सारोद्धार चौदहवाँ अध्याय
विमानगणसंकीर्णाः प्रयान्ति परम पदम। केचिद्धर्मसभायां हि तिष्ठन्ति परमादरात् ॥ ८३ ॥
यमलोक एवं यम - सभाका वर्णन , चित्रगुप्त आदिके भवनोंका परिचय , धर्मराजनगरके चार द्वार , पुण्यात्माओंका धर्मसभामें प्रवेश
गरुड उवाच
यमलोक : कियन्मात्रः कीदृशः केन निर्मितः । सभा च कीदृशी तस्यां धर्म आस्ते च कैः सह ॥ १ ॥
थे धर्ममार्गैर्गच्छन्ति धार्मिका धर्ममन्दिरम् । तान् धर्मानपि मार्गांश्च समाख्याहि दयानिधे ॥ २ ॥
गरुडजीने कहा- हे दयानिधे यमलोक कितना बड़ा है , कैसा है , किसके द्वारा बनाया हुआ है , वहाँकी सभा कैसी है और उस सभामें धर्मराज किनके साथ बैठते हैं ? ॥ १ ॥
हे दयानिधे जिन धर्मोका आचरण करनेके कारण धार्मिक पुरुष जिन धर्ममार्गोंसे धर्मराजके भवनमें जाते हैं , उन धर्मो तथा मागके विषयमें भी आप मुझे बतलाइये ॥ २ ॥
शृणु तार्क्ष्य प्रवक्ष्यामि यदगम्यं नारदादिभिः । तद्धर्मनगरं दिव्यं महापुण्यैरवाप्यते ।। ३ ।
याभ्यनैत्रतयोर्मध्ये पुरं वैवस्वतस्य यत् सर्व । वज्रमर्य दिव्यमभेद्यं तत्सुरासुरैः ॥ ४ ॥
श्रीभगवान्ने कहा- हे गरुड । धर्मराजका जो नगर नारदादि मुनियोंके लिये भी अगम्य है उसके विषय में बतलाता हूँ , सुनो । उस दिव्य धर्मनगरको महापुण्यसे ही प्राप्त किया जा सकता है ॥ ३ ॥
दक्षिण दिशा और नैर्ऋत्यकोणके मध्य वैवस्वत ( चम ) का जो नगर है , वह सम्पूर्ण नगर का बना हुआ है , दिव्य है और असुरी तथा देवताओं अमेध है ॥४ ॥
चतुरस्त्र चतुरमुच्यप्रकारवेष्टितम् । योजनानां सहस्रं हि प्रमाणेन तदुच्यते ॥५ ॥
तस्मिन् पुरेऽस्ति सुभगं चित्रगुप्त मन्दिरम । पञ्चविंशतिसंख्या केर्योजनैविस्तृतायतम ॥ ६ ॥
दशोच्छितं महादिव्य लोहप्राकारवष्तटितम् । प्रतोलीशतसंचार पताकाध्वजभूषितम् ॥७ ॥
विमानगणसंकीर्णं गीतवादित्रनादितं । चित्रित चित्रकुशलैनिर्मित देवशिपिभिः ॥ ८।।
यह पुर चौकोर , चार द्वारो वाला , ऊँची चहारदीवारीसे घिरा हुआ और एक हजार योजन प्रमाणवाला का गया है ॥ ५ ॥
उस पुरणे भित्रका सुन्दर मन्दिर है , जो पच्चीस योजन लम्बाई और चौड़ाई फेला हुआ है ॥६ ॥
उसकी ऊंचाई दस योजन है और वह सोहेकी अत्यन्त दिव्य चहारदीवारीसे घिरा है । यहाँ के लिये सैकड़ों गलियाँ हैं और वह पताकाओं एवं जोंसे विभूषित है ॥ ७॥
वह विमानसमूहये घिरा हुआ है और गायन - वादनसे निनादित है । चित्र बनाने में निपुण चित्रकारों के द्वारा चित्रित है तथा देवताओंकि शिल्पियोंने उसका निर्माण किया है ॥ ८ ॥
उद्यानोपवने चित्रगुप्त जानाविहगकृजितम् । गन्धर्वरपारोभिश समन्तात् , परिवारितम् ।। ९ ।।
तत्सभायां चित्रगुप्त स्वासने परमाद्भुते । संस्थितो गणवेदायुर्मानुषाणां यथातथम ॥ १० ॥
यह उद्यानों और उपवतोंसे रमणीय है , नाना प्रकारके पक्षिगण उसमें कलरव करते हैं तथा यह चारों ओरसे गन्धवों तथा अप्पाराओंसे घिरा है ॥ ९ ॥
उस सभामें अपने परम अद्भुत आसनपर स्थित चित्रगुप्त मनुष्योंकी आयुकी यथावत् गणना करते हैं ॥ १० ॥
न मुह्यति कथंचित् स सुकृते दुष्कृतेऽपि वा । यद्येनोपार्जितं कर्म शुभ वा यदि वाऽशुभम् ।। ११ ।।
