन - श्राद्ध करना चाहिये ॥ ३५ ॥

 पाद्यार्थ्याचमनीयाद्यैर्विश्वेदेवांश्च पूजयेत् । कुपित्रे विकिरं दत्त्वा पुनराप उपस्पृशेत् ।। ३६ ।।

 दद्यात्पितामहादीनां श्रीन्पिण्डांच यथाक्रमम् । यसुरुद्रार्करूपाणां चतुर्थं मृतकस्य च ॥ ३७ ।।

 चन्दनैस्तुलसीपत्रैधूपदीपः सुभोजनैः । मुखवासैः सुवस्त्रैश्च दक्षिणाभिश्च पूजयेत् ॥ ३८ ॥ 

पाद्य , अर्घ्य , आचमनीय आदिसे विश्वेदेवांका पूजन करे और असद्गतिके पितरोंके लिये भूमिमें विकिर देकर हाथ - पाँव धोकर पुनः आचमन करे ॥ ३६॥ 

तब वसु , रुद्र और आदित्यस्वरूप पिता , पितामह तथा प्रपितामहको क्रमश : एक - एक अर्थात् तीन पिण्ड प्रदान करे और चौथा पिण्ड मृतकको प्रदान करे ॥ ३७॥ 

चन्दन , तुलसीपत्र , धूप - दीप , सुन्दर भोजन , ताम्बूल , सुन्दर वस्त्र तथा दक्षिणा आदिसे पूजन करे ॥ ३८ ॥ 

प्रेतपिण्डं त्रिधा कृत्वा सुवर्णस्य शलाकया । पितामहादिपिण्डेषु मेलयेतं पृथक्पृथक् ॥ ३ ९ ॥

 पितामह्या समं मातुः पितामहसमं पितुः । सपिण्डीकरणं कुर्यादिति तार्क्ष्य मतं मम ॥ ४० ॥ 

 तदनन्तर सुवर्णकी शलाकासे प्रेतके पिण्डको तीन भागों में विभक्त करके पितामह आदिके पिण्डोंमें पृथक् पृथक् उसका मेलन करे । अर्थात् एक भाग पितामहके पिण्डमें , दूसरा भाग प्रपितामहके पिण्डमें तथा तीसरा भाग वृद्धप्रपितामहके पिण्डमें मिलाये ॥ ३ ९ ॥ 

हे तार्क्ष्य मेरा मत है कि माताके पिण्डका मेलन पितामही आदिके पिण्डके साथ और पिताके पिण्डका मेलन पितामह आदिके पिण्डके साथ करके सपिण्डीकरण - श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिये ॥ ४० ।। तदा मृते पितरि यस्याथ विद्यते च पितामहः । तेन देयास्त्रयः पिण्डाः प्रपितामहपूर्वकाः ॥ ४१ ॥

 तेभ्य पैतृकं पिण्डं मेलयेतं त्रिधा कृतम् । मातर्यग्रे प्रशान्तायां विद्यते च पितामही ॥ ४२ ॥

 मातृकश्राद्धेऽपि कुर्यात्पैतृकवद्विधिः । यद्वा मयि महालक्ष्म्यां तयोः पिण्डं च मेलयेत् ॥ ४३ ॥ 

स्त्रियाः कुर्यात्पतिः सापिण्डनादिकम् । श्वश्र्वादिभिः सहैवाऽस्याः सपिण्डीकरणं भवेत् ।। ४४ ।।

 अपुत्राय भर्त्रादिभिस्त्रिभिः कार्य सपिण्डीकरणं स्त्रियाः । नैतन्मम मतं तार्क्ष्य पत्या सापिण्ड्यमर्हति ॥ ४५ ॥

 एकां चिर्ता समारूढी दम्पती यदि काश्यप । तृणमन्तरतः कृत्वा श्वशुरादेस्तदाचरेत् ॥ ४६ ॥ 

जिसके पिता की मृत्यु हो गयी हो और पितामह जीवित हाँ , उसे प्रपितामहादि पूर्व पुरुषोंको तीन पिण्ड प्रदान करना चाहिये और पितृपिण्डको तीन भागों में विभक्त करके ( प्रपितामह आदि ) उन्होंके साथ मेलन करे । माताकी मृत्यु हो जानेपर पितामही जीवित हो तो माताके सपिण्डन - श्राद्धमें भी पितृ - सपिण्डनकी भाँति प्रपितामही   आदिमें मातृपिण्डका मेलन करना चाहिये अथवा पितृपिण्डको मेरे पिण्ड ( विष्णुजीके ) में और मातृपिण्डको महालक्ष्मीपिण्डमें मिलाये ॥ ४१-४३ ॥

