सारोद्धार गरुड पुराण
पंद्रहवां अध्याय
धर्मात्मा जनका दिव्यलोकोंका सुख भोगकर उत्तम कुलमें जन्म लेना , शरीरके व्यावहारिक तथा पारमार्थिक दो रूपोंका वर्णन , अजपाजपकी विधि , भगवत्प्राप्तिके साधनोंमें भक्तियोगकी प्रधानता
गरुड उवाच
धर्मात्मा स्वर्गतिं भुक्त्वा जायते विमले कुले । अतस्तस्य समुत्पत्तिं जननीजठरे वद ॥ १ ॥
यथा विचारं कुरुते देहेऽस्मिन् सुकृती जनः । तथाऽहं श्रोतुमिच्छामि वद मे करुणानिधे ॥ २ ॥
गरुडजीने कहा - धर्मात्मा व्यक्ति स्वर्गक भोगोंको भोगकर पुनः निर्मल कुलमें उत्पन्न होता है , इसलिये माताके गर्भ में उसकी उत्पत्ति कैसे होती है , इस विषय में बताइये ॥ १ ॥
हे करुणानिधे पुण्यात्मा पुरुष इस देहके विषयमें जिस प्रकार विचार करता है , वह मैं सुनना चाहता हूँ , मुझे बताइये ॥ २ ॥
श्रीभगवानुवाच साधु पृष्टं त्वया तार्क्ष्य परं गोप्यं वदामि ते । यस्य विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रजायते ॥ ३ ॥
श्रीभगवान्ने कहा- हे तार्क्ष्य ! तुमने ठीक पूछा है , मैं तुम्हें परम गोपनीय बात बताता हूँ जिसे जान लेनेमात्र से मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ॥ ३ ॥
वक्ष्यामि च शरीरस्य स्वरूपं पारमार्थिकम् । ब्रह्माण्डगुणसम्पन्नं योगिनां धारणास्पदम् ॥ ४ ॥
षट्चक्रचिन्तनं यस्मिन् यथा कुर्वन्ति योगिनः । ब्रह्मरन्थे चिदानन्दरूपध्यानं तथा शृणु ॥ ५ ॥
( पहले ) मैं तुम्हें शरीरके पारमार्थिक स्वरूपके विषय में बतलाता हूँ , जो ब्रह्माण्डके गुणोंसे सम्पन्न है और योगियोंके द्वारा धारण करनेयोग्य है ॥ ४ ॥
इस पारमार्थिक शरीरमें जिस प्रकार योगीलोग षट्चक्रका चिन्तन करते हैं और ब्रह्मरन्ध्रमें सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्मका ( जिस प्रकार ) ध्यान करते हैं , वह सब मुझसे सुनो ॥ ५ ॥
शुचीनां श्रीमतां गेहे जायते सुकृती यथा तथा विधानं नियमं तत्पित्रोः कथयामि ते ॥ ६ ॥
ऋतुकाले नारीणां त्यजेद्दिनचतुष्टयम् । तावन्नालोकयेद्वक्त्रं पापं वपुषि सम्भवेत् ॥ ७ ॥
पुण्यात्मा जीव पवित्र आचरण करनेवाले लक्ष्मीसम्पन्न गृहस्थोंके घरमें जैसे उत्पन्न होता है और उसके पिता एवं माताके विधान तथा नियम जिस प्रकारके होते हैं , उनके विषयमें तुमसे कहता हूँ ॥ ६ ॥
स्त्रियोंके ऋतुकालमें चार दिनतक उनका त्याग कर देना चाहिये ( उनसे दूर रहना चाहिये ) । उतने समयतक उनका मुख भी नहीं देखना चाहिये ; क्योंकि उस समय उनके शरीरमें पापका निवास रहता है ॥ ७ ॥
स्नात्वा सचैलं सा नारी चतुर्थेऽहनि शुध्यति सप्ताहात् पितृदेवानां भवेद्योग्या व्रतार्चने ॥ ८ ॥
सप्ताहमध्ये यो गर्भः स भवेन्मलिनाशयः । प्रायशः सम्भवन्त्यत्र पुत्रास्त्वष्टाहमध्यतः ॥ ९ ॥
युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु । पूर्वसप्तकमुत्सृज्य तस्माद्युग्मासु संविशेत् ॥ १० ॥
घोडशर्तुनिशाः स्त्रीणां सामान्याः समुदाहृताः । या वै चतुर्दशी रात्रिर्गर्भस्तिष्ठति तत्र वै ॥ ११ ॥
गुणभाग्यनिधिः पुत्रस्तदा जायेत धार्मिकः । सा निशा प्राकृतैर्जीवैर्न लभ्येत कदाचन ।। १२ ।।
चौथे दिन वस्त्रोंसहित स्नान करनेके अनन्तर वह नारी शुद्ध होती है तथा एक सप्ताहके बाद पितरों एवं देवताओंके पूजन अर्चन तथा व्रत करनेके योग्य होती है ॥ ८॥
एक सप्ताहके मध्यमें जो गर्भधारण होता है , उससे मलिन मनोवृत्तिवाली सन्तानका जन्म होता है । प्रायः ऋतु - कालके आठवें दिन गर्भाधानसे पुत्रकी उत्पत्ति होती है ॥ ९ ॥ ऋतुकालके अनन्तर युग्म रात्रियों में गर्भाधान होनेसे पुत्र और अयुग्म ( विषम ) रात्रियों में गर्भाधानसे कन्याकी उत्पत्ति होती है , इसलिये पूर्वकी सात रात्रियोंको छोड़कर युग्मरात्रियोंमें समागम करना चाहिये ॥ १०॥