तत्सर्व भुखते तत्र चित्रगुप्तस्य शासनात् चित्रगुप्तालयात प्राच्यां ज्वरस्याति महागृहम् ।। १२ ।।
दक्षिणस्यां च शूलस्य लूताविस्फोटयोस्तथा पश्चिमे कालपाश : ध्यादजीर्णस्यारुचेस्तथा ।। १३ ।।
ये मनुष्योंकि पाप और पुण्यका लेखा - जोखा ( अभिलेख ) करनेमें त्रुटि नहीं करते । जिसने जो शुभ अथवा अशुभ कर्म किया है , चित्रगुतकी आजारो उसे उन सबका भोग करना होता है । चित्रगुपके घरके पूरबकी ओर ज्वरका एक बड़ा विशाल घर है और उनके परके दक्षिण शूल , लूता और विस्फोटके घर है तथा पश्चिम कालपाश , अजीर्ण तथा अरुचिके घर है ॥ ११-१३ ॥
उदीच्यां राजरोगोऽस्ति पाण्डुरोगस्तथैव च । ऐशान्य तु शिरोऽतिः स्यादाग्नेय्यामस्ति मूर्च्छना ॥ १४ ॥
अतिसारो मैत्रीते तु वायव्यां शीतदाहकौ । एवमादिभिरन्यैश्च व्याधिभिः परिवारितः ।। १५ ।।
लिखते चित्रगुप्तस्तु मानुषाणां शुभाशुभम् चित्रगुप्तालयाद योजनानां च विंशतिः ।। १६ ।।
पुरमध्ये महादिव्ये धर्मराजस्य मन्दिरम् अस्ति रखमये दिव्ये विधुज्वालाकंवर्चसम् ॥ १७ ॥
( चित्रगुप्तके भरके ) उत्तरकी ओर राजरोग और रोगका घर है , ईशानकोण में शिर : पीडाला और अभिकोणमें मूछका घर है ॥ १४॥
मैत्यकोण में अतिसारका वायव्य कोणमें शीत और दाहका स्थान है । इस प्रकार और भी अन्यान्य व्याधियोंसे चित्रगुप्तका भवन घिरा हुआ है ॥ १५ ॥
चित्रगुप्त मनुष्योंके शुभाशुभ कर्मोको लिखते हैं । चित्रगुप्तके भवनसे बीस योजन आगे नगरके मध्यभागमें धर्मराजका महादिव्य भवन है । यह दिव्य रत्नमय तथा विद्युत्को ज्वालामालाओंसे युक्त और सूर्यके समान देदीप्यमान है ॥ १६-१७ ॥
द्विशतं योजनानां च विस्तारायामतः स्फुटम् । पञ्चाशच्य प्रमाणेन योजनानां समुच्छ्रितम् ॥ १८ ॥
घृतं स्तम्भसहस्त्रैक्ष वैदूर्यमणिमण्डितम् । काञ्चनालङ्कृतं नानाहर्म्यप्रासादसंकुलम् ॥ १ ९ ॥
शारदाधनिभ रुक्मकलशैः सुमनोहरम् । चित्रस्फटिकसोपानं वज्रकुमिशोभितम् ॥ २० ॥
वह दो सौ योजन चौड़ा दो सौ योजन लम्बा और पचास योजन ऊँचा है । हजार स्तम्भोंपर धारण किया गया है , वैदूर्यमणिसे मण्डित है , स्वर्णसे अलंकृत है और अनेक प्रकारके हर्म्य ( धनिकोंके भवन ) और प्रासादगृह ( देवसदन तथा राजसदन ) से परिपूर्ण है ॥ १८-१९ ॥
( वह भवन ) शरत्कालीन मेघके समान उज्ज्वल , निर्मल एवं सुवर्णके बने हुए कलशों से अत्यन्त मनोहर है , उसमें ) चित्र ( बहुरंगी ) रंगके स्फटिकसे बनी हुई सीढ़ियाँ हैं और वह वज्र ( हीरा ) की कुट्टिम ( फर्श ) से सुशोभित है ॥ २० ॥
मुक्ताजालगवाक्षं पताकाध्वजभूषितम् । घण्टानकनिनादाढ्य हेमतोरणमण्डितम् ॥ २१ ॥
नानाऽऽश्चर्यमयं स्वर्णकपाटशतसङ्कुलम् । नानाद्रुमलतागुल्मैर्निष्कण्ठैः सुविराजितम् ॥ २२ ॥
एवमादिभिरन्यैश्च च भूषणैर्भूषितं सदा । आत्मयोगप्रभावैश निर्मितं विश्वकर्मणा ॥ २३ ॥
गवाक्षों ( रोशनदानों ) में मोतियोंके झालर लगे हैं । वह पताकाओं और ध्वजोंसे विभूषित , घण्टा और नगाड़ों से निनादित तथा स्वर्णक बने तोरणोंसे मण्डित है ॥ २१