 पुत्रहीन स्त्रीका सपिण्डनादि श्राद्ध उसके पतिको करना चाहिये और उसका सपिण्डीकरण उसकी सास आदिके साथ होना चाहिये ॥ ४४ ॥

 ( एक मतानुसार ) विधवा स्त्रीका सपिण्डीकरण पति , श्वशुर और वृद्ध श्वशुरके साथ करना चाहिये , हे तार्क्ष्य यह मेरा मत नहीं है । विधवा स्त्रीका सपिण्डन पतिके साथ होनेयोग्य है ॥ ४५ ॥

 हे काश्यप यदि पति और पत्नी एक ही चितापर आरूढ़ हुए हों तो तृणको बीचमें रखकर श्वशुरादिके पिण्डके साथ स्त्रीके पिण्डका मेलन करना चाहिये ॥ ४६ ॥ 

एक एव सुतः कुर्यादादौ पिण्डादिकं पितुः । तदूर्ध्वं च प्रकुर्वीत सत्याः स्नानं पुनश्चरेत् ॥ ४७ ॥

 दशाहाभ्यन्तरे सती । तस्या भर्तुर्दिने कार्य शय्यादानं सपिण्डनम् ॥ ४८ ।। 

हुताशं या समारूढा कृत्वा सपिण्डनं तार्क्ष्य प्रकुर्यात्पितृतर्पणम् । उदाहरेत्स्वधाकारं वेदमन्त्रैः समन्वितम् ॥ ४ ९ ॥

 एक चितापर ( माता - पिताका ) दाहसंस्कार किये जानेपर एक ही पुत्र पहले पिताके उद्देश्यसे पिण्डदान करके स्नान करे , तदनन्तर ( अपनी ) सती माताका पिण्डदान करके पुनः स्नान करे ॥ ४७॥

 यदि दस दिनके अन्तर्गत किसी सतीने अग्निप्रवेश किया है तो उसका शय्यादान और सपिण्डन आदि कृत्य उसी दिन करना चाहिये , जिस दिन पतिका किया जाय ॥ ४८ ॥ 

हे गरुड सपिण्डीकरण करनेके अनन्तर पितरोंका तर्पण करे और इस क्रियामें वेदमन्त्रोंसे समन्वित स्वधाकारका उच्चारण करे ॥ ४ ९ ॥ 

अतिथिं भोजयेत्पश्चाद्धन्तकारं सपिण्ड्यां च सर्वदा । तेन तृप्यन्ति पितरो मुनयो देवदानवाः ॥ ५० ॥ 

ग्रासमात्रा भवेद्भिक्षा चतुर्ग्रासं तु पुष्कलम् । पुष्कलानि च चत्वारि हन्तकारो विधीयते ॥ ५१ ॥ 

सपिण्ड्यां विप्र चरणौ पुजयेच्चन्दनाक्षतैः । दानं तस्मै प्रदातव्यमक्षय्यतृप्तिहेतवे ॥ ५२ ॥

 विप्रचरणौ इसके पश्चात् अतिथिको भोजन कराये और हन्तकार प्रदान करे ऐसा करनेसे पितर , मुनिगण , देवता तथा दानव तृप्त होते हैं ॥ ५० ॥ 

भिक्षा एक ग्रासके बराबर होती है , पुष्कल चार ग्रासके बराबर होता है और चार पुष्कलों ( सोलह ग्रास ) का एक हन्तकार होता है ॥ ५१ ॥ 

सपिण्डीकरणमें ब्राह्मणोंके चरणोंकी पूजा चन्दन - अक्षतसे करनी चाहिये और पितरोंकी अक्षयतृसिके लिये ब्राह्मणको दान देना चाहिये ॥ ५२ ॥

 ततश्च वर्यवृत्तिं घृतं चात्रं सुवर्ण रजतं सुगाम् । अश्वं गजं रथं भूमिमाचार्याय प्रदापयेत् ॥ ५३ ॥