( (1) विश्वरूपके वधसे इन्द्रको लगी हुई ब्रह्महत्याका एक अंश स्त्रियोंको दिये जानेकी कथा तैत्तिरीयसंहिता , रामायण , शान्तिपर्व , बृहत्पराशरस्मृति तथा अनेक पुराणोंमें है । तैत्तिरीयसंहितामें रजस्वलाके साथ वार्तालाप , शयन तथा उसके हाथका अन्न - भक्षण वर्जित किया
गया है । सुश्रुतसंहिता ( चिकित्सास्थान ) के अनुसार रजस्वलागमनसे नेत्र - ज्योति आयु और तेज नष्ट होते हैं । मनु ( ४४१ ) के अनुसार रजस्वलागमनसे प्रता , तेज , बल , चक्षु और आयु क्षीण होते हैं । सुश्रुतसंहिता ( शरीरस्थानम् २।३३ ) के अनुसार रजस्वला स्वीमें प्रथम और द्वितीय दिन गर्भाधान होनेपर उत्पन्न सन्तान प्रसवकालमें और प्रमूतिगृहमें ही मर जाती है और तीसरे दिन गर्भाधानके फलस्वरूप उत्पन्न पुत्र अग्रहीन और अल्पायु होता है । लिङ्गपुराण के अनुसार ऋतुमती स्त्री चौधे दिन गर्भाधान से उत्पन्न पुत्र अल्पामु विद्याहीन , व्रतभ्रष्ट , पतित , परस्त्रीगामी और दरिद होता है । )
स्त्रियोंके रजोदर्शनसे सामान्यतः सौलह रात्रियोंतक ऋतुकाल बताया गया है । चौदहवीं रात्रिको गर्भाधान होनेपर गुणवान , भाग्यवान् और धार्मिक पुत्रकी उत्पत्ति होती है । प्राकृत जीवों ( सामान्य मनुष्यों ) को गर्भाधानके निमित्त उस रात्रिमें गर्भाधानका अवसर प्राप्त नहीं होता ॥ ११-१२ ।।
पञ्चमेऽहनि नारीणां कार्य मधुरभोजनम् । कटु क्षारं च तीक्ष्णं च त्याज्यमुष्णं च दूरतः ॥ १३ ॥
तत्क्षेत्रमौषधीपात्रं बीजं चाप्यमृतायितम् । तस्मिनुप्त्वा नरः स्वामी सम्यक्फलमवाप्नुयात् ॥ १४ ॥
ताम्बूलपुष्पश्रीखण्डैः संयुक्तः शुचिवस्त्रभृत् । धर्ममादाय मनसि सुतल्पं संविशेत् पुमान् ॥ १५ ॥
पाँचवें दिन स्त्रीको मधुर भोजन करना चाहिये । कडुआ , खारा , तीखा तथा उष्ण भोजनसे दूर रहना चाहिये ॥ १३ ॥
तब स्त्रीका वह क्षेत्र ( गर्भाशय ) ओषधिका पात्र हो जाता है और उसमें संस्थापित बीज अमृतकी तरह सुरक्षित रहता है । उस औषधि क्षेत्रमें बीजवपन ( गर्भाधान ) करनेवाला स्वामी अच्छे फल ( स्वस्थ संतान ) को प्राप्त करता है ॥ १४ ॥
ताम्बूल खाकर , पुष्प और श्रीखण्ड ( चन्दन ) से युक्त होकर तथा पवित्र वस्त्र धारण करके मनमें धार्मिक भावोंको रखकर पुरुषको सुन्दर शय्यापर संवास करना चाहिये ॥ १५ ।।
निषेकसमये यादङ्नरचित्तविकल्पना । तादृक्स्वभावसम्भूतिर्जन्तुर्विंशति कुक्षिगः ॥ १६ ॥
चैतन्यं बीजभूतं हि नित्यं शुक्रेऽप्यवस्थितम् । कामश्चित्तं च शुक्रं च यदा होकत्वमाप्नुयात् ॥ १७ ॥
तदा द्रावमवाप्नोति योषिगर्भाशये नरः । शुक्रशोणितसंयोगात्पिण्डोत्पत्तिः प्रजायते ॥ १८ ॥
गर्भाधानके समय पुरुषकी मनोवृत्ति जिस प्रकारकी होती है , उसी प्रकारके स्वभाववाला जीव गर्भमें प्रविष्ट होता है ॥ १६ ॥
बीजका स्वरूप धारण करके चैतन्यांश पुरुषके शुक्रमें स्थित रहता है । पुरुषकी कामवासना , चित्तवृत्ति तथा शुक्र जब एकत्वको प्राप्त होते हैं , तब स्त्रीके गर्भाशय में पुरुष द्रवित ( स्खलित ) होता है , स्त्रीके गर्भाशय में शुक्र और शोणितके संयोगसे पिण्डकी उत्पत्ति होती है ॥ १७-१८ ॥
परमानन्ददः पुत्रो भवेद्गर्भगतः कृती । भवन्ति तस्य निखिलाः क्रियाः पुंसवनादिकाः ॥ १ ९ ॥
जन्म प्राप्नोति पुण्यात्मा ग्रहेषूच्चगतेषु च । तजन्मसमये विप्राः प्राप्नुवन्ति धनं बहु ॥ २० ॥
विद्याविनयसम्पन्नो वर्धते पितृवेश्मनि । सतां संगेन स भवेत्सर्वांगमविशारदः ॥ २१ ॥
दिव्याङ्गनादिभोक्ता स्यात्तारुण्ये दानवान् धनी । पूर्व कृततपस्तीर्थमहापुण्यफलोदयात् ॥ २२ ॥
गर्भ में आनेवाला सुकृतीपुत्र पिता - माताको परम आनन्द देनेवाला होता है और उसके पुंसवन आदि समस्त संस्कार किये जाते हैं ॥ १ ९ ॥
पुण्यात्मा पुरुष ग्रहोंकी उच्च स्थितिमें जन्म प्राप्त करता है । ऐसे पुत्रकी उत्पत्तिके समय ब्राह्मण बहुत सारा धन प्राप्त करते हैं ॥ २० ॥
वह पुत्र विद्या और विनयसे सम्पन्न होकर पिताके घरमें बढ़ता है और सत्पुरुषोंके संसर्गसे सभी शास्त्रों में पाण्डित्य सम्पन्न हो जाता है ॥ २१ ॥