वह अनेक आधयोंसे परिपूर्ण और स्वर्णनिर्मित सैकड़ों किवाड़ों से युक्त है तथा कण्टकरहित नाना वृक्ष , लताओं एवं गुल्मों ( झाड़ियों ) से सुशोभित है ॥ २२ ॥
इसी प्रकार अन्य भूषणों से भी वह ( भवन ) सदा भूषित रहता है । विश्वकर्माने अपने आत्मयोगके प्रभावसे उसका निर्माण किया है ॥ २३ ॥
सभा दिव्या शतयोजनमायता अकंप्रकाशा भाजिष्णुः सर्वतः कामरूपिणी ॥ २४ ॥
तस्मिन्नस्ति नातिशीता न चात्युष्णा मनसोऽत्यन्तहर्षिणी । न शोको न जरा तस्यां क्षुत्पिपासे न चाप्रियम् ॥ २५ ॥
सर्वे कामाः स्थिता यस्यां ये दिव्या ये च मानुषाः । रसवच्च प्रभूतं च भक्ष्यं भोज्यं च सर्वशः ॥ २६ ॥
उस ( धर्मराजके ) भवनमें सौ योजन लम्बी - चौड़ी दिव्य सभा है जो सूर्यके समान प्रकाशित , चारों ओरसे देदीप्यमान तथा इच्छानुसार स्वरूप धारण करनेवाली है । वहाँ न अधिक ठंडा है , न अधिक गरम । वह मनको अत्यन्त हर्षित करनेवाली है । उसमें रहनेवाले किसीको न कोई शोक होता है , न वृद्धावस्था सताती है , न भूख - प्यास लगती है और न किसीके साथ अप्रिय घटना ही होती है ॥ २४-२५ ॥
देवलोक और मनुष्यलोकमें जितने काम ( काम्य - विषय - अभिलाषाएँ ) हैं , यान्ति सुव्रताः वे सभी वहाँ उपलब्ध हैं । वहाँ सभी तरहके रसोंसे परिपूर्ण भक्ष्य और भोज्य सामग्रियाँ चारों ओर प्रचुर मात्रामें हैं ॥ २६ ॥
रसवन्ति च तोयानि शीतान्युष्णानि चैव हि । पुण्याः शब्दादयस्तस्यां नित्यं कामफलद्रुमाः ॥ २७ ॥
असम्बाधा च सा तार्क्ष्य रम्या कामागमा सभा । दीर्घकालं तपस्तत्वा निर्मिता विश्वकर्मणा ॥ २८ ॥
तामुग्रतपसो यान्ति सुव्रताः सत्वासत्यवादि । शान्ताः संन्यासिनः सिद्धाः पूताः पूतेन कर्मणा ॥ २ ९ ॥
वहाँ सरस , शीतल तथा उष्ण जल भी उपलब्ध है । उसमें पुण्यमय शब्दादि विषय भी उपलब्ध हैं और नित्य मनोवाञ्छित फल प्रदान करनेवाले कल्पवृक्ष भी वहाँ हैं ॥ २७ ॥
हे तार्क्ष्य । वह सभा बाधारहित , रमणीय और कामनाओंको पूर्ण करनेवाली है । विश्वकर्माने दीर्घ कालतक तपस्या करके उसका निर्माण किया है ॥ २८ ॥
उसमें उग्र ( कठोर ) तपस्या करनेवाले , सुव्रती , सत्यवादी , शान्त , संन्यासी , सिद्ध एवं पवित्र कर्म करके शुद्ध हुए पुरुष जाते हैं ॥ २ ९ ॥
सर्वे भास्वरदेहास्तेऽलङ्कृता विरजाऽम्बराः । स्वकृतैः कर्मभिः पुण्यैस्तत्र तिष्ठन्ति भूषिताः ॥ ३० ॥
तस्यां स धर्मो भगवानासनेऽनुपमे शुभे । दशयोजनविस्तीर्णे सर्वरलैः सुमण्डिते ॥ ३१ ॥
उपविष्टः सतां श्रेष्ठश्छत्रशोभितमस्तकः । कुण्डलालङ्कृतः श्रीमान् महामुकुटमण्डितः ॥ ३२ ॥
सर्वालङ्कारसंयुक्तो नीलमेघसमप्रभः । बालव्यजनहस्ताभिरप्सरोभिश्च वीजितः ॥ ३३ ॥
उन सभीका देह तेजोमय होता है । वे आभूषणोंसे अलङ्कृत तथा निर्मल वस्त्रोंसे युक्त होते हैं तथा अपने किये हुए पुण्य कर्मोंके कारण वहाँ विभूषित होकर विराजमान रहते हैं ॥ ३० ॥
दस योजन विस्तीर्ण और सभी प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित उस सभामें अनुपम एवं उत्तम आसनपर धर्मराज विद्यमान रहते हैं ॥ ३१ ॥