 पूजयेन्मन्त्रैः स्वस्तिवाचनपूर्वकम् । कुङ्कुमाक्षतनैवेद्यैर्ग्रहान्देवीं विनायकम् ॥ ५४ ॥

 आचार्यस्तु ततः कुर्यादभिषेकं समन्त्रकम् । बद्ध्वा सूत्रं करे दद्यान्मन्त्रपूतांस्तथाक्षतान् ॥ ५५ ॥

 वर्षभर जीविकाका निर्वाह करनेयोग्य घृत , अन्न , सुवर्ण , रजत , सुन्दर गौ , अश्व , गज , रथ और भूमिका आचार्यको दान करना चाहिये ॥ ५३॥ 

इसके बाद स्वस्तिवाचनपूर्वक मन्त्रोंसे कुङ्कुम , अक्षत और नैवेद्यादिके द्वारा ग्रहों , देवी और विनायकको पूजा करनी चाहिये ॥ ५४॥ 

इसके बाद आचार्य मन्त्रोच्चारण करते हुए ( यजमानका ) अभिषेक करे और हाथमें रक्षासूत्र बाँधकर मन्त्रसे पवित्र अक्षत प्रदान करे ॥ ५५ ॥

 ततश्च वार्यायुधप्रतोदस्तु दण्डस्तु भोजयेद्विप्रान्सिष्टान्त्रैर्विविधैः शुभैः । दद्यात्सदक्षिणां तेभ्यः सजलानान् द्विषड्घटान् ॥ ५६ ।। द्विजभोजनात् । स्पृष्टव्याश्च ततो वर्णैः शुध्येरन् ते ततः क्रमात् ॥ ५७ ॥

 एवं सपिण्डनं कृत्वा क्रियावस्त्राणि सन्त्यजेत् । शुक्लाम्बरधरो भूत्वा शय्यादानं प्रदापयेत् ॥ ५८ ॥ 

तदनन्तर विविध प्रकारके सुस्वादु मिष्टान्नोंसे ब्राह्मणोंको भोजन कराये और फिर दक्षिणासहित अन्न एवं जलयुक्त बारह घट प्रदान करे ॥५६ ॥

 तदनन्तर ब्राह्मणादिको वर्णक्रमसे ( अपनी शुद्धिहेतु ) क्रमश : जल , शस्त्र , कोड़े और डण्डेका स्पर्श करना चाहिये अर्थात् ब्राह्मण जलका , क्षत्रिय शस्त्रका , वैश्य कोड़ेका तथा शूद्र डण्डेका स्पर्श करे । ऐसा करनेसे वे शुद्ध हो जाते हैं ॥ ५७ ॥

 इस प्रकार सपिण्डन श्राद्ध करके क्रिया करते समय पहने गये वस्त्रोंका त्याग कर दे । इसके बाद श्वेतवर्णके वस्त्रको धारण करके शय्यादान करे ॥ ५८ ।। 

शय्यादानं प्रशंसन्ति सर्वे देवाः सवासवाः । तस्माच्छय्या प्रदातव्या मरणे जीवितेऽपि वा ॥ ५ ९ ॥ 

सारदारुमयीं रम्यां सुचित्रैश्चित्रितां दृढाम् । पट्टसूत्रैर्वितनितां हेमपत्रैरलंकृताम् ॥ ६० ॥ ॥

 हंसतूलीप्रतिच्छन्नां शुभशीर्षोपधानिकाम् । प्रच्छादनपटीयुक्तां पुष्पगन्धैः सुवासिताम् ॥ ६ ९ ॥

 दिव्यबन्धैः सुबद्धां च सुविशालां सुखप्रदाम् । शय्यामेवं विधां कृत्वा ह्यास्तृतार्या न्यसेद्भुवि ॥ ६२ ॥ ॥ 

छत्रं दीपालयं रौप्यं चामरासनभाजनम् । भृङ्गार करकादश नकम् ॥ ६३ ।।

शयनस्य भवेत् किञ्चिद्यच्चान्यदुपकारकम् । तत्सर्वं परितस्तस्याः स्वे स्वे स्थाने नियोजयेत् ॥ ६४ ॥ 

  तस्यां संस्थापयेद्धमं हरि लक्ष्मीसमन्वितम् । सर्वाभरणसंयुक्तमायुधाम्बरसंयुतम् ।। ६५ ॥