(१. मेष राशिमें सूर्य , वृष राशिमें चन्द्र , मकर राशिमें मङ्गल , कन्या राशिमें बुध , कर्क राशिमें गुरु , मीन राशिमें शुक्र और तुला राशिमें शनि उच्चका होता है ( ताजिकनीलकण्ठी , बृहत्पाराशरहोराशास्त्र )
वह तरुणावस्थामें दिव्य अङ्गना आदिका योग प्राप्त करता है और दानशील तथा धनी होता है । पूर्व में किये हुए तपस्या , तीर्थसेवन आदि महापुण्यकि फलका उदय होनेपर वह नित्य आत्मा और अनात्मा ( अर्थात् परमात्मा और उससे भिन्न पदार्थों ) के विषयमें विचार करने लगता है ॥ २२ ॥
ततश्च यतते नित्यमात्मानात्मविचारणे । अध्यारोपाऽपवादाभ्यां कुरुते ब्रह्मचिन्तनम् ॥ २३ ॥
अस्यासगावबोधाय ब्रह्मणोऽन्वयकारिणः । क्षित्याद्यनात्मवर्गस्य गुणांस्ते कथयाम्यहम् ॥ २४ ॥
क्षितिर्वारि हविर्भोक्ता वायुराकाश एव च स्थूलभूता इमे प्रोक्ताः पिण्डोऽयं पाञ्चभौतिकः ॥ २५ ॥
जिससे उसे यह बोध होता है कि सांसारिक मनुष्य भ्रमवश रस्सीमें सपके आरोपकी भाँति वस्तु अर्थात् सच्चिदानन्द ब्रह्ममें अवस्तु अर्थात् अज्ञानादि जगत् - प्रपञ्चका अध्यारोप करता है । तब अपवाद ( अर्थात् मिथ्याज्ञान या भ्रमज्ञानके निराकरण ) -से रस्सीमें सर्पकी भ्रान्तिके निराकरणपूर्वक रस्सोकी वास्तविकताके ज्ञानके समान ब्रह्मरूपी सत्य वस्तुमें अज्ञानादि जगत् - प्रपञ्चकी मिथ्या प्रतीतिके दूर हो जानेपर और ब्रह्मरूप सत्य वस्तुका सम्यक् ज्ञान हो जानेपर वह उसी सच्चिदानन्द ब्रह्मका चिन्तन करने लगता है ॥ २३ ॥
सांसारिक पदार्थरूप असत् ( अवस्तु ) या अनात्म पदार्थोंसे अन्वित ( या सम्बद्ध ) होनेवाले इस ब्रह्मके समरहित शुद्धस्वरूपके सम्यक् बोधके लिये मैं तुम्हें इसके साथ अन्वित या सम्बद्ध प्रतीत होनेवाले पृथिवो आदि अनात्मवर्गक अर्थात् पञ्चभूतों आदिके गुणोंको बतलाता हूँ ॥ २४॥
पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु तथा आकाश - ये ( पाँच ) स्थूलभूत कहे जाते हैं । यह शरीर इन्हीं पाँच भूतोंसे बनता है , इसीलिये पाञ्चभौतिक कहलाता है ।।२५ ॥
त्वगस्थिनाड्यो रोमाणि मांस चैव खगेश्वर । एते पञ्चगुणा भूमेर्मया ते परिकीर्तिताः ॥ २६ ॥
लाला मूत्रं तथा शुक्रं मज्जा रक्तं च पञ्चमम् । अपां पञ्चगुणाः प्रोक्तास्तेजसोऽपि निशामय ॥ २७ ॥
हे खगेश्वर ! त्वचा , हड्डियाँ , नाडियाँ , रोम तथा मांस - ये पाँच भूमिके गुण हैं , यह मैंने तुम्हें बतलाया है ॥ २६ ॥ लार , मूत्र , वीर्य , मज्जा तथा पाँचवा रक्त - ये पाँच जलके गुण कहे गये हैं । अब तेजके गुणोंको सुनो ॥ २७ ॥
क्षुधा तृष्णा तथाऽऽलस्यं निद्रा कान्तिस्तथैव च तेजः पञ्चगुणं तार्क्ष्य प्रोक्तं सर्वत्र योगिभिः ॥ २८ ॥
आकुञ्चनं धावनं च लंघनं च प्रसारणम् । चेष्टितं चेति पञ्चैव गुणा वायोः प्रकीर्तिताः ॥ २ ९ ॥
घोषश्च्छिद्राणि गाम्भीर्य श्रवणं सर्वसंश्रयः । आकाशस्य गुणाः पञ्च ज्ञातव्यास्ते प्रयत्नतः ॥ ३० ॥
हे तार्क्ष्य योगियोंक द्वारा सर्वत्र क्षुधा , तृषा , आलस्य , निद्रा और कान्ति - ये पाँच गुण तेजके कहे गये है ॥ २८ ॥
सिकुड़ना , दौड़ना , लाँघना , फैलाना तथा चेष्टा करना- ये पाँच गुण वायुके कहे गये हैं ॥ २ ९ ॥
घोष ( शब्द ) , छिद्र , गाम्भीर्य , श्रवण और सर्वसंश्रय ( समस्त तत्वोंको आश्रय प्रदान करना ) - ये पाँच गुण तुम्हें प्रयत्नपूर्वक आकाशके जानने चाहिये ॥ ३० ॥
मनो बुद्धिरहंकारश्चित्तं चेति चतुष्टयम् । अन्तःकरणमुद्दिष्टं पूर्वकर्माधिवासितम् ॥ ३१ ॥
श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा घ्राणं ज्ञानेन्द्रियाणि च वाक्याणिपादपायूपस्थानि कर्मेन्द्रियाणि च ॥ ३२ ॥
दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्चिवह्नीन्द्रोपेन्द्रमित्रकाः । ज्ञानकर्मेन्द्रियाणां च देवताः परिकीर्तिताः ॥ ३३ ॥