वे सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ हैं और उनके मस्तकपर छत्र सुशोभित है तथा कानोंमें कुण्डलोंसे अलंकृत वे श्रीमान् महामुकुटसे सुशोभित हैं । वे सभी प्रकारके अलङ्कारोंसे समन्वित तथा नीलमेघके समान कान्तिवाले हैं । हाथमें चँवर धारण की हुई अप्सराएँ उन्हें पंखा झलती रहती हैं ॥ ३२-३३ ॥
गन्धर्वाणां समूहाश्च सङ्घशश्चाप्सरोगणाः । गीतवादित्रनृत्याद्यैः परितः सेवयन्ति तम् ॥ ३४ ॥
मृत्युना पाशहस्तेन कालेन च बलीयसा चित्रगुप्तेन चित्रेण कृतान्तेन निषेवितः ॥ ३५ ॥
गन्धर्वोके समूह तथा अप्सरागणोंका संघ गायन , वादन और नृत्यादिद्वारा सभी ओरसे उनकी सेवा करते वे सेवित हैं ॥ ३५
हाथमें पाश लिये हुए मृत्यु और बलवान् काल तथा विचित्र आकृतिवाले चित्रगुप्त एवं कृतान्तके द्वारा वे सेवित है ।
पाशदण्डधरैरुग्रैःनिदेशवशवर्तिभिः । आत्मतुल्यबलैर्नानासुभटैः परिवारितः ॥ ३६ ॥
अग्निष्वात्ताश्च पितरः सोमपाश्चोष्यपाश्च ये । स्वधावन्तो बर्हिषदो मूर्ताऽमूर्ताश्च ये खग ॥ ३७ ॥
अर्यमाद्याः पितृगणा मूर्तिमन्तस्तथापरे । सर्वे ते मुनिभिः सार्धं धर्मराजमुपासते ॥ ३८ ॥
अत्रिर्वसिष्ठः पुलहो दक्षः क्रतुरथाङ्गिराः । जामदग्न्यो भृगुश्चैव पुलस्त्यागस्त्यनारदाः ॥ ३ ९ ॥
एते चान्ये च बहवः पितृराजसभासदः । न शक्याः परिसंख्यातुं नामभिः कर्मभिस्तथा ॥ ४० ॥
हाथोंमें पाश और दण्ड धारण करनेवाले , उग्र स्वभाववाले , आज्ञाके अधीन आचरण करनेवाले तथा अपने समान बलवाले नाना सुभटों ( दूतों ) से ( वे धर्मराज ) घिरे रहते हैं ॥ ३६॥
हे खग ! अग्निष्वात्त , सोमप , उष्मप , स्वधावान् , बर्हिषद् , मूर्तिमान् तथा अमूर्तिमान् जो पितर हैं एवं अर्यमा आदि जो पितृगण हैं और जो अन्य मूर्तिमान् पितर हैं वे सब मुनियोंके साथ धर्मराजकी उपासना करते हैं ॥ ३७-३८ ॥
अत्रि , वसिष्ठ , पुलह , दक्ष , क्रतु , अंगिरा , जमदग्निनन्दन परशुराम , भृगु , पुलस्त्य , अगस्त्य , नारद - ये तथा अन्य बहुत - से पितृराज ( धर्मराज ) के सभासद हैं , जिनके नामों और कर्मोंकी गणना नहीं की जा सकती ॥ ३ ९ -४० ।।
व्याख्याभिर्धर्मशास्त्राणां निर्णेतारो यथातथम् सेवन्ते धर्मराजं ते शासनात् परमेष्ठिनः ॥ ४१ ।।
राजानः सूर्यवंशीयाः सोमवंश्यास्तथापरे । सभायां धर्मराजं ते धर्मज्ञाः पर्युपासते ॥ ४२ ॥
ये धर्मशास्त्रों की व्याख्या करके यथावत् निर्णय देते हैं , ब्रह्माकी आज्ञाके अनुसार वे सब धर्मराजकी सेवा करते मान्धाता सगरच हैं ॥ ४१ ॥
उस सभामें सूर्यवंशके और चन्द्रवंशके अन्य बहुत - से धर्मात्मा राजा धर्मराजकी सेवा करते हैं ॥ ४२ ॥
मनुर्दिलीपो मान्धाता सगरश्च भागीरथः । अम्बरीषोऽनरण्यश्च मुचुकुन्दो निमिः पृथुः ॥ ४३
ययातिर्नहुषः पूरुर्दुष्यन्तश्च शिविर्नलः। भरतः शन्तनुः पाण्डुः सहस्रार्जुन एव च ॥ ४४ ॥
एते राजर्षयः पुण्याः कीर्तिमन्तो बहुश्रुताः । इष्ट्वाऽश्वमेधैर्बहुभिर्जाता धर्मसभासदः ॥ ४५ ॥
सभ्यां धर्मराजस्य धर्म एव प्रवर्तते । न तत्र पक्षपातोऽस्ति नानृतं न च मत्सरः ॥ ४६ ॥
सभ्याः सर्वे शास्त्रविदः सर्वे धर्मपरायणाः । तस्यां सभायां सततं वैवस्वतमुपासते ॥ ४७ ।।
इंदृशी सा सभा तार्क्ष्य धर्मराज्ञो महात्मनः । न तां पश्यन्ति ये पापा दक्षिणेन पथा गताः ॥ ४८ ॥