इन्द्रसहित सभी देवता शय्यादानकी प्रशंसा करते हैं , अतः मृतकके उद्देश्यसे उसकी मृत्युके बाद अथवा जीवन कालमें भी शय्या प्रदान करनी चाहिये ॥ ५ ९ ॥

 शय्या सुदृढ़ काष्ठकी सुन्दर एवं विचित्र चित्रोंसे चित्रित , दृढ़ , रेशमी सूत्रोंसे बिनी हुई तथा स्वर्णपत्रोंसे अलङ्कृत हो ॥ ६० ॥

 श्वेत रुईके गद्दे , सुन्दर तकिये तथा चादरसे युक्त हो एवं पुष्प , गन्ध आदि द्रव्योंसे सुवासित हो ॥ ६१ ॥

 वह सुन्दर बन्धनोंसे भलीभाँति बँधी हुई हो और पर्याप्त विशाल हो तथा सुख प्रदान करनेवाली हो- ऐसी शय्याको बनाकर आस्तरणयुक्त ( कुश या दरी - चादरयुक्त ) भूमिपर रखे ॥ ६२ ॥

 उस शय्याके चारों ओर छाता , चाँदीका दीपालय , चँवर , आसन और पात्र , भृङ्गार ( झारी या कलश ) , करक ( गड्डुआ ) , दर्पण , पाँच रंगोंवाला चंदवा तथा शयनोपयोगी और सभी सामग्रियोंको यथास्थान स्थापित करे ॥ ६३-६४ ॥ 

उस शय्याके ऊपर सभी प्रकारके आभूषण , आयुध तथा वस्त्रसे युक्त स्वर्णकी श्रीलक्ष्मी नारायणकी मूर्ति स्थापित करे ॥ ६५ ॥

   स्त्रीणां च शयने धृत्वा कज्जलालक्तकुङ्कुमम् । वस्त्रं भूषादिकं यच्च सर्वमेव प्रदापयेत् ॥ ६६ ॥ 

सपत्नीकं गन्धपुष्पैरलड्कृतम् । कर्णाङ्गुलीयाभरणैः कण्ठसूत्रैश्च काञ्चनैः ॥ ६७ ॥ 

ततो विप्रं उष्णीषमुत्तरीयं च चोलकं परिधाय  च । स्थापयेत् सुखशव्यायां लक्ष्मीनारायणाग्रतः ॥ ६८ ॥

 सौभाग्यवती स्त्रीके लिये दी जानेवाली शय्याके साथ पूर्वोक्त वस्तुओंके अतिरिक्त कज्जल , महावर , कुङ्कुम , स्त्रियोचित वस्त्र , आभूषण तथा सौभाग्य - द्रव्य आदि सब कुछ प्रदान करे ॥६६ ॥ 

तदनन्तर सपत्नीक  ब्राह्मणको गन्ध - पुष्पादिसे अलङ्कृत करके ब्राह्मणीको कर्णाभरण , अङ्गुलीयक ( अँगूठी ) और सोनेके कण्ठसूत्रसे विभूषित करे ॥ ६७॥ 

उसके बाद ब्राह्मणको साफा , दुपट्टा और कुर्ता पहनाकर श्रीलक्ष्मी नारायण ( मूर्ति ) के आगे सुखशय्यापर बैठाये ॥ ६८ ॥

 कुङ्कुमैः पुष्पमालाभिर्हरिं लक्ष्मी समर्चयेत् । पूजयेल्लोकपालांश्च ग्रहान् देवीं विनायकम् ॥ ६ ९ ॥

 उत्तराभिमुखो भूत्वा गृहीत्वा  कुसुमाञ्जलिम् । उच्चारयेदिमं मन्त्रं विप्रस्य पुरतः स्थितः ॥ ७० ॥ 

यथा कृष्ण त्वदीयास्ति शय्या क्षीरोदसागरे । तथा भूयादशून्येयं मम जन्मनि जन्मनि ॥ ७१ ॥

 कुङ्कुम और पुष्पमाला आदिसे श्रीलक्ष्मी नारायणकी भलीभाँति पूजा करे । तदनन्तर लोकपाल , नवग्रह , देवी और विनायककी पूजा करे ॥ ६ ९ ॥

 उत्तराभिमुख होकर अञ्जलिमें पुष्प लेकर ब्राह्मणके सामने स्थित होकर इस मन्त्रका उच्चारण करे- ॥ ७० ॥