पूर्वजन्मके कर्मोंसे अधिवासित मन , बुद्धि , अहंकार और चित- यह अन्तःकरणचतुष्टय कहा जाता है ॥ ३१ ॥
श्रोत्र ( कान ) , त्य , जिह्वा , चक्षु ( नेत्र ) , नासिकाये जानेन्द्रियाँ हैं तथा वाक् , हाथ , पैर , गुदा और उपस्थ ये कर्मेन्द्रियाँ हैं ॥ ३२ ॥
दिशा , वायु , सूर्य , प्रचेता और अश्विनीकुमार- ये ज्ञानेन्द्रियोंके तथा वहि , इन्द्र , विष्णु , मित्र तथा प्रजापति- ये कर्मेन्द्रियोंके देवता कहे गये हैं ॥ ३३ ॥
इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्णाख्या तृतीयका । गान्धारी गजजिह्वा च पूषा चैव यशस्विनी ॥ ३४ ॥
अलम्बुषा कुहूश्चापि शंखिनी दशमी तथा पिंडमध्ये स्थिता होताः प्रधाना दश नाडिकाः ॥ ३५ ॥
प्राणोऽपानः समानाख्य उदानो व्यान एव च । नागः कूर्मच कुकलो देवदत्तो धनञ्जयः ॥ ३६ ।।
देहके मध्य में इडा , पिङ्गला , सुषुम्णा , गान्धारी , गजजिह्वा , पूषा , यशस्विनी , अलम्बुषा , कुहू और शंखिनी ये दस प्रधान नाडियाँ स्थित हैं ॥ ३४-३५ ॥
प्राण , अपान , समान , उदान तथा व्यान , नाग , कूर्म , कूकल , देवदत्त और धनञ्जय- ये दस वायु हैं ॥ ३६ ॥
हृदि प्राणो गुदेऽपानः समानो नाभिमण्डले । उदानः कण्ठदेशे स्याद्वयानः सर्वशरीरगः ॥ ३७ ॥
उद्गारे नाग आख्यातः कूर्म उन्मीलने स्मृतः । कृकलः क्षुत्करो ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे ॥ ३८ ॥
न जहाति मृतं वाऽपि सर्वव्यापी धनञ्जयः । कवलैर्भुक्तमन्त्रं हि पुष्टिदं सर्वदेहिनाम् ॥ ३ ९ ॥
हृदय में प्राणवायु गुदामें अपानवायु नाभिमण्डलमें समानवायु , कण्ठदेशमें उदानवायु और सम्पूर्ण शरीरमें व्यानवायु व्याप्त रहते हैं ॥ ३७॥
उद्गार ( डकार या वमन ) में नागवायु हेतु है , जिसके द्वारा उन्मीलन होता है वह कूर्मवायु कहा जाता है । कुकल नामक वायु क्षुधाको उद्दीस करता है । देवदत्त नामक वायु जम्भाई कराता है , सर्वव्यापी धनञ्जयवायु मृत्युके पश्चात् भी मृतशरीरको नहीं छोड़ता । ग्रासके रूपमें खाया हुआ अन्न सभी प्राणियोंके शरीरको पुष्ट करता है ।। ३८-३९ ।
। नयते व्यानको वायुः सारांशं सर्वनाडिषु आहारो भुक्तमात्रो हि वायुना क्रियते द्विधा ॥ ४० ॥
संप्रविश्य गुदे सम्यक्पृथगनं पृथग्जलम् । ऊर्ध्वमग्नेर्जलं कृत्वा कृत्वाऽन्नं च जलोपरि ॥ ४१ ॥
अग्नेश्चाधः स्वयंप्राणः स्थित्वाऽग्निं धमते शनैः । वायुना ध्यायमानोऽग्निः पृथक्किट्टं पृथग्रसम् ॥ ४२ ॥
कुरुते व्यानको वायुर्विष्वक्सम्प्रापयेद्रसम् । द्वारैर्द्वादशभिभिन्नं किट्टं देहावहिः स्रवेत् ॥ ४३ ॥
उस पुष्टिकारक अन्नके सारांशभूत रसको व्यान नामका वायु शरीरकी सभी नाडियोंमें पहुंचाता है । उस वायुके द्वारा भुक्त आहार दो भागों में विभक्त कर दिया जाता है ॥ ४०
गुदाभागमें प्रविष्ट होकर सम्यक् रूपसे अन्न और जलको पृथक् - पृथक् करके अनिके ऊपर जल और जलके ऊपर अन्नको करके अग्निके नीचे वह प्राणवायु स्वतः स्थित होकर उस अग्निको धीरे - धीरे धाँकता है । उसके द्वारा धौंके जानेपर अग्रि किट्ट ( मल ) और रसको पृथक् पृथक् कर देता है ॥ ४१-४२ ॥
तब वह व्यानवायु उस रसको सम्पूर्ण शरीरमें पहुँचाता है । इससे पृथक् किया गया कि ( मल ) शरीरके कर्ण , नासिका आदि बारह छिद्रोंसे बाहर निकलता है ॥ ४३ ॥
कर्णाऽक्षिनासिका जिह्वा दत्ता नाभिर्नखा गुदम् । गुह्यं शिरा वपुलम मलस्थानानि चक्षते ॥ ४४ ॥
एवं सर्वे प्रवर्तन्ते स्वकर्मणि वायवः । उपलभ्यात्मनः सत्त सूर्यास्लोकं यथा जनाः ॥ ५ ॥
कान , आंख , नासिका , जिल्हा , दन्त , नाभि , नख , गुदा , गुहाङ्ग तथा शिराएँ और समस्त शरीर में स्थित छिद्र ) एवं लोम - ये बारह मलके ( निवास ) स्थान हैं ॥ ४४ ॥
जैसे सूर्यसे प्रकाश प्राप्त करके प्राणी अपने - अपने कर्मोमें प्रवृत्त होते हैं , उसी प्रकार ( चैतन्यांशसे सत्ता प्राप्त करके ) ये सभी वायु अपने - अपने कर्ममें प्रवृत्त होते हैं ॥ ४५ ॥