धर्मराजपुरे गन्तुं चतुर्मार्गा भवन्ति च । पापिनां गमने पूर्व स तु ते परिकीर्तितः ॥ ४ ९ ॥
मनु , दिलीप , मान्धाता , सगर , भगीरथ , अम्बरीष , अनरण्य , मुचुकुन्द , निमि , पृथु , ययाति , नहुष , पूरु , दुष्यन्त , शिवि , नल , भरत , शन्तनु , पाण्डु तथा सहस्रार्जुन- ये यशस्वी पुण्यात्मा राजर्षि और बहुत से प्रख्यात राजा बहुत से अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करनेके फलस्वरूप धर्मराजके सभासद हुए हैं ॥ ४३-४५ ॥
धर्मराजकी सभामें धर्मकी हो प्रवृत्ति होती है । न वहाँ पक्षपात है , न झूठ बोला जाता है और न किसीका किसीके प्रति मात्सर्यभाव रहता है । सभी सभासद शास्त्रविद् और सभी धर्मपरायण हैं । वे सदा उस सभामें वैवस्वत यमकी उपासना करते हैं ॥ ४६-४७ ॥
है तार्क्ष्य ! महात्मा धर्मराजकी वह सभा इस प्रकारकी है । जो पापात्मा पुरुष दक्षिण द्वारसे ( वहाँ ) जाते हैं , वे उस सभाको नहीं देख पाते । धर्मराजके पुरमें जानेके लिये चार मार्ग हैं । पापियोंके गमनके लिये मार्ग है उसके विषयमें मैंने तुमसे पहले ही कह दिया ॥ ४८-४९ ॥
पूर्वादिभिस्त्रिभिमर्गियें गता धर्ममन्दिरे । ते वै सुकृतिनः पुण्यैस्तस्यां गच्छन्ति ताज्यृणु ॥ ५० ॥
पूर्वमार्गस्तु तत्रैकः सर्वभोगसमन्वितः । पारिजाततरुच्छायाच्छादितो रत्नमण्डितः ॥५१ ॥
विमानगणसङ्कीर्णो हंसावलिविराजितः । विद्रुमारामसंकीर्ण पीयूषद्रवसंयुतः ॥ ५२ ॥
तेन ब्रह्मर्षयो यान्ति पुण्या राजर्षयोऽमलाः । अप्सरोगणगन्धर्वविद्याधरमहोरगाः ॥ ५३ ॥
पूर्व आदि तीनों मार्गोंसे जो धर्मराजके मन्दिर में जाते हैं , वे सुकृती ( पुण्यात्मा होते हैं और अपने पुण्यकर्मोकि बलसे वहाँ जाते हैं , उनके विषयमें सुनो ॥ ५० ॥
उन मार्गोंमें जो पहला पूर्व मार्ग है वह सभी प्रकारकी सामग्रियोंसे समन्वित है और पारिजात वृक्षकी छायासे आच्छादित तथा रत्नमण्डित है ॥ ५१ ॥
वह मार्ग विमानों के समूहोंसे सङ्कीर्ण और हंसोंकी पंक्तिसे सुशोभित है , विद्रुमके उद्यानोंसे व्याप्त है और अमृतमय जलसे युक्त है ॥ ५२ ॥
उस मार्गसे पुण्यात्मा ब्रह्मर्षि और अमलान्तरात्मा राजर्षि , अप्सरागण , गन्धर्व , विद्याधर वासुकि आदि महान् नाग जाते हैं ॥ ५३ ।।
देवताराधकाश्चान्ये शिवभक्तिपरायणाः । ग्रीष्मे प्रपादानरता माघे काष्ठप्रदायिनः ॥ ५४ ॥
विश्रामयन्ति वर्षासु विरक्तान् दानमानतः । दुःखितस्यामृतं ब्रूते ददते ह्याश्रयं तु ये ॥ ५५ ॥
अन्य बहुत - से देवताओंकी आराधना करनेवाले शिवभक्तिनिष्ठ , ग्रीष्म ऋतु प्रपा ( प्याऊ ) का दान करनेवाले , ( अर्थात् पौशाला लगानेवाले , ) माघमें ( आग सेंकनेके लिये ) लकड़ी देनेवाले , वर्षा ऋतु ( चातुर्मास करनेवाले ) विरक्त संतोंको दान - मानादि प्रदान करके उन्हें विश्राम करानेवाले , दुःखी मनुष्यको अमृतमय वचनोंसे आश्वस्त करनेवाले और आश्रय देनेवाले ॥ ५४-५५ ।।
सत्यधर्मरता ये च क्रोधलोभविवर्जिताः । पितृमातृषु ये भक्ता गुरुशुश्रूषणे रताः ॥ ५६ ॥
भूमिदा गृहदा गोदा विद्यादानप्रदायकाः । पुराणवक्तृश्रोतारः पारायणपरायणाः ॥ ५७ ॥