 हे कृष्ण जैसे क्षीरसागरमें आपकी शय्या है , वैसे ही जन्म - जन्मान्तरमें भी मेरी शय्या सूनी न हो ॥ ७१ ॥

 एवं पुष्पाञ्जलिं विप्रे प्रतिमायां हरेः क्षिपेत् । ततः सोपस्करं शय्यादानं संकल्पपूर्वकम् ॥ ७२ ॥ 

दद्याद् व्रतोपदेष्टे च गुरवे ब्रह्मवादिने । गृहाण ब्राह्मणैनां त्वं कोऽदादिति कीर्तयन् ॥ ७३ ॥

 आन्दोलयेद्विजं लक्ष्मी हरि च शयने स्थितम् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रणिपत्य विसर्जयेत् ॥ ७४ ॥ 

इस प्रकार प्रार्थना करके विप्र और श्रीलक्ष्मी - नारायणको पुष्पाञ्जलि चढ़ाकर सङ्कल्पपूर्वक उपस्कर  के साथ व्रतोपदेशक , ब्रह्मवादी गुरुको शय्याका दान दे और कहे- ' हे ब्राह्मण । इस शय्याको ग्रहण -ब्राह्मण ' कोऽदात् ० " यह मन्त्र कहते हुए ग्रहण करे ॥ ७२-७३ । 

इसके बाद शय्यापर स्थित ब्राह्मणको सर्वोपस्करणैर्युक्तं लक्ष्मी और नारायणकी प्रतिमाको हिलाये , तदनन्तर प्रदक्षिणा और प्रणाम करके उन्हें विसर्जित करे ॥ ७४ ॥ 

प्रदद्यादतिसुन्दरम् । शव्यायां सुखसुप्त्यर्थं गृहं च विभवे सति ॥ ७५ ॥ 

 जीवमानः स्वहस्तेन यदि शय्यां ददाति यः । स जीवंश्च वृषोत्सर्ग पर्वणीषु समाचरेत् ॥ ७६ ॥

 इयमेकस्य दातव्या बहूनां  न कदाचन । सा विभक्ता च विक्रीता दातारं पातयत्यधः ॥ ७७ ॥

 यदि पर्याप्त विभव ( धन - सम्पत्ति ) हो तो शय्यामें सुखपूर्वक शयन करनेके लिये सभी प्रकारके उपकरणोंसे युक्त अत्यन्त सुन्दर गृहदान ( घरका दान ) भी करे ॥ ७५ ॥

 जो जीवितावस्थामें अपने हाथसे शय्यादान करता है , वह जीते हुए ही पर्वकालमें वृषोत्सर्ग भी करे ॥ ७६॥ 

एक शय्या एक ही ब्राह्मणको देनी चाहिये । बहुत ब्राह्मणोंको एक शय्या कदापि नहीं देनी चाहिये । यदि वह शय्या विभक्त अथवा विक्रय करनेके लिये दी जाती हैं तो वह दाताके अध : पतनका कारण बनती है ॥ ७७ ॥

 पात्रे   प्रदाय शयनं वाञ्छितं फलमाप्नुयात् । पिता च दाता तनयः परत्रेह च मोदते ॥ ७८ ॥

 पुरन्दरगृहे दिव्ये सूर्यपुत्रालयेऽपि च । उपतिष्ठेत्र सन्देहः शय्यादानप्रभावतः ॥ ७ ९ ॥ 

 विमानवरमारूढः सर्वतीर्थेषु सेव्यमानोऽप्सरोगणैः । आभूतसम्प्लवं यावत्तिष्ठत्यातङ्कवर्जितः ॥ ८० ॥

 यत्पुण्यं सर्वपर्वदिनेषु च तेभ्यश्चाप्यधिकं पुण्यं शय्यादानोद्भवं भवेत् ।। ८१ ।। 

एवं दत्त्वा सुतः शय्यां पददानं प्रदापयेत् । तच्छृणुष्व मयाऽऽख्यातं यथावत् कथयामि ते ॥ ८२ ॥ 

छत्रोपानहवस्त्राणि मुद्रिका चकमण्डलुः । आसनं पञ्चपात्राणि पदं सप्तविधं स्मृतम् ॥ ८३ ।।

 सत्पात्र में शय्यादान करनेसे वाञ्छित फलकी प्राप्ति होती है और पिता तथा दान देनेवाला पुत्र- दोनों इस लोक और परलोकमें मुदित ( सुखी ) होते हैं । ७८ ॥