इदानीं नरदेहस्य शृणु रूपद्वर्य खग । व्यावहारिकमेकं च द्वितीयं पारमार्थिकम् ॥ ४६ ।।
तित्रः कोट्योऽर्धकोटी च रोमाणि व्यावहारिके । सप्तलक्षाणि केशाः स्युनंखाः प्रोक्तास्तु विंशतिः ॥ ४७ ॥
द्वात्रिंशदशनाः प्रोक्ताः सामान्याद्विनतासुत । मांस पलसहस्रं तु रक्तं पलशतं स्मृतम् ॥ ४८ ॥
पलानि दश मेदास्तु त्वक्पलानि च सप्ततिः । पलद्वादशकं मज्जा महारक्तं पलत्रयम् ॥ ४ ९ ॥
शुक्रं द्विकुडवं ज्ञेयं कुडवं शोणितं स्मृतम् षष्ट्युत्तरं च त्रिशतमस्थां देहे प्रकीर्तितम् ॥ ५० ॥
नाड्य : स्थूलाश्च सूक्ष्माश्च कोटिशः परिकीर्तिताः । पित्तं पलानि पञ्चाशत्तदर्थं श्लेष्मणस्तथा ॥ ५१ ॥
हे खग । अब नरदेहके दो रूपोंके विषयमें सुनो - एक व्यावहारिक तथा दूसरा पारमार्थिक है ॥ ४६॥
हे विनतासुत व्यावहारिक शरीरमें साढ़े तीन करोड़ रोम , सात लाख केश , बीस नख तथा बत्तीस दाँत सामान्यतः बताये गये हैं । इस शरीरमें एक हजार पल मांस , सौ पल रक्त , दस पल मेदा , सत्तर पल त्वचा , बारह पल मज्जा और तीन पल महारत होता है ॥ ४७-४९ ॥
पुरुषके शरीरमें दो कुडव शुक्र और स्त्रीके शरीरमें एक कुडव शोणित ( रज ) होता है । सम्पूर्ण शरीरमें तीन सौ साठ हड्डियाँ कही गयी है ।५०।।
शरीरमें स्थूल और सूक्ष्मरूपसे करोड़ों नाडियाँ हैं । इसमें पचास पल पित्त और उसका आधा अर्थात् पच्चीस पल श्लेष्मा ( कफ ) बताया गया है ॥ ५१ ॥
सततं जायमानं तु विण्मूत्रं चाप्रमाणतः । एतद्गुणसमायुक्तं शरीरं व्यावहारिकम् ॥ ५२ ॥
भुवनानि च सर्वाणि पर्वतद्द्वीपसागरा : । आदित्याद्यौ ग्रहाः। सन्ति शरीरे पारमार्थिके ॥ ५३ ॥
पारमार्थिकदेहे हि षट्चक्राणि भवन्ति च । ब्रह्माण्डे ये गुणाः प्रोक्तास्तेऽप्यस्मिन्नेव संस्थिताः ॥ ५४ ॥
सदा होनेवाले विष्ठा और मूत्रका प्रमाण निश्चित नहीं किया गया है । व्यावहारिक शरीर इन ( उपर्युक्त ) गुणों से युक्त कहा गया है ॥ ५२ ॥
पारमार्थिक शरीरमें सभी चौदहों भुवन , सभी पर्वत , सभी द्वीप एवं सभी सागर तथा सूर्य आदि ग्रह ( सूक्ष्मरूपसे ) विद्यमान रहते है ।।५३।।
पारमार्थिक शरीरमें मूलाधार आदि छः चक्र होते हैं । ब्रह्माण्डमें जो गुण कहे गये हैं , वे सभी इस शरीरमें स्थित हैं ॥ ५४ ॥
(श्लोक ७२ से ८२ तक देखें । १ पल -६४ माशेकी एक तौल , २. कुडव - फुडवं दशमापक - दस माशेका एक कुडव होता है । )
तानहं ते प्रवक्ष्यामि योगिनां धारणास्पदान् । येषां भावनया जन्तुर्भवेद्वैराजरूपभाक् ॥ ५५ ॥
पादाधस्तातलं ज्ञेयं पादोध्यं वितलं तथा जानुनोः सुतलं विद्धि सविथदेशे महातलम् ॥ ५६ ॥
तलातलं सक्थिमूले गुपदेशे रसातलम् । पातालं कटिसंस्थं च सप्तलोकाः प्रकीर्तिताः ॥ ५७ ॥
योगियों के धारणास्पद उन गुणोंको में बताता है , जिनकी भावना करनेसे जीव विराट् स्वरूपका भागी हो जाता है ॥ ५५ ॥
पैरके तलवेमें तललोक तथा पैरके ऊपर वितललोक जानना चाहिये । इसी प्रकार जानुमें सुतल लोक और गाँधोंमें महातल जानना चाहिये । सविधके मूलमें तलातल , गुहास्थान में रसातल , कटिप्रदेशमें पाताल ( इस प्रकार पैरोंके तलवोंसे लेकर कटिपर्यन्त ) सात अधोलोक कहे गये हैं ॥ ५६-५७ ॥
भूर्लोकं नाभिमध्ये तु भुवर्लोके ढतदूर्ध्वके । स्वलोंकं हृदये विद्यात् कण्ठदेशे महस्तथा ॥ ५८ ॥
जनलोकं वक्त्रदेशे तपोलोकं ललाटके । सत्यलोकं ब्रह्मरन्ध्रे भुवनानि चतुर्दश ॥ ५ ९ ॥
त्रिकोणे संस्थितो मेरुरध : कोणे च मन्दरः । दक्षकोणे च कैलासो वामकोणे हिमाचलः ॥ ६० ॥
निषधोध्यरेखायां दक्षायां गन्धमादनः । रमणो वामरेखायां सप्तैते कुलपर्वताः ॥ ६ ९ ॥ ॥
नाभिके मध्यमें भूलक , नाभिके ऊपर भुवलॉक , हृदय में स्वर्लोक , कण्ठमें महलोंक , मुखमें जनलोक , ललाटमें तपोलोक और ब्रह्मरन्धमें सत्यलोक स्थित है । इस प्रकार चौदहों लोक पारमार्थिक शरीरमें स्थित हैं ।। ५८-५९ ॥