एते सुकृतिनश्चान्ये पूर्वद्वारे विशन्ति च । यान्ति धर्मसभायां ते सुशीलाः शुद्धबुद्धयः ॥ ५८ ॥
द्वितीयस्तूत्तरो मार्गों महारथशतैर्वृतः । नरयानसमायुक्तो हरिचन्दनमण्डितः ॥ ५ ९ ॥
हंससारससंकीर्णश्चक्रवाकोपशोभितः। अमृतद्रवसम्पूर्णस्तत्र भाति सरोवरः ॥६० ॥
अनेन वैदिका यान्ति तथाऽभ्यागतपूजकाः । दुर्गाभान्वोश्च ये भक्तास्तीर्थस्नाताश्च पर्वसु ॥६१ ॥
ये मृता धर्मसंग्रामेऽनशनेन मृताश्च ये । वाराणस्यां गोगृहे च तीर्थतोये मृता विधे ॥ ६२ ॥
मृता सत्य और धर्ममें रहनेवाले , क्रोध और लोभसे रहित , पिता - मातामें भक्ति रखनेवाले , गुरुकी शुश्रूषामें लगे रहनेवाले , भूमिदान देनेवाले , गृहदान देनेवाले , गोदान देनेवाले , विद्या प्रदान करनेवाले , पुराणके वक्ता , श्रोता और पुराणोंका पारायण करनेवाले- ये सभी तथा अन्य पुण्यात्मा भी पूर्वद्वारसे धर्मराजके नगरमें प्रवेश करते हैं । ये सभी सुशील और शुद्ध बुद्धिवाले धर्मराजकी सभामें जाते हैं । ५६-५८ ॥
( धर्मराजके नगरमें जानेके लिये ) दूसरा उत्तर - मार्ग है , जो सैकड़ों विशाल रथोंसे तथा शिविका आदि नरयानोंसे परिपूर्ण है । वह हरिचन्दनके वृक्षोंसे सुशोभित है ॥ ५ ९ ॥
उस मार्गमें हंस और सारससे व्याप्त , चक्रवाकसे सुशोभित तथा अमृततुल्य जलसे परिपूर्ण एक मनोरम सरोवर है ॥ ६० ॥
इस मार्गसे वैदिक , अभ्यागतोंकी पूजा करनेवाले , दुर्गा और सूर्यके भक्त , पर्वोपर तीर्थ स्नान करनेवाले , धर्मसंग्राममें अथवा अनशन करके मृत्यु प्राप्त करनेवाले , वाराणसीमें , गोशालामें अथवा तीर्थ - जलमें
विधिवत् प्राण त्याग करनेवाले ॥ ६१-६२ ॥
ब्राह्मणार्थे स्वामिकार्ये तीर्थक्षेत्रेषु ये मृताः। ये देवविध्वंसे योगाभ्यासेन ये मृताः ॥ ६३ ॥
सत्पात्रपूजका नित्यं महादानरताश्च ये । प्रविशन्त्युत्तरे द्वारे यान्ति धर्मसभां च ते ॥ ६४ ॥
ब्राह्मणों अथवा अपने स्वामीके कार्यसे तथा तीर्थक्षेत्रमें मरनेवाले और जो देव - प्रतिमा आदिके विध्वंस होनेसे बचाने के प्रयासमें प्राणत्याग करनेवाले हैं , योगाभ्याससे प्राण त्यागनेवाले हैं , सत्पात्रोंकी पूजा करनेवाले हैं तथा नित्य महादान देनेवाले हैं , वे व्यक्ति उत्तरद्वारसे धर्मसभामें जाते हैं ॥ ६३-६४ ॥
तृतीयः पश्चिमो मार्गों रत्नमन्दिरमण्डितः। सुधारससदापूर्णदीर्घिकाभिर्विराजितः।।
ऐरावतकुलोद्भूतमत्तमातङ्गसंकुलः । उच्चैःश्रवसमुत्पन्नहयरत्नसमन्वितः ।। ६६ ।।
सच्छास्त्रपरिचिन्तकाः रत्नमन्दिरमण्डितः । सुधारससदापूर्णदीर्घिकाभिर्विराजितः ॥६५ ॥
एतेनात्मपरा यान्ति सच्छास्त्रपरिचिन्तकाः । अनन्यविष्णुभक्ताश्च गायत्रीमन्त्रजापकाः ॥ ६७ ॥
परहिंसापरद्रव्यपरवादपराङ्मुखाः । स्वदारनिरताः सन्तः साग्निका वेदपाठकाः ॥ ६८ ॥
तीसरा पश्चिमका मार्ग है , जो रत्नजटित भवनोंसे सुशोभित है , वह अमृतरससे सदा परिपूर्ण रहनेवाली बावलियोंसे विराजित है । वह मार्ग ऐरावत- कुलमें उत्पन्न मदोन्मत्त हाथियोंसे तथा उच्चैःश्रवासे उत्पन्न अश्वरनोंसे भरा है ।। ६५-६६ ।