 शय्यादानके प्रतापसे दाता दिव्य इन्द्रलोकमें अथवा सूर्यपुत्र यमके लोकमें पहुँचता है , इसमें संशय नहीं ॥ ७ ९ ॥ 

श्रेष्ठ विमानपर आरूढ होकर अप्सरागणोंसे सेवित दाता प्रलयपर्यन्त आतङ्करहित होकर स्वर्गमें स्थित रहता है ॥ ८०॥

 सभी तीर्थोंमें तथा सभी पर्वदिनोंमें जो भी पुण्यकार्य किये जाते हैं , उन सभीसे अधिक पुण्य शय्यादानके द्वारा प्राप्त होता है ॥ ८१ ।

 इस प्रकार पुत्रको शय्यादान करके पददान देना चाहिये । पददानके विषयमें मैं तुम्हें यथावत् बतलाता हूँ , सुनो ॥ ८२ ॥

 छत्र ( छाता ) , उपानह ( जूता ) , वस्त्र , मुद्रिका ( अँगूठी ) , कमण्डलु आसन तथा पञ्चपात्र- ये सात वस्तुएँ पद कही गयी हैं ॥ ८३ ॥

 ताम्रपात्रेण दण्डेन  ह्यामात्रैर्भोजनैरपि । अर्घ्ययज्ञोपवीतैश्च पदं सम्पूर्णतां व्रजेत् ॥ ८४ ॥ 

त्रयोदशपदानीत्थं यथाशक्त्या विधाय च । त्रयोदशेभ्यो विप्रेभ्यः प्रदद्याद् द्वादशे ऽहनि ॥ ८५ ॥

 अनेन पददानेन धार्मिका यान्ति  सद्गतिम् । यममार्ग गतानां च पददानं सुखप्रदम् ॥ ८६ ॥

 आतपस्तंत्र वै रौद्रो दह्यते येन मानवः । छत्रदानेन सुच्छाया जायते तस्य मूर्द्धनि ॥ ८७ ॥ 

दण्ड , ताम्रपात्र , आमान्न ( कच्चा अन्न ) , भोजन , अर्घ्यपात्र और यज्ञोपवीतको मिलाकर पदकी सम्पूर्णता होती है ॥ ८४ ॥

 इस प्रकार शक्तिके अनुसार तेरह पददानोंकी व्यवस्था करके बारहवें दिन तेरह ब्राह्मणोंको पददान करना चाहिये ॥ ८५ ॥

 इस पददानसे धार्मिक पुरुष सद्गतिको प्राप्त होते हैं । यममार्गमें गये हुए जीवोंके लिये पददान सुख प्रदान करनेवाला होता है ॥ ८६ ॥ 

वहाँ यममार्गमें अत्यन्त प्रचण्ड आतप ( घाम ) होता है , जिससे मनुष्य जलता है । छत्र ( छाता ) दान करनेसे उसके सिरपर सुन्दर छाया हो जाती है ॥ ८७ ॥  

   अतिकण्टकसंकीर्णे यमलोकस्य वर्त्मनि । अश्वारूढाश्च ते यान्ति ददन्ते यद्युपानही ॥ ८८ ॥ 

शीतोष्णवातदुःखानि तत्र घोराणि खेचर वस्त्रदानप्रभावेण सुखं निस्तरते पचि ॥ ८ ९ ॥ 

जो जूतादान करते हैं , वे अत्यन्त कण्टकाकीर्ण यमलोकके मार्गमें अश्वपर चढ़कर जाते हैं ॥ ८८ ॥ 

हे खेचर ! वहाँ ( यममार्गमें ) शीत , गरमी और वायुसे अत्यन्त घोर कष्ट मिलता है । वस्त्रदान के प्रभावसे जीव सुखपूर्वक उस मार्गको तय कर लेता है ॥ ८ ९ ॥ 

यमदूता महारौद्रा कराला :  कृष्णपिङ्गलाः । न पीडयन्ति तं मार्गे मुद्रिकायाः प्रदानतः ॥ १० ॥

 बहुधर्मसमाकीर्णे निर्वाते तोयवर्जिते । कमण्डलुप्रदानेन तृषितः पिबते जलम् ॥ ९ १ ॥

क्रमशः 


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