त्रिकोणके मध्यमें मेरु , अध : कोणमें मन्दर , दाहिने कोणमें कैलास , वामकोणमें हिमाचल , ऊध्वरेखामें निषध , दाहिनी ओरकी रेखामें गन्धमादन तथा बायीं ओरकी रेखामें रमणाचल नामक पर्वत स्थित है । ये सात कुलपर्वत इस पारमार्थिक शरीरमें हैं ॥ ६०-६१ ।।
अस्थिस्थाने भवेजम्यू : शाको मज्जासु संस्थितः । कुशद्वीपः स्थितो मांसे क्रौञ्चद्वीपः शिरासु च ॥ ६२ ॥
त्वचायां शाल्मलीद्वीपो गोमेदो रोमसञ्चये । नखस्थं पुष्करं विद्यात् सागरास्तदनन्तरम् ॥ ६३ ॥
अस्थिमें जम्बूद्वीप , मन्जामें शाकद्वीप , मांसमें कुशद्वीप , शिराओंमें क्रौशद्वीप , त्वचामें शाल्मलीद्वीप , रोमसमूहमें गोमेदद्वीप और नखमें पुष्करदीपकी स्थिति जाननी चाहिये । तत्पश्चात् सागरोंकी स्थिति इस प्रकार है- ॥६२-६३ ॥
क्षारोदो हि भवेन्मूत्रे क्षीरे क्षीरोदसागरः । सुरोदधिः श्लेष्मसंस्थो मज्जायां घृतसागरः ॥ ६४ ॥
रसोदधिं रसे विद्याच्छोणिते दधिसागरः । स्वादूदो लम्बिकास्थाने जानीयाद् विनतासुत ।। ६५ ॥
नादचक्रे स्थितः सूर्यो बिन्दुचक्रे च चन्द्रमाः । लोचनस्थः कुजो ज्ञेयो हृदये ज्ञः प्रकीर्तितः ॥ ६६ ॥
विष्णुस्थाने गुरुं विद्या शुक्रो व्यवस्थितः । नाभिस्थाने स्थितो मन्दो मुखे राहुः प्रकीर्तितः ॥ ६७ ॥
वायुस्थाने स्थितः केतुः शरीरे ग्रहमण्डलम् । एवं सर्वस्वरूपेण चिन्तयेदात्मनस्तनुम् ॥ ६८ ॥
सदा प्रभातसमये बद्धपद्मासन : स्थितः । षट्चक्रचिन्तनं कुर्याद्यथोक्तमजपाक्रमम् ॥ ६ ९ ॥
हे विनतासुत क्षारसमुद्र मूत्रमें क्षीरसागर दूधमें , सुराका सागर श्लेष्म ( कफ ) में , घृतका सागर मज्जामें , रसका सागर रसमें और दधिसागर रक्तमें स्थित समझना चाहिये । स्वादूदकसागरको लम्बिकास्थान ( कण्ठके लटकते हुए भाग अथवा उपजिह्ना या काकल ) में समझना चाहिये ॥ ६४-६५ ॥
नादचक्रमें सूर्य , विन्दुचक्रमें चन्द्रमा , नेत्रोंमें मङ्गल और
हृदयमें बुधको स्थित समझना चाहिये । विष्णुस्थान अर्थात् नाभिय स्थित मणिपूरक चक्रमें बृहस्पति तथा शुक्रमें शुक्र स्थित हैं , नाभिस्थान नाभि ( गोलक ) में शनैश्वर स्थित है और मुखमें राहु स्थित कहा गया है । वायुस्थानमें केतु स्थित है , इस प्रकार समस्त ग्रहमण्डल इस पारमार्थिक शरीरमें विद्यमान है । इस प्रकार अपने इस शरीरमें समस्त ब्रह्माण्डका चिन्तन करना चाहिये ॥ ६६-६८ ॥
प्रभातकालमें सदा पद्मासनमें स्थित होकर षट्चक्रोंका चिन्तन करे और यथोक क्रमसे अजपा जप करे ॥ ६ ९ ॥
अजपानाम गायत्री शृणु तार्क्ष्य मूलाधारः मुनीनां मोक्षदायिनी । अस्याः संकल्पमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ७० ॥
श्रृणु तार्क्ष्य प्रवक्ष्येऽहमजपाक्रममुत्तमम् । यं कृत्वा सर्वदा जीवो जीवभावं विमुञ्चति ॥ ७१ ॥ च ।
। मूलाधार स्वाधिष्ठानं मणिपूरकमेव च । अनाहतं विशुद्धाख्यमाज्ञाषट्चक्रमुच्यते ।। ७२ ।।
मूलाधारे लिङ्गदेशे नाभ्यां हृदि च कण्ठगे । भ्रुवोर्मध्ये ब्रह्मरन्ध्रे क्रमाच्चक्राणि चिन्तयेत् ॥ ७३ ।।
आधारं तु चतुर्दलानलसमं वासान्तवर्णाश्रयं स्वाधिष्ठानमपि प्रभाकरसमं बालान्तषट्पत्रकम् । रक्ताभं मणिपूरकं दशदलं डाद्यं फकारान्तकं पत्रैर्द्वादशभिः स्वनाहतपुरं हैमं कठान्तावृतम् ॥ ७४ ।।
अजपा नामकी गायत्री मुनियोंको मोक्ष देनेवाली है । इसके सङ्कल्पमात्रसे मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता मैं है ॥ ७० ॥
हे तार्क्ष्य ! सुनो , मैं तुम्हें अजपाजपका उत्तम क्रम बताता हूँ जिसको सर्वदा करनेसे जीव जीवभावसे मुक्त हो जाता है ॥ ७१ ॥
मूलाधार , स्वाधिष्ठान , मणिपूरक , अनाहत , विशुद्ध तथा आज्ञा - इन्हें पट्चक्र कहा जाता है ॥ ७२ ॥
इन चक्रोंका क्रमश : मूलाधार ( गुद प्रदेशके ऊपर ) में , लिङ्गदेशमें , नाभिमें , हृदयमें , कण्ठमें , भौहोंके मध्यमें तथा ब्रह्मरन्ध्र ( सहस्रार ) में चिन्तन करना चाहिये ॥ ७३ ॥