इस मार्ग से आत्मतत्त्ववेत्ता , सत् - शास्त्रोंके परिचिन्तक , भगवान् विष्णुके अनन्य भक्त , गायत्री मन्त्रका जप करनेवाले , दूसरोंकी हिंसा , दूसरोंके द्रव्य एवं दूसरोंकी निन्दासे पराङ्मुख रहनेवाले , अपनी पत्नी में एतेनात्मपरा गरुडपुराण- सारोद्धार चौदहवाँ अध्याय संतुष्ट रहनेवाले , संत , अग्निहोत्री , वेदपाठी ब्राह्मण गमन करते हैं ॥ ६७-६८ ॥
ब्रह्मचर्यव्रतधरा वानप्रस्थास्तपस्विनः । श्रीपादसंन्यासपराः समलोष्टाश्मकाञ्चनाः ॥ ६ ९ ॥
ज्ञानवैराग्यसम्पन्नाः सर्वभूतहिते रताः । शिवविष्णुव्रतकराः कर्मब्रह्मसमर्पकाः ॥ ७० ॥
ॠणेस्त्रीभिर्विनिर्मूक्ताः पंचयज्ञरताः सदा । पितॄणां श्राद्धदातारः काले संध्यामुपासकाः ॥ ७ ९ ॥
नीचसंङ्गविर्मूक्ताः सत्सङ्गतिपरायणाः । ऐतेऽप्सरोगणैर्युक्ता विमानवरसंस्थिताः ॥ ७२ ॥
सुधापानं प्रकुर्वन्तो यान्ति ते धर्ममन्दिरम् । विशन्ति पश्चिमद्वारे यान्ति धर्मसभान्तरे ॥ ७३ ॥
यमस्तानागतान् दृष्ट्वा स्वागतं वदते मुहुः । समुत्थानं च कुरुते तेषां गच्छति सम्मुखम् ॥ ७४ ॥
ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले , वानप्रस्थ आश्रमके नियमोंका पालन करनेवाले , तपस्वी , संन्यास धर्मका पालन करनेवाले तथा श्रीचरण - संन्यासी एवं मिट्टीके ढेले , पत्थर और स्वर्णको समान समझनेवाले , ज्ञान एवं वैराग्यसे सम्पन्न , सभी प्राणियोंके हित साधनमें निरत , शिव और विष्णुका व्रत करनेवाले सभी कर्मोंको ब्रह्मको समर्पित करनेवाले , देव - ऋण , पितृ ऋण एवं ऋषि ऋण- इन तीनों ऋणोंसे विमुक्त , सदा पञ्चयज्ञ में निरत रहनेवाले , पितरोंको श्राद्ध देनेवाले , समयसे संध्योपासन करनेवाले , नीचकी सङ्गतिसे अलग रहनेवाले , सत्पुरुषोंकी
( ( १ ) ब्रह्मयज्ञ ( स्वाध्याय ) , ( २ ) देवयज्ञ ( होम ) , ( ३ ) भूतयज्ञ ( इन्द्रादि देवोसहित विभिन्न प्राणियोंके निमित्त घरके बाहर अन्नकी बलि देना ) ( ४ ) पितृयज्ञ ( पितरोंका तर्पण और श्राद्ध आदि ) और ( ५ ) मनुष्ययज्ञ ( अतिथि सत्कार आदि ) सङ्गतिमें निष्ठा रखनेवाले- ये सभी जीव अप्सराओंके समूहोंसे युक्त श्रेष्ठ विमानमें बैठकर अमृतपान करते हुए धर्मराजके भवनमें जाते हैं और वे उस भवनके पश्चिम द्वारसे प्रविष्ट होकर धर्मसभा पहुंचते हैं ।। ६ ९ -७३ ।।
उन्हें आया हुआ देखकर धर्मराज बार - बार स्वागत सम्भाषण करते हैं , उन्हें उठकर अभ्युत्थान देते हैं और उनके सम्मुख जाते हैं ॥ ७४ ॥
तदा चतुर्भुजो भूत्वा शंखचक्रगदासिभृत् । पुण्यकर्मरतानां च स्नेहान्मित्रवदाचरेत् ॥ ७५ ।।
सिंहासनं च ददते नमस्कारं करोति च । पादार्धं कुरुते पश्चात् पूज्यते चन्दनादिभिः ॥ ७६ ॥
उस समय धर्मराज ( भगवान् विष्णुके समान ) चतुर्भुज रूप और शङ्खचक्रगदा तथा खड्ग धारण करके पुण्य करनेवाले जीवोंके साथ स्नेहपूर्वक मित्रवत् आचरण करते हैं । उन्हें ( बैठनेके लिये ) सिंहासन देते हैं , नमस्कार करते हैं और पाद्य , अर्घ्य आदि प्रदान करके चन्दनादिक पूजा सामग्रियोंसे उनकी पूजा करते हैं ॥ ७५-७६ ॥
नमस्कुर्वन्तु भोः सभ्या ज्ञानिनं परमादरात् । एष मे मण्डलं भित्त्वा ब्रह्मलोकं प्रयास्यति ॥ ७७ ॥