मूलाधारचक्र चतुर्दलाकार , अनिके समान और व से स पर्यन्त वर्णों ( अर्थात् व श प और स ) का आश्रय है । स्वाधिष्ठानचक्र सूर्यके समान दीप्तिमान् व से लेकर ल पर्यन्त वर्णों ( अर्थात् य , भ , म , य , र , ल ) का आश्रयस्थान और षड्दलाकार है । मणिपूरकचक्र रक्तिम आभावाला , दशदलाकार और ड से लेकर फ पर्यन्त वर्णों ( अर्थात् ड , ढ , ण , त , थ , द , ध , न , प , फ ) का आधार है । अनाहतचक्र द्वादशदलाकार , स्वर्णिम आभावाला तथा क से ठ पर्यन्त वर्णों ( अर्थात् क , ख , ग , घ , ङ , च , छ , ज , झ , ञ , ट , ठ ) से युक्त है ॥ ७४ ॥
पत्रैः सस्वरषोडशैः शशधरज्योतिर्विशुद्धाम्बुजं हंसेत्यक्षरयुग्मकं द्वयदलं रक्ताभमात्राम्बुजम् । तस्मादूर्ध्वगतं प्रभासितमिदं पद्म सहस्त्रच्छदं सत्यानन्दमयं सदा शिवमयं ज्योतिर्मयं शाश्वतम् ॥ ७५ ।।
गणेशं च विधिं विष्णुं शिवं जीवं गुरुं ततः । व्यापकं च परं ब्रह्म क्रमाच्चक्रेषु चिन्तयेत् ॥ ७६ ॥
एकविंशत्सहस्त्राणि षट्शतान्यधिकानि च । अहोरात्रेण श्वासस्य गतिः सूक्ष्मा स्मृता बुधैः ॥ ७७ ॥
हंकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुनः हंसो हंसेति मन्त्रेण जीवो जपति तत्त्वतः ॥ ७८ ॥
विशुद्धचक्र षोडशदलाकार , सोलह स्वरों ( अ , आ , इ , ई उ ऊ ऋ ॠ लु , लू , ए , ऐ , ओ , औ , अं , अ : ) - से युक्त कमल और चन्द्रमाके समान कान्तिवाला होता है , आज्ञाचक्र ' हंस ' इन दो अक्षरोंसे युक्त , द्विदलाकार और रक्तिम वर्णका है ।
उसके ऊपर ( ब्रह्मरन्ध्रमें ) देदीप्यमान सहस्रदलकमलाकारचक्र है , जो कि सदा सत्यमय , आनन्दमय , शिवमय , ज्योतिर्मय और शाश्वत है ॥ ७५ ॥ इन चक्रोंमें क्रमशः गणेश , ब्रह्मा , विष्णु , शिव , जीवात्मा , गुरु तथा व्यापक परब्रह्मका चिन्तन करना चाहिये । अर्थात् मूलाधारचक्रमें गणेशका , स्वाधिष्ठानचक्रमें ब्रह्माजीका , मणिपूरकचक्रमें विष्णुका , अनाहतचक्रमें शिवका , विशुद्धचक्रमें जीवात्माका , आज्ञाचक्रमें गुरुका और सहस्रारचक्रमें सर्वव्यापी परब्रह्मका चिन्तन करना चाहिये ॥ ७६ ॥
विद्वानोंने एक दिन रातमें २१६०० श्वासोंकी सूक्ष्मगति कही है । ' हं ' का उच्चारण करते हुए श्वास बाहर निकलता है और ' सः ' की ध्वनि करते हुए अंदर प्रविष्ट होता है । इस प्रकार तात्त्विकरूपसे जीव ' हंस हंसः ' इस मन्त्र ( से परमात्मा ) का निरन्तर जप करता रहता है ॥ ७७-७८ ॥ षट्शतं गणनाथाय षट्सहस्त्रं तु वेधसे । षट्सहस्त्रं च हरये षट्सहस्स्रं हराय च ॥ ७ ९ ॥
जीवात्मने सहस्त्रं च सहस्रं गुरवे तथा चिदात्मने सहस्त्रं च जपसंख्यां निवेदयेत् ॥ ८० ॥
एतांश्चक्रगतान् ब्रह्म मयूखान् मुनयोऽमरान् । सत्सम्प्रदायवेत्तारश्चिन्तयन्त्यरुणादयः ॥ ८१ ॥
जीवके द्वारा अहोरात्र में किये जानेवाले इस अजपा - जपके छ : सौ मन्त्र गणेशके लिये छः हजार ब्रह्माके लिये , छः हजार विष्णुके लिये , छ हजार शिवके लिये , एक हजार जीवात्माके लिये एक हजार गुरुके लिये और एक हजार मन्त्रजप चिदात्माके लिये निवेदित करने चाहिये ॥ ७ ९ -८० ॥
श्रेष्ठ सम्प्रदायवेत्ता अरुण आदि मुनि इन षट्चक्रों में ब्रह्ममयूख ( किरण ) के रूपमें स्थित गणेश आदि देवताओंका चिन्तन करते हैं ॥ ८१ ॥
शुकादयोऽपि मुनयः शिष्यानुपदिशन्ति च । अतः प्रवृत्तिं महतां ध्यात्वा ध्यायेत्सदा बुधः ॥ ८२ ॥
कृत्वा च मानसीं पूजां सर्वचक्रेष्वनन्यधीः । ततो गुरूपदेशेन गायत्रीमजपां जपेत् ॥ ८३ ॥
अधोमुखे सहस्त्रदलपङ्कजे । हंसर्ग श्रीगुरुं ध्यायेद्वराभयकराम्बुजम् ॥ ८४ ॥
ततो रन्ध्र शुक आदि मुनि भी अपने शिष्योंको इनका उपदेश करते हैं । अतः महापुरुषोंकी प्रवृत्तिको ध्यान में रखकर विद्वानोंको सदा इन चक्रोंमें देवताओंका ध्यान करना चाहिये ॥ ८२॥
सभी चक्रोंमें अनन्यभावसे उन देवताओंकी मानस पूजा करके गुरुके उपदेशके अनुसार अजपा गायत्रीका जप करना चाहिये ॥ ८३॥
इसके बाद ब्रह्मरन्ध्रमें अधोमुखरूपमें स्थित सहस्रदलकमलमें हंसपर विराजमान , वर तथा अभयमुद्रायुक्त दोनों हस्तकमलोंकी स्थितिवाले श्रीगुरुका ध्यान करना चाहिये ॥ ८४ ॥
क्षालितं चिन्तयेद्देहं तत्पादामृतधारया । पञ्चोपचारैः सम्पूज्य प्रणमेत्तत्सतवेन च ।।
ततः कुंडलिनी ध्यायेदारोहादवरोहतः । षट्चक्रकृतसञ्चारां सार्धत्रिवलयां स्थिताम् ॥ ८६ ॥
ततो ध्यायेत् सुषुम्णाख्यं धाम रन्ध्राद् बहिर्गतम् । तथा तेन गता यान्ति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ८ ॥
ततो मच्चिन्तित रूपं स्वज्योतिः सनातनम् सदानन्दं सदा ध्यायेन्मुहूर्त ब्राह्मसंज्ञके ।। ८८ ।।
एवं गुरूपदेशेन अचेता मनो निश्चलतां नयेत् । न तु स्वेन प्रयत्नेन तद्विना पतनं भवेत् ॥ ८ ९ ॥
गुरुचरणोंसे निकली हुई अमृतमयी धारासे अपने शरीरको प्रक्षालित होता हुआ - सा चिन्तन करे फिर पञ्चोपचारसे पूजा करके स्तुतिपूर्वक प्रणाम करना चाहिये ॥ ८५ ॥
तदनन्तर कुण्डलिनीका ध्यान करना चाहिये , जो षट्चक्रोंमें साढ़े तीन वलयमें स्थित है और आरोह तथा अवरोहके रूपमें षट्चक्रमें संचरण करती है | ८६ ॥
सदनन्तर ब्रह्मरन्ध्रसे बहिर्गत सुषुम्णा नामक धाम ( प्रकाशमार्ग ) का ध्यान करना चाहिये । उस मार्गसे जानेवाले पुरुष विष्णुके परम पदको प्राप्त करते हैं ॥ ८७ ॥
इसके अनन्तर ब्राह्म ' नामक मुहूर्तमें मेरे द्वारा चिन्तित आनन्दस्वरूप स्वप्रकाश , सनातनरूपका सदा ध्यान करना चाहिये ॥८८ ॥
इस प्रकार गुरुके उपदेशसे मनको निश्चल बनाये , अपने प्रयत्नसे ऐसा नहीं करे , क्योंकि गुरुके उपदेशके बिना साधकका पतन हो सकता है ॥ ८ ९ ॥
अन्तर्याग विधायैवं बहियांग समाचरेत् । स्नानसन्ध्यादिकं कृत्वा कुर्याद्धरिहरार्चनम् ।। १० ।।
१. सूर्योदयसे चार घड़ी ( लगभग डेढ़ पटे ) पूर्वका समय ब्राह्ममुहूर्त कहलाता है ।
देहाभिमानिनामन्तर्मुखीवृत्तिर्न जायते । अतस्तेषां तु मद्भक्तिः सुकरा मोक्षदायिनी ॥ ११ ॥
तपोयोगादयो मोक्षमार्गाः सन्ति तथापि च ।समीचीनस्तु मद्भक्तिमार्गः संसरतामिह ९२ ।।
ब्रह्मादिभिश्च सर्वज्ञैरयमेव। विनिश्चितः । त्रिवारं वेदशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ॥ ९ ३ ॥
इस प्रकार अन्तर्याग ? सम्पन्न करके बहियांग का अनुष्ठान करना चाहिये । स्नान तथा संध्या आदि कमको करके विष्णु और शिवकी पूजा करनी चाहिये ॥ ९ ० ॥
देहका अभिमान रखनेवाले ( अर्थात् पाञ्चभौतिक शरीरको ही अपना शरीर समझनेवाले ) व्यक्तियोंकी वृत्ति अन्तर्मुखी नहीं हो सकती । इसलिये उनके लिये सरलतापूर्वक की जा सकनेवाली मेरी भक्ति हो मोक्षसाधिका हो सकती है ॥ ९ १ ।
यद्यपि तपस्या और योगसाधना आदि भी मोक्षके मार्ग हैं तो भी इस संसारचक्रमें फंसे हुए व्यक्तियोंक उद्धारके लिये मेरा भक्तिमार्ग ही समीचीन उपाय है ॥ ९ २ ॥
ब्रह्मा आदि देवोंने वेद और शास्त्रका पुनः पुनः विचार करके तीन बार यही सिद्धान्त सुनिश्चित किया है । ९ ३ ॥
यज्ञादयोऽपि सद्धर्माश्चित्तशोधनकारकाः । फलरूपा च मद्भक्तिस्तां लकवा नावसीदति ॥ १४ ॥
एवमाचरणं तार्क्ष्य करोति सुकृती नरः । संयोगेन च मद्भक्त्या मोक्षं याति सनातनम् ॥ ९ ५ ॥
इति गरुडपुराणे सारोद्धारे सुकृतिजनजन्माचरणनिरूपणं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
यज्ञादि सद्धर्म भी अन्तःकरणकी शुद्धिके हेतु हैं और इस शुद्धिके फलस्वरूप मेरी भक्ति प्राप्त होती है , जिसे प्राप्त करके व्यक्ति पुनः जन्म - मरणादि दुःखोंसे पीड़ित नहीं होता ॥ ९ ४ ॥
हे तार्क्ष्य जो सुकृती मनुष्य इस प्रकारका आचरण करता है , वह मेरी भक्तिके योगसे सनातन मोक्षपद प्राप्त करता है ॥ ९ ५ ॥
इस प्रकार गरुडपुराण के अन्तर्गत सारोद्धारमें ' सुकृतिजनजन्माचरणनिरूपण ' नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
भूपाल मिश्र
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