भो भो बुद्धिमतां श्रेष्ठा नरकक्लेशभीरवः । भवद्भिः साधितं पुण्यैर्देवत्वं सुखदायकम् ॥ ७८ ॥
मानुषं दुर्लभं प्राप्य नित्यं यस्तु न साधयेत् । स याति नरकं घोरं कोऽन्यस्तस्मादचेतनः ॥ ७ ९ ॥
अस्थिरेण शरीरेण योऽस्थिरैश्च धनादिभिः । संचिनोति स्थिरं धर्मं स एको बुद्धिमान् नरः ॥ ८० ॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन कर्तव्यो धर्मसंचयः । गच्छध्वं पुण्यवत्स्थानं सर्वभोगसमन्वितम् ॥ ८१ ॥
( यम [ धर्मराज ] कहते हैं- ) हे सभासदो । इस ज्ञानीको परम आदरपूर्वक नमस्कार कीजिये , यह हमारे मण्डलका भेदन करके ब्रह्मलोकमें जायगा । हे बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ और नरककी यातनासे भयभीत रहनेवाले पुण्यात्माओ ! आप लोगोंने अपने पुण्य - कर्मानुष्ठानसे सुख प्रदान करनेवाला देवत्व प्राप्त कर लिया है । दुर्लभ मनुष्ययोनि प्राप्त करके जो नित्य वस्तु - धर्मका साधन नहीं करता , वह घोर नरकमें गिरता है , उससे बढ़कर अचेतन - अज्ञानी और कौन है ? अस्थिर शरीरसे और अस्थिर धन आदिसे कोई एक बुद्धिमान् मनुष्य ही स्थिर धर्मका सञ्चयन करता है । इसलिये सभी प्रकारके प्रयत्नोंको करके धर्मका सञ्चय करना चाहिये । आप लोग सभी भोगोंसे परिपूर्ण पुण्यात्माओंके स्थान स्वर्गमें जायें ॥ ७७-८१ ॥
इतिधर्मवचः श्रुत्वा तं प्रणम्य सभां च ताम् । अमरैः पूज्यमानास्ते स्तूयमाना मुनीश्वरैः ॥ ८२ ॥
विमानगणसंकीर्णाः प्रयान्ति परम पदम। केचिद्धर्मसभायां हि तिष्ठन्ति परमादरात् ॥ ८३ ॥
उषित्वा तत्र कल्पान्तं भुक्त्वा भोगानमानुषान् । प्राप्नोति पुण्यशेषेण मानुष्यं पुण्यदर्शनम् ॥ ८४ ॥
महाधनी च सर्वज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः । पुनः स्वात्मविचारेण ततो याति परां गतिम् ॥ ८५ ॥
एतत् ते कथितं सर्वं त्वया पृष्टं यमालयम् । इदं शृण्वन् नरो भक्त्या धर्मराजसभां व्रजेत् ॥ ८६ ।।
इति गरुडपुराणे सारोद्धारे धर्मराजनगरनिरूपणो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
ऐसा धर्मराजका वचन सुनकर उन्हें और उनकी सभाको प्रणाम करके वे देवताओंके द्वारा पूजित और मुनीश्वरोंद्वारा स्तुत होकर विमानसमूहोंसे परम पदको जाते हैं और कुछ परम आदरके साथ धर्मराजकी सभामें ही रह जाते हैं ।॥ ८२-८३ ॥
और वहाँ एक कल्पपर्यन्त रहकर मनुष्योंके लिये दुर्लभ भोगोंका उपभोग करके ( पुण्यात्मा पुरुष ) शेष पुण्योंके अनुसार पुण्य - दर्शनवाले मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है ॥ ८४ ॥ इस लोकमें वह महान् धनसम्पन्न , सर्वज्ञ तथा सभी शास्त्रों में पारङ्गत होता है और पुनः आत्मचिन्तनके द्वारा परम गतिको प्राप्त करता है ॥ ८५ ॥
( हे गरुड ! ) तुमने यमलोकके विषयमें पूछा था , वह सब मैंने बता दिया , इसको भक्तिपूर्वक सुननेवाला व्यक्ति भी धर्मराजको सभामें जाता है ॥ ८६ ॥
इस प्रकार गरुडपुराण के अन्तर्गत सारोद्धारमें ' धर्मराजनगरनिरूपण ' नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